धन को बदलो धर्म में करो लोक कल्याण

बिखरे मोती

धन को बदलो धर्म में ,
करो लोक – कल्याण।
हाथ दिया ही संग चले,
खुश होवें भगवान॥1467॥

व्याख्या :- मानव – जीवन क्षणभंगुर है,न जाने कौन सा स्वांस जाने के बाद फिर लौट कर ना आये। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने तन ,मन और धन से धर्म को कमाये अर्थात् लोक – कल्याण के कार्यों में श्रद्धा और उत्साह से भाग लेना चाहिए। इन्हें कल के लिए कभी नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि “कल कभी नहीं आता”।यदि आपके पास सामर्थ्य है ,तो मंदिर – मस्जिद, चर्च ,गुरुद्वारा इत्यादि देवालय अथवा विद्यालय, चिकित्सालय, अनाथालय, धर्मशाला, यज्ञशाला ,पाकशाला मैं यथाशक्ति दान देना चाहिए। यह दान आपका व्यर्थ नहीं जाएगा, यही तुम्हारे साथ चलेगा और कई गुना होकर परलोक में मिलेगा। इसलिए अपने धन को धर्म में बदलो ,इससे पुण्य कमाओ पाप नहीं । याद रखो स्वर्ग में प्रवेश पुण्य की मुद्रा से ही मिलता है। इसलिए पुण्यों का संग्रह करो, पापों का नहीं ।ऐसे व्यक्ति से परमात्मा भी अति प्रसन्न रहते हैं।

आर्जवता घटती गई ,
ज्यों-ज्यों बूढा होय।
कुटिलता योवन चढ़ी ,
सुकुन कहां ते होय॥1468॥

व्याख्या :- यह कहावत तो प्रायः आप सभी ने सुनी होगी “बच्चा भगवान का रूप होता है।”इस पंक्ति का आशय यह है कि बच्चे का हृदय स्फटिक की तरह निर्मल होता है,निष्कपट,सरल – सहज और सुकोमल होता है वह कुटिलता से दूर से कोसों दूर होता है ।इसलिए वह भगवान का प्रतिरूप कहलाता है।कैसी विडम्बना है जब मनुष्य बच्चा होता है,तो उसके हृदय में आर्जवता का कोष होता है किंतु ज्यों-ज्यों उसकी उम्र बढ़ती जाती है,तो कुटिलता की नागफनी के नुकीले कांटे अपने यौवन पर होते हैं।जो उसे जघन्य कुकृत्य कराते हैं।भला ऐसे व्यक्ति को मन की शांति कैसे मिल सकती है?इसलिए मनुष्य को चाहिए कि प्रभु प्रदत्त आर्जवता आमोघ उपहार हैं।इसका जीवन पर्यंत संवर्धन करें और सदैव इसे अक्षुण्ण रखें।तभी चित्त प्रसन्न रहेगा और मन की शांति की भीनी सुगंध सर्वदा ऐसे आती रहेगी जैसे मृग की नाभि से कस्तूरी की भीनी सुगंध अनवरत रूप से वायु में प्रवाहित होती रहती है,जो स्वयं को तथा दूसरों को भी सुकून देती है ।क्रमशः

 

प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य मुख्य संरक्षक उगता भारत

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