द्वितीय क्रूश युद्ध (1147-1149)
जब सन् 1144 में मोसल के तुर्क शासक इमादुद्दीन ज़ंगी ने एदेसा को ईसाई शासक से छीन लिया तो पोप से सहायता की प्रार्थना की गई और उसके आदेश से प्रसिद्ध संन्यासी संत बर्नार्ड ने धर्मयुद्ध का प्रचार किया। किसी संत का इस प्रकार युद्ध का प्रचार करना फिर मानवता के लिए एक खतरे की घंटी बन गया था। लगने लगा था कि फिर विनाश के बादल गहरा रहे हैं । वास्तव में जो लोग अपने आपको संत कहते हैं उनका संतत्व युद्ध का प्रचार करना नहीं है बल्कि शांति का प्रचार करना है।
पोप से सहायता की प्रार्थना का अर्थ था कि पोप के पास अपने अनुयायियों के रूप में एक विशाल सेना थी। पोप ने इस प्रार्थना पर कार्यवाही करते हुए जब अपने एक संत बर्नार्ड को धर्म युद्ध का प्रचार करने की आज्ञा दी तो उस सन्त ने विपरीत मतावलंबियों के विरुद्ध वैसा ही विषवमन करना आरम्भ किया जैसा पहले क्रूस युद्ध के समय पीटर ने किया था।
इस प्रकार पोप की संलिप्तता ने यह स्पष्ट कर दिया कि धर्मगुरु भी उस समय स्वार्थ प्रेरित हो गए थे। उन्हें मानवता की भलाई इसी में दिखाई दे रही थी कि उनका अपना धर्म गुरुपद किस प्रकार सुरक्षित रह सकता है और किस प्रकार वह महिमामंडित होकर संसार पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना शासन स्थापित कर सकते हैं? यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने की है कि हमारे ऋषि महात्माओं के द्वारा राजाओं को दिए गए परामर्श को भी ईसाई और मुस्लिम इतिहासकारों ने यह कहकर कोसा है कि ये लोग राजनीति में हस्तक्षेप करके अपना वर्चस्व स्थापित करते थे। इसे इन लोगों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था का नाम देकर भारत के इतिहास को विकृत करने का प्रयास किया है। जबकि इन्हें अपने तथाकथित धर्म गुरुओं के इस प्रकार के आचरण में आज तक भी कोई त्रुटि दिखाई नहीं दी। यद्यपि इनके धर्म गुरुओं के इस आचरण ने मानवता का भारी अहित किया । अस्तु।
मजहबी विष फिर से लोगों की नसों में चढ़ गया और पुराने घावों को कुरेदते हुए सब एक दूसरे के प्राण लेने के दृष्टिकोण से घरों से निकल पड़े। ‘विकिपीडिया’ के अनुसार इस युद्ध के लिए पश्चिमी यूरोप के दो प्रमुख राजा (फ्रांस के सातवें लुई और जर्मनी के तीसरे कोनराड) तीन लाख की सेना के साथ थलमार्ग से कोंस्तांतीन होते हुए एशिया माइनर पहुँचे। इनके परस्पर वैमनस्य और पूर्वी सम्राट् की उदासीनता के कारण इन्हें सफलता न मिली। जर्मन सेना इकोनियम के युद्ध में 1147 में परास्त हुई और फ्रांस की अगले वर्ष लाउदीसिया के युद्ध में। पराजित सेनाएँ समुद्र के मार्ग से अंतिओक होती हुई जेरूसलम पहुँची और वहाँ के राजा के सहयोग से दमिश्क पर घेरा डाला, पर बिना उसे लिए हुए ही हट गई। इस प्रकार यह युद्ध नितांत असफल रहा।
यद्यपि हमारा मानना है कि यह युद्ध साम्प्रदायिकता के जिस विष को लेकर आरम्भ हुआ था उसको और भी अधिक गहनता के साथ फैलाने में सफल रहा। तब से लेकर आज तक भी लोगों ने कभी यह नहीं सोचा कि साम्प्रदायिक या मजहबी सोच किस प्रकार उत्पाती व उन्मादी हो सकती है ? यदि उस समय के लोगों की मानसिकता पर विचार करें तो पता चलता है कि युद्ध चाहे असफल हो गया हो पर युद्ध की मानसिकता अभी थकने का नाम नहीं ले रही थी। यही कारण रहा कि लोग शीघ्र ही तीसरे क्रूस युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन समिति