डॉ आनंद पाटील
भारत में समस्या यह है कि हम ग़लत को ग़लत भी नहीं कह सकते क्योंकि तथाकथित धर्मनिरेपक्ष ‘सेक्यूलर’ बेईमान तुरंत उन्हें ‘सांप्रदायिकता का ओवरकोट’ पहनाकर मीडिया, सोशल मीडिया में प्रचारित करने में जुट जाते हैं कि देखो कैसे ‘हिंदुत्व जाग उठा’, देखो कि कैसे अल्पसंख्यक शांतिप्रिय मुसलमानों के साथ ‘लिचिंग’ की घटनाएँ बढ़ गई हैं।
ख़ैर, कट्टरपंथी मुसलमानों ने कश्मीरी पंडित और उनकी स्त्रियों के साथ जो किया, उसकी भत्सर्ना, आलोचना करने वालों को भी सांप्रदायिक, कट्टर हिंदुवादी और मोदीभक्त (अंधभक्त!) कहा गया (जाता) है। कितनी विडंबना है कि धर्म-विस्तार की कुटिल भावना से इस्लाम सारी दुनिया की ख़ाक छानता हुआ भारतवर्ष में दाखिल हुआ और उसने भारत को हर तरह से तहस-नहस (टुकड़े-टुकड़े) कर दिया।
हमारे मंदिरों से लेकर विद्या–मंदिरों तक नेस्तनाबूत कर दिए गए। आज भी कट्टरपंथी इस्लामपरस्त और उनकी चरणरज से तिलक करने वाले देशद्रोही (गैंग) चारण भारत के टुकड़े-टुकड़े करने की साज़िशें रचते हैं और येन-केन-प्रकारेण उन साज़िशों को क्रियान्वित करते हुए पाए भी जाते हैं।
‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ वाली मोदी सरकार को यह जानना ही होगा कि आपके इस मंत्र से कट्टरपंथी मुसलमान मुग्ध होने से रहे! शाहीनबाग़ की भीड़ ने और दिल्ली दंगों ने इसकी पुष्टि कर दी है। उनकी शिक्षा-दीक्षा में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे (इंशाअल्लाह!)’ ही मौजूद है और रहेगा!
इतिहास और ‘क्रोनोलॉजी’ से यह स्पष्ट और सिद्ध हो जाता है। जिन्ना की आज़ादी से ‘जिन्ना वाली आज़ादी’ तक और ‘कलकत्ता किलिंग’ से लेकर कश्मीरी पंडितों की कहानी तक हिंदुओं के क़त्लेआम से भरे इतिहास में कई सिसकती हुई लाशें यदा-कदा किसी देशप्रेमी के मन को व्याकुल कर जाती हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर सनातनियों की उपासना स्थली (तपोभूमि) रहा है और कश्मीर के शैववाद ने जो तत्व–दर्शन दिया है, वह आज विस्मृत कर दिया गया है। कट्टरपंथी इस्लाम के विस्तार ने भारत की जो स्थिति बना दी है, उससे वाक़िफ़ होना ज़रूरी है।
आज ‘रोहिंग्या मुसलमान घुसपैठियों’ की समस्या कल का घनघोर सिरदर्द है और जो इन घुसपैठियों की वक़ालत कर(ते) रहे हैं, वे सरासर देशद्रोही हैं। दोराय नहीं कि ऐसे ही द्रोहियों ने भारत की यह दुर्दशा बना दी है। भारत की ‘चिकन-नेक’ तोड़ने की बात करने वाले, भारत के ‘22 टुकड़े’ करने की मंशा रखने वाले, ‘15 मिनट के लिए पुलिस को हटाने’ पर सभी हिंदुओं का संहार करने का विचार रखने वालों के इरादे मज़बूत हैं।
और हम सभी हिंदू मजबूर हैं क्योंकि हम ‘हिंदू’ हैं ; ‘सहिष्णुता’ हमारा धर्म है ; ‘मानवता’ हमारी पहचान है ; जीव दया और प्रेम हमारी शिक्षा, हमारा जीवन मंत्र है ; वसुधा पर मौजूद सभी हमारे भाई–बहन हैं, हमारा कुटुंब है इत्यादि–इत्यादि। जब–जब न पढ़ाया हुआ इतिहास पढ़ने को मिल जाता है, उपरोक्त सारी उदारतावादी बातें बकवाद (bullshit) प्रतीत होती हैं।
संकेत भी है कि देखो कि कैसे प्रजातियाँ विलुप्त हो (कर दी!) जाती हैं। इस्लामिक कट्टरता और सांप्रदायिकता का शिकार होकर अपना सर्वस्व खोने के बावजूद ‘पंडित’ प्रेम की बात करने के लिए विवश हैं। उन्हें डर है कि कहीं भारत के बौद्धिक बेईमान तथाकथित सेक्यूलर कहीं उन्हें ‘असहिष्णु’ और ‘सांप्रदायिक’ न कह दें! उन्हें ‘भगोड़ा’ कहने से भी तो लोग चूके नहीं थे।
टीकालाल टपलू, जस्टिस नील कांत गंजू, गिरिजा टिक्कू और बाद में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जो हुआ, उसे भुलाया नहीं जा सकता। केरल में जो कट्टरपंथी इस्लामिक गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है, महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश से आये दिन जो कट्टरपंथी जिहादियों की ख़बरें आती हैं, उन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।
केरल के वायनाड़ से चुनाव लड़ने वाले स्वार्थांध राजनेता राहुल गांधी और ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को बढ़ावा देने वाले ऐसे अनेकानेक नेताओं के चरित्रों को जानना होगा। आने वाला समय निश्चय ही विकट है। समय रहते सबको जानना-सोचना-समझना-परखना होगा। केवल स्पष्टोक्ता बनने से काम नहीं चलने वाला।
बौद्धिक बेईमानों की मीडिया चर्चा-परिचर्चा की परवाह किए बिना यथावश्यक इस्लामिक अराजकता और कट्टरता का प्रतिरोध करना होगा अन्यथा ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे! इंशाअल्लाह! इंशाअल्लाह!’ की गर्जना का विकराल होना निश्चय है।
सरदार पटेल के ऊपर उद्धृत परामर्श के आलोक में सबको जाग्रत होना होगा। बीआर अंबेडकर की पुस्तकें– ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’, ‘पाकिस्तान ऑर दपार्टचिशन ऑफ़ इंडिया’, सरदार पटेल की उपरोक्त पुस्तक ‘भारत विभाजन’ और हंसराज रहबर की पुस्तक ‘नेहरू बेनकाब’ पढ़िए।
देखिए उस बर्बरता को जिसमें इस्लामिक आतंकवाद की गहरी जड़ें दिखाई देंगी। स्मरण रहे कि कश्मीरी पंडितों के अस्तित्व और अस्मिता को हर तरह से मिटाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी गई। मुहब्बत बाँटोगे, मुहब्बत मिलेगी और नफ़रत बाँटोगे तब भी मुहब्बत ही मिलेगी– इस रिवाज़ को बदलने की नितांत आवश्यकता है मित्रों! यकीन मानिए, ‘शेष’ जो भी है, वह ‘अवशेष’ मात्र है।
जब-तब इस देश का संयमी हिंदू वर्ग, जिसे माँ की कोख से संस्कार, संयम, धैर्य, सदसदविवेक का पाठ पढ़ाया जाता है, देश में आयातित वाद (वितंडा) और सेक्यूलरिज़्म की भेंट चढ़ जाता है। कट्टरपंथी इस्लाम का विस्तार जिस गति से हुआ है, वह आश्चर्यजनक नहीं है। वहाँ संस्कार, संयम, धैर्य, सदसदविवेक का पाठ नहीं पढ़ाया जाता, उन्हें पढ़ाया जाता है– मुल्लाओं का क़ानून और मज़हबी शिक्षा, जिहाद (धार्मिक उन्माद) और येन-केन-प्रकारेण धर्म विस्तार!
‘शिकारा’ में लतीफ़ लोन का किरदार बड़ा मज़ेदार है, वह फ़िल्म के आरंभ में एक ‘सेक्यूलर’ के रूप में प्रस्तुत होता है और एक घटना के तुरंत बाद बर्बर आतंकवादी बन जाता है तथा अपने लंगोटिया यार शिव को ‘भारत’ चले जाने का मशवरा देता है एवं अपनी प्रेयसी आरती कचरु को मौत के घाट उतार देता है। फ़िल्म में दिखाया गया है कि ‘कश्मीर हमारा (मुसलमान) है!’ “वापस मत आना और इस जगह की इत्तला किसी को मत देना। हिंदुस्तानी एजेंटों को हम गोली मार देते हैं।” में एक ठेठ संदेश है, जिसे निश्चय ही पाठक–दर्शक सोचने–समझने का प्रयास करेंगे।
गंगा-जमुनी तहज़ीब के पैरोकार राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘सीन 75’ (1977) में रचित एक काव्यांश अपने महाविद्यालयीन जीवन से ही न जाने क्यों हृदय को प्लावित करता रहा है! यद्यपि यह उपन्यास मुंबई महानगर के बहुरंगी सामाजिक जीवन का रेखांकन है परंतु यह काव्यांश कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का अनुभव करा जाता है। उपन्यास में आए उस काव्यांश (पृ. 111–112) के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देना चाहूँगा। मुलाहज़ा है–
“जिनसे मैं छूट गया अब वह जहाँ कैसे हैं?
शाखे-गुल कैसी है, फूलों के मकाँ कैसे हैं
जिस गली ने मुझे सिखलाये थे आदाबे-जुनूँ
उस गली में मेरे पैरों के निशाँ कैसे हैं?
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवाएँ कैसी
साख कैसी है जुनूँवालों की, क़ीमते–चाके गरीबाँ क्या है
चाँद तो अब भी निकलता होगा, चाँदनी अपनी हिक़ायते-वफ़ा
अब वहाँ किसको सुनाती होगी, चाँद को नींद न आती होगी
मैं तो पत्थर था, मुझे फेंक दिया, ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकाँ कैसे हैं…?”
।।समाप्त।।