‘समरांगणसूत्रधार’ – महाराज भोज का अक्षय कीर्ति-स्तम्भ
विगत दो दशकों से गृह-निर्माण में ‘वास्तुशास्त्र’ का प्रचलन बढ़ा है। नया घर बनवाते समय अथवा मरम्मत करवाते समय या घर की इंटीरियर डिजायनिंग के समय पेशेवर वास्तुविद की मदद ली जा रही है. प्रयास यह रहता है कि घर वास्तुशास्त्र के अनुकूल हो। पेशेवर वास्तुविद यह दावा करते हैं कि उन्हें वास्तु की पूर्ण जानकारी है और उनके बनाए नक़्शे के अनुसार घर/ऑफिस का निर्माण किया जाए तो भविष्य में कोई समस्या नहीं आएगी। हालाँकि उनमें से अधिकांश ने वास्तुशास्त्र के मूल ग्रंथों का नाम भी नहीं सुना होता।
आज हम आपको वास्तुशास्त्र के एक ऐसे ग्रन्थ के विषय में बताते हैं जिसे ‘भारतीय वास्तुकला का प्रतिनिधि-ग्रन्थ’ कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी. यह ग्रन्थ है— समरांगणसूत्रधार, जिसे 11वीं शताब्दी में धार, मध्यप्रदेश के परमारवंशीय नरेश महाराजाधिराज भोज ने लिखा था। भोज एक बहुत प्रतापी राजा होने के साथ-साथ भारतीय वाङ्मय के प्रकाण्ड विद्वान् भी थे। कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, दर्शन, संगीत, खगोल, कोश, भवन-निर्माण, काव्य, चिकित्सा, व्याकरण, आदि भारतीय ज्ञान-विज्ञान पर लगभग 84 ग्रंथों की रचना की थी, जिसमें ‘समरांगणसूत्रधार’ अत्यन्त प्रसिद्ध है।
‘समरांगणसूत्रधार’ ग्रन्थ की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इस ग्रंथ को लिखते समय महाराजा भोज ने वैदिक वाङ्मय, गर्गसंहिता, बृहत्संहिता, विश्वकर्माप्रकाश, नाट्यशास्त्र, मयमतम, बृहद्योगयात्रा, चित्रलक्षणशास्त्र, वायुपुराण, देवीपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, मत्स्यपुराण, लिंगपुराण, किरणागम, कामिकागम, कौटलीय-अर्थशास्त्रादि ग्रंथों में प्राप्त वास्तु-निर्देशों को ध्यान में रखा। तात्पर्य यह कि समरांगणसूत्रधार उपर्युक्त सभी ग्रंथों का समन्वय है। इसलिए आधुनिक वास्तुशास्त्रियों को समरांगणसूत्रधार का अध्ययन अवश्य करना चाहिये।
समरांगणसूत्रधार मूलतः वास्तुकला का ग्रंथ है, किन्तु इसमें अन्य कई कलाओं का भी समावेश है। नवीं-दसवीं शती तक भारत में जिन कलाओं पर आधारित शास्त्रों का प्रणयन हो चुका था, उन सभी के मतों का सम्यक् निरूपण इस ग्रंथ में हुआ है। यन्त्र-निर्माण कला, मूर्तिकला, चित्रकला और नृत्यकला भी इसमें शामिल है।
समरांगणसूत्रधार, महाराज भोज का अक्षय कीर्ति-स्तम्भ है। महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ओरियंटल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा ने पहली बार इस महान् ग्रंथ को सन् 1924 एवं 1925 में 2 खण्डों में प्रकाशित किया। इनका संपादन त्रिवेन्द्रम संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य और त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज़ के सम्पादक, महामहोपाध्याय श्री टी. गणपति शास्त्री (1860-1926) ने किया था। गायकवाड़ ओरियंटल सीरीज़ के अंतर्गत ग्रंथ-क्रमांक 25 एवं 32 में ये ग्रंथ प्रकाशित हुए।
श्री टी. गणपति शास्त्री ने समरांगणसूत्रधार की तीन पाण्डुलिपियों के आधार पर ग्रंथ का संपादन किया। पहली पाण्डुलिपि विक्रम संवत् 1594, अर्थात् सन् 1537 ई. की है, जो बड़ौदा के केन्द्रीय पुस्तकालय में है और इसमें 82 अध्याय हैं। दूसरी पाण्डुलिपि भी इसी पुस्तकालय में थी और इसमें खण्डात्मक रूप से 55 अध्याय थे। तीसरी पाण्डुलिपि पाटन के ग्रंथ-भण्डार से प्राप्त की गई थी, जिसमें 49 अध्याय थे। कागज और लिपि आदि की दृष्टि से यह पहली पाण्डुलिपि के कालखण्ड की थी।
सन् 1966 में प्रख्यात इतिहासकार एवं भारतीय विद्या के अनन्य विद्वान् डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल (1904-1966) ने बड़ौदा ओरियंटल इंस्टीट्यूट के तत्कालीन निदेशक डॉ. बी.जे. सान्देसारा द्वारा उपलब्ध करवाई गई एक अन्य पाण्डुलिपि के आधार पर इस संस्करण का पुनर्सम्पादन किया। इस पाण्डुलिपि में 83 अध्याय थे। इस पाठ के आधार पर डॉ. अग्रवाल ने पूर्व-प्रकाशित संस्करण में श्लोक और शब्दों के पाठान्तर को नये संस्करण पाद-टिप्पणियों में देकर उसे बहुत उपादेय बना दिया। डॉ. अग्रवाल ने इसकी एक भूमिका भी लिखी, जिसमें उन्होंने पूर्व प्रकाशित संस्करण और उपलब्ध पाण्डुलिपियों की सूचना दी।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा सम्पादित समरांणसूत्रधार के प्रकाशन के बाद इस ग्रंथ के कुछ और भी संस्करण प्रकाशित हुए, जिनमें पाठ की प्रामाणिकता की दिशा में और प्रयास शेष था। इस दिशा में कार्य किया प्राच्यविद्या के सुप्रसिद्ध विद्वान्, उदयपुर-निवासी डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’ ने, जिन्होंने संस्कृत के वयोवृद्ध विद्वान् प्रो. भँवर शर्मा के साथ मिलकर समरांगणसूत्रधार का सम्पूर्ण मूल पाठ का पुनर्संपादन, हिंदी-अनुवाद, मूल पाठ और पाद-टिप्पणियों सहित कर डाला, जिसे चौखम्बा संस्कृत सीरीज़ ऑफि़स, वाराणसी ने दो जिल्दों में प्रकाशित किया। इस संस्करण में पहली बार प्रत्येक स्थल पर उपशीर्षक देते हुए विषय-वस्तु के वैविध्य को भी प्रकट करने का प्रयास किया गया है। यह विशेष संस्करण केवल अनुवाद नहीं है, बल्कि पूरा भाव भी ग्रहण करने का प्रयास है। इस अनुवाद में उत्तर-मध्य भारत के तत्कालीन शिल्प और स्थापत्य शैली सहित एतद्विषयक परम्पराओं का भी ध्यान रखा गया है।
महाराजा भोज ने यह महान् ग्रंथ संवाद या प्रश्नोत्तर-शैली में लिखा है और इसका पता समरांगणसूत्रधार के तीसरे अध्याय से चलता है। इसमें प्रश्नकर्ता विश्वकर्मा के मानसपुत्र जय और उत्तरदाता स्वयं विश्वकर्मा हैं। जय ही विश्वकर्मा के सम्मुख विभिन्न प्रश्न रखते हैं, इन प्रश्नों के रूप में ग्रंथ की विषय-सूची या इसके वर्ण्य विषयों का बोध होता है। संस्कृत में प्रश्नोत्तर शैली में ग्रंथों की रचना की प्राचीन परिपाटी रही है। न केवल संस्कृत बल्कि प्राकृत और पाली में भी यह परम्परा रही है।
समरांगणसूत्रधार में 83 अध्याय हैं, जिनमें नगर-स्थापत्य, मन्दिर-स्थापत्य, गृह-स्थापत्य, मूर्तिकला तथा मुद्राओं सहित विभिन्न प्रकार के यंत्रों के बारे में भी वर्णन है। समरांगणसूत्रधार के प्रारम्भ में कहा गया है कि विश्वकर्मा ने जय, विजय, सिद्धार्थ और अपराजित नामक अपने मानसपुत्रों को वास्तु-विनिवेश का निर्देश देते हुए कहा था कि तुम चारों ही दिशाओं में पृथक्-पृथक् जनों के लिए आश्रय-स्थान, उनके रहने के लिए निर्धारित और निर्मित करो। इन निर्मितियों के बीच-बीच में अन्तरपथ, सागर, शैल-पर्वत, नदियों का विधान भी रखते हुए महाराज पृथु के भय को शान्त करने हेतु दुर्ग की रचना भी करो। प्रत्येक वर्ण की प्रकृति के अनुसार लक्षणोंवाले संस्थान और आवासों को प्रत्येक ग्राम में, प्रत्येक दुर्ग में, प्रत्येक पत्तन में बनाओ।
समरांगणसूत्रधार में मुख्य रूप से वास्तुशिल्प का ही वर्णन है और बहुत सूक्ष्मता से सैद्धान्तिक और व्यावहारिक विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें गणितादि संख्यात्मक गणनाएँ हैं, त्रिभुज से लेकर बहुभुजों की रचना, भवनों-ग्रामों के तलच्छन्द, प्रासादों के भेदोपभेद का विस्तृत वर्णन भी है।
समरांगणसूत्रधार में यंत्रों का विशद वर्णन हुआ है। इसका 31वाँ अध्याय ‘यन्त्रविधान’ के नाम से मिलता है, जिसमें द्वारपाल-यंत्र, गजयंत्र, व्योमचारी विहंगम यंत्र, आकाशगामी दारुमय विमान-यंत्र, नरसिंह-यंत्र, योध-यंत्र, वारि-यंत्र, धारा-यंत्र, रथ-दोला यन्त्रादि का सटीक वर्णन हुआ है। लकड़ी के विमान, यान्त्रिक दरबान तथा सिपाही का भी उल्लेख है। इनमें रोबोट की झलक मिलती है। यही वर्णन इतना सजीव है कि ऐसा लगता है मानो उस काल में इन यंत्रों को बनाकर देखा गया हो। यंत्र-विमान के वर्णन में यह कहना कि जब सिंह के समान गर्जना करता हुआ चलित होगा तो अंकुश का भय त्यागकर हाथी भाग खड़े होंगे— ऐसा वही लिख सकता है जिसने इन यंत्रों को बनाकर उसका सार्वजनिक तौर पर परीक्षण किया हो।
किसी भी यंत्र के मुख्य गुण क्या-क्या होने चाहिए, इसका वर्णन समरांगणसूत्रधार में करते हुए पुर्जों के परस्पर सम्बंध, चलने में सहजता, चलते समय विशेष ध्यान न देना पड़े, चलने में कम ऊर्जा का लगना, चलते समय ज्यादा आवाज न करें, पुर्जे ढीले न हों, गति कम-ज्यादा न हो, विविध कामों में समय संयोजन निर्दोष हो तथा लंबे समय तक काम करना आदि प्रमुख 20 गुणों की चर्चा करते हुए ग्रंथ में कहा गया है—
- समयानुसार स्वसंचालन के लिए यंत्र से शक्ति-निर्माण होता रहना चाहिए।
- यंत्रों की विविध क्रियाओं मे संतुलन एवं सहकार हो।
- सरलता से, मृदुलता से चले।
- यंत्रो को बार-बार निगरानी की आवश्यकता न पड़े।
- बिना रुकावट के चलता रहे।
- जहाँ तक हो सके, यांत्रिक क्रियाओं में ज़ोर दबाब नहीं पड़ना चाहिए।
- आवाज़ न हो तो अच्छा, हो तो धीमी।
- यंत्र से सावधानता की ध्यानाकर्षण की ध्वनि निकलनी चाहिए।
- यंत्र ढीला, लड़खड़ाता या कांपता न हो।
- अचानक बंद या रुकना नहीं चाहिए।
- उसके पट्टे या पुर्जों का यंत्र के साथ गहरा संबंध हो।
- यंत्र की कार्यप्रणाली मे बाधा नहीं आनी चाहिए।
- उससे उद्देश्य की पूर्ति होनी चाहिए।
- वस्तु-उत्पादन मे आवश्यक परिवर्तन आदि यांत्रिक क्रिया अपने आप होती रहनी चाहिए।
- यंत्र-क्रिया सुनिश्चित क्रम में हो।
- एक क्रिया का दौर पूर्ण होते ही यंत्र मूल स्थिति पर यानी आरम्भ की दशा पर लौट जाना चाहिए।
- क्रियाशीलता मे यंत्र का आकार ज्यों-का-त्यों रहना चाहिए।
- यंत्र शक्तिमान हो।
- उसकी कार्यविधि सरल और लचीली हो।
- यंत्र दीर्घायु होना चाहिए।
(सोशल मीडिया से साभार)