आखिरकार अमेरिका को अफगानिस्तान के सामने घुटने टेकने ही पड़ गए
विवेक काटजू
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 14 अप्रैल को अपने देश की अफगान नीति की घोषणा की। इसका मुख्य बिंदु यह है कि अमेरिका वहां से 11 सितंबर तक अपने सारे सैनिक स्वदेश बुला लेगा। इस वक्त अफगानिस्तान में अमेरिका के लगभग ढाई हजार सैनिक मौजूद हैं। इनके अलावा नाटो के तहत अन्य राष्ट्रों के कोई सात हजार सैनिक हैं। बाइडेन ने यह भी संकेत दिया कि अफगानिस्तान में नाटो के जो सैनिक तैनात हैं, वे भी अपने-अपने देशों को लौट जाएंगे। अब अमेरिकी सैनिकों की केवल एक टुकड़ी अफगानिस्तान में रहेगी, जिसका मकसद वहां अमेरिकी दूतावास की सुरक्षा होगा।
युद्ध में सामरिक हार
बाइडेन ने इस घोषणा को एक सकारात्मक रंग देने की कोशिश की, लेकिन इस सचाई से मुंह नहीं छिपाया जा सकता कि अफगानिस्तान में अमेरिका की सामरिक पराजय हुई है। लगभग बीस साल तक अमेरिकी सैनिक वहां रहे। यह अमेरिका का सबसे लंबा युद्ध था। लेकिन आखिरकार उसे सामरिक तौर पर हार माननी पड़ी, क्योंकि युद्ध के जो उद्देश्य बाइडेन ने बताए, उनके लिए तो अमेरिकी सैनिकों को 2011 के बाद अफगानिस्तान में रहना ही नहीं चाहिए था। आखिर मई 2011 में ही पाकिस्तान के एबटाबाद शहर में अमेरिकी सैनिकों ने अलकायदा के लीडर ओसामा बिन लादेन को मार दिया था। बाइडेन के मुताबिक, अफगान युद्ध का उद्देश्य अलकायदा की पराजय और यह सुनिश्चित करना था कि अफगानिस्तान की जमीन से अमेरिका पर कभी किसी आतंकवादी हमले की योजना न बन पाए। बाइडेन ने कहा कि इन उद्देश्यों की पूर्ति हो गई। अगर इन लक्ष्यों के लिए ही अमेरिका वहां रहा, तो एक बार जब लादेन खत्म हो गया और अलकायदा की मौजूदगी भी अफगानिस्तान में कमजोर हो गई, तो वहां अमेरिकी सैनिक क्यों रहे?
दरअसल इन दो के अलावा अमेरिका ने कुछ और लक्ष्य भी तय किए थे। इनमें अफगानिस्तान को लोकतांत्रिक देश बनाना और उसे स्थिरता देना शामिल था। अमेरिका यह भी चाहता था कि अफगानिस्तान में तालिबान दखल न दे पाए। अब अमेरिकी सैनिक वहां से वापस जा रहे हैं, लेकिन ये दोनों आखिरी लक्ष्य पूरे नहीं हुए हैं। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि अमेरिका की सामरिक पराजय हुई है।
अब सवाल उठता है कि अफगानिस्तान में क्या होगा? अमेरिकी प्लान के तहत तालिबान और काबुल के राजनीतिक तत्वों के बीच बातचीत होनी है, जिसके तीन लक्ष्य हैं। पहला, अफगानिस्तान की दोनों ताकतों के बीच पावर शेयरिंग एग्रीमेंट हो, जिसके तहत एक ट्रांजिशनल सरकार बने। दूसरा, सीजफायर और तीसरा, तालिबान और अफगानिस्तान के बाकी राजनीतिक तत्व अफगानिस्तान के राजनीतिक भविष्य का फैसला करें। वे यह भी तय करें कि संविधान कैसा होगा। अमेरिका चाहता है कि इसके लिए तालिबान और काबुल स्थित राजनीतिक तत्वों के बीच तुर्की में बातचीत हो।
तालिबान ने यूं तो अभी तुर्की जाने की स्वीकृति नहीं दी है। उसका कहना है कि अमेरिका को अपने सैनिकों को पहली मई तक देश से निकालना था, लेकिन क्योंकि उसने यह डेडलाइन तोड़ी है, इसलिए उसके प्रतिनिधि तुर्की नहीं जाएंगे। लेकिन ऐसा लगता है कि नेगोशिएशन के बाद, जिसमें अमेरिका कुछ न कुछ छूट जरूर देगा, तालिबान अपनी इस शर्त पर अड़े नहीं रहेंगे।
इस वक्त यह कहना मुश्किल है कि अफगानिस्तान का भविष्य अमेरिकी सैनिकों के जाने के बाद क्या करवट लेगा। खबरों के मुताबिक तालिबान चाहते हैं कि अफगानिस्तान के संविधान में उनकी मान्यताएं कायम हो जाएं और जिस इस्लामी सिद्धांत को वे मानते हैं, उसे अफगानिस्तान की जनता पर लागू कर सकें। लेकिन, अफगानिस्तान में पख्तूनों के अलावा ताजिक, उज्बेक, हजारा और अन्य जातियां भी हैं। ऐसा नहीं लगता कि तालिबान के जो रूढ़िवादी सिद्धांत हैं, उन्हें अधिकांश ताजिक उज्बेक और हजारा आसानी से मानेंगे। हालांकि चार दशकों से ज्यादा से चली आ रही उथल-पुथल से ये लोग भी अब तंग आ चुके हैं।
अब देखना यह है कि तालिबान और काबुल के राजनीतिक तत्व क्या अफगान जनता का हित देखेंगे, लचीलापन दिखाएंगे, आपसी समझौते की ओर चलेंगे या फिर अपनी-अपनी पोजिशन पर कायम रहेंगे। अगर वे लचीलापन नहीं दिखाते और तालिबान यह समझता है कि अमेरिकी सैनिकों की रवानगी के बाद वह पूरे अफगानिस्तान को फतह कर लेगा, फिर तो गृहयुद्ध तय मानिए। इस वक्त अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासकर पड़ोसी देशों को अफगानिस्तान के राजनीतिक वर्ग और तालिबान को समझाना चाहिए कि वे शांति का रास्ता अपनाएं। अभी तक इसमें सबसे बड़ा रोल पाकिस्तान का रहा है। अफसोस यह है कि उसका रोल हमेशा नेगेटिव ही रहा है। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में अपने स्वार्थों को आगे बढ़ाने की कोशिश की और कभी भी अफगानिस्तान को शांति की राह पर लेकर नहीं गया।
इस बदलते घटनाक्रम में भारत की अफगान नीति क्या होगी? अभी तक तो भारत ने आखिरी पांच सालों में राष्ट्रपति अशरफ गनी को अपना पूरा समर्थन दिया है। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें वहां हुए आखिरी राष्ट्रपति चुनाव में अफगानिस्तान के निर्वाचन आयोग की घोषणा के पहले ही मुबारकबाद दे दी थी। अब अशरफ गनी की कुर्सी डांवाडोल है। अमेरिका ने संकेत दिया है कि अगर अंतरिम सरकार बनी, तो उसका नेतृत्व कोई ऐसा व्यक्ति कर सकता है, जिस पर तालिबान और काबुल के राजनीतिक तत्वों की सहमति हो जाए।
बातचीत करे भारत
वक्त की मांग है कि भारत को अफगानिस्तान में एक बहुत ही इफेक्टिव, एक्टिव और लचीली नीति अपनानी पड़ेगी। भारत को समझना होगा कि तालिबान से दूर रहकर अफगानिस्तान में भारतीय हितों की सुरक्षा नहीं होगी। जब कई देश तालिबान से बातचीत कर रहे हैं, तो तालिबान से अलग रहकर भारत को क्या फायदा होगा? यह जरूरी है कि भारत अफगानिस्तान के हर राजनीतिक तबके से अपने कॉन्टैक्ट बनाए रखे, जिसमें तालिबान भी शामिल हैं। इसलिए तालिबान के प्रतिनिधियों को बातचीत के लिए न्यौता भेजना चाहिए। पर इसका यह अर्थ हरगिज नहीं कि भारत तालिबान की नीतियों का समर्थन करे। भारत को अपना पक्ष तालिबान के प्रतिनिधियों को साफ-साफ बताना चाहिए और यह भी कहना चाहिए कि अपने आपको पाकिस्तान से जोड़े रखने में उन्हें अंत में नुकसान ही होगा।