सन्नी कुमार
पिछले दिनों मैसूर में एक लाइब्रेरी को जलाने की खबर आई। इसे एक बुजुर्ग सफाई कर्मचारी लंबे अरसे से चला रहे थे, इस काम के लिए सम्मानित भी थे, मगर कुछ लोगों को पता नहीं लाइब्रेरी से क्या दिक्कत थी। एक रात उन्होंने इसे जला दिया। इससे पहले पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी पर सरकार की नजर टेढ़ी होने की भी खबर मिली।
सात साल पहले, 2013 में जर्मनी में एक स्टडी हुई- ‘ज्ञानवान शहर के विकास में सार्वजनिक पुस्तकालयों की भूमिका।’ इसमें कुल 31 शहरों को चुना गया, जिनमें एक भी भारत का नहीं था। यह दिखाता है कि अपने यहां लाइब्रेरी या ज्ञान का क्या महत्व है। विश्व गुरु बनने की चाहत रखने वाले देश में लाइब्रेरी प्रायॉरिटी में नहीं है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी। पिछले दिनों बिहार सरकार ने इसके एक हिस्से को गिराने का फैसला लिया। इसका विरोध हुआ, पुलिस के एक रिटायर्ड अधिकारी ने अपना पुलिस मैडल तक वापस कर डाला। विरोध गहराया, तब जाकर सरकार अपने फैसले पर दोबारा सोचने को तैयार हुई।
बिना पढ़े ज्ञान मिलना मुश्किल है या बिना ज्ञान पाए कोई व्यक्ति या देश किसी का भी गुरु नहीं बन सकता। ज्ञान का अकूत भंडार हमारी लाइब्रेरियों में ही है। ये सकारात्मक और प्रगतिशील चिंतन को प्रोत्साहित करती हैं, साथ ही लोकल नॉलेज को लोकल लैंग्वेज में भी संजोती है। लाइब्रेरी के होने की हजार वाजिब वजहें हैं और न होने की एक भी वजह वाजिब नहीं ठहराई जा सकती। मगर अपने यहां इनका हाल क्या है?
2011 की जनगणना बताती है कि देश भर में 75 हजार के करीब पब्लिक लाइब्रेरियां हैं। इनमें लगभग 70 हजार ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, बाकी शहरों में। इस हिसाब से शहरों में प्रत्येक 80 हजार लोगों पर एक लाइब्रेरी है। इस बात का भी ठीक-ठीक कोई आंकड़ा नहीं है कि इनमें से चल कितनी रही हैं। वहीं अमेरिका में लगभग 95 प्रतिशत आबादी की लाइब्रेरी तक पहुंच है। सार्वजनिक पुस्तकालय के संदर्भ में प्रति व्यक्ति खर्च भारत में महज 7 पैसा है, वहीं फिनलैंड में 30 यूरो और अमेरिका में 35.96 डॉलर। इसके अलावा भारत में पुस्तकालयों को लेकर क्षेत्रीय विषमता भी है। 20 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश में सौ से भी कम सार्वजनिक पुस्तकालय हैं, तो लगभग 6.7 करोड़ जनसंख्या वाले तमिलनाडु में चार हजार से भी अधिक लाइब्रेरियां हैं।
नालंदा लाइब्रेरी की विरासत वाले इस देश में आजादी के बाद से अभी तक लाइब्रेरियों को लेकर कोई गंभीर केंद्रीय नीति नहीं बनी। इसके विकास का जिम्मा राज्यों पर ही रहा। शुरू में जरूर ग्रामीण स्तर पर इनके लिए इमारतें बनाने और कुछ दूसरी चीजों पर जोर रहा, पर इसके लिए कोई मजबूत आर्थिक तंत्र नहीं बनाया गया। राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों ने 2005 के बाद इसके लिए कानून बनाया, बाकी ने कुछ नहीं किया है। नतीजतन आज लाइब्रेरियां बस नाम की ही रह गई हैं।
आमतौर पर स्थानीय निकाय लाइब्रेरी चलाने के लिए पैसों का इंतजाम करते हैं, लेकिन साउथ के कुछ राज्यों को छोड़कर बाकी राज्यों में इसके लिए भी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं बनी। पब्लिक लाइब्रेरी के फाइनेंस के लिए ‘राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन’ बतौर नोडल संस्था काम करता है, मगर राज्य सरकारें इसे निधि के लिए प्रस्ताव तक नहीं भेजतीं। स्वाभाविक सी बात है कि जब राज्यों ने लाइब्रेरियों के लिए कोई आर्थिक ढांचा ही निर्धारित नहीं किया है तो इनकी धीमी मौत तय ही है।
केंद्र सरकार चाहती तो लाइब्रेरियों को बचा सकती थी, मगर उसकी ओर से भी गिनती के ही प्रयास हुए हैं। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय देश के 6 प्रमुख पुस्तकालयों का संचालन करता है, जिनमें पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी भी शामिल है। बाकी सारी लाइब्रेरियां राज्य सरकारें ही चलाती हैं। 2014 में पुस्तकालयों की स्थिति बेहतर करने हेतु ‘राष्ट्रीय पुस्तकालय मिशन’ शुरू किया गया था, इसके भी रिजल्ट अभी तक नहीं आए हैं। यह विडंबना ही है कि सबसे जरूरी मुद्दे पर देश और समाज का ध्यान सबसे कम है।