डॉ. मनमोहन वैद्य
समय और परिस्थिति ने भारत को विभाजित जरूर कर दिया, पर आज भी पड़ोसी देशों से उसके सांस्कृतिक संबंध हैं। इन संबंधों को बनाए रखने के लिए ही आज भी लोग अपने बच्चों और प्रतिष्ठानों के नाम अपने मूल स्थान पर रखते हैं। इस भावना को और धार देने की आवश्यकता
है।
कुछ दिन पूर्व मुंबई में ‘कराची स्वीट मार्ट’ नामक दुकान के मालिक को एक शिवसैनिक ने दुकान का नाम बदलने के लिए धमकाया। उसका कहना था कि पाकिस्तान हमेशा भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधि चलाता है इसलिए नाम बदलना चाहिए। उस दुकान के मालिक ने भी नाम बदलने की बात स्वीकार कर संघर्ष को टाला और ‘कराची’ शब्द को कागज से ढक दिया। इस घटना से शिवसेना ने आधिकारिक रूप से किनारा किया है, ऐसा भी पढ़ने में आया।
यह समाचार पढ़कर उस शिवसैनिक की क्षुद्र मनोदशा, इतिहासबोध का अभाव और सत्ता से उपजी हेकड़ी देखकर दया आई। उसे थोड़ा भी भारत के इतिहास का बोध होता तो किस परिस्थिति में कराची का अपना सारा कारोबार छोड़कर उस दुकानदार के पूर्वज आज के भारत में आने को बाध्य हुए, इसका स्मरण उसे होता। हो सकता है, इसके समान दस नौकर कराची से पलायन की मजबूरी से पहले ऐसे कारोबारी परिवार के यहां काम करते रहे हों। हिंदू समाज की और उस समय के भारत के नेतृत्व की कमजोरी या मजबूरी के कारण उन्हें अपने ही देश में निर्वासित होकर आना पड़ा। अन्य किसी भी गलत मार्ग का अवलम्ब न करते हुए अपनी मेहनत से धीरे-धीरे तिनका-तिनका जुटाकर यहां उन्होंने अपना कारोबार खड़ा किया और देश की समृद्धि में, नए रोजगार निर्माण करने में अपना योगदान दिया। सिंध या पंजाब से आए ऐसे लोगों ने कष्ट सहते हुए पूरे देश के भंडार समृद्ध किए हैं। अनेक शैक्षिक और व्यावसायिक संस्थान- प्रतिष्ठान खड़े किए हैं, जिनका लाभ समाज के सभी वर्ग ले रहे हैं। जिस स्थान से हम आए, उस स्थान का स्मरण करना या रखना, यह प्रत्येक नई पीढ़ी का दायित्व बनता है, ताकि आगे योग्य समय एवं सामर्थ्य आने पर फिर से वहां वापस जा सकें।
भारत की भू-सांस्कृतिक इकाई का इतिहास तो हजारों वर्षों पुराना, आर्थिक समृद्धि का, सांस्कृतिक संपन्नता का, मानव जीवन के लिए दीपस्तम्भ के समान दिशादर्शक का रहा है। इस वृहत-भारत का वही स्थान फिर से प्राप्त करना है तो भारत की इस भू-सांस्कृतिक इकाई का विस्मरण नहीं होने देना चाहिए। स्थानों के और व्यक्तियों के नाम के द्वारा ही सही, उसकी स्मृति को संजोये रखना आवश्यक है
भारत में युवाओं के बीच बहुत बड़ी संख्या में 14 अगस्त के दिन ‘अखंड भारत स्मृति दिवस’ मनाया जाता है, भारत विभाजन की दर्दभरी कहानी बताई जाती है, फिर से भारत को अखंड बनाने के संकल्प को दोहराया जाता है। शायद यह बात वह नहीं जानता हो। योगी अरविन्द ने भारत विभाजन के समय ही कहा था, ‘‘यह विभाजन कृत्रिम है और कृत्रिम बातें स्थायी नहीं रहती हैं। एक न एक दिन भारत फिर से अखंड होगा।’’ हम कराची से आए हैं, या हमें मजबूरी में आना पड़ा है और हम फिर वापस कराची जाएंगे, ऐसा संकल्प रखना कोई गुनाह नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को भी इस संकल्प की याद रहे इसलिए ‘कराची’ नाम रखना गलत बात नहीं है। इजराइल के लोग 1,800 वर्ष तक अपनी भूमि से दूर थे। प्रतिवर्ष नए साल के दिन फिर से येरुशलम जाने का संकल्प वे 1800 वर्ष तक दोहराते रहे और आज इजराइल एक शक्तिसंपन्न देश है।
पाकिस्तान के आतंकवादी गतिविधियों और जिहादी तत्वों का समर्थन करने वाले लोग, राष्ट्र-विरोधी इरादों को छुपी सहायता पहुंचाने वाली अनेक संस्थाएं भारत में, मुंबई में भी हैं। उनके क्रियाकलाप देखकर किसी देशभक्त का माथा जरूर ठनकना चाहिए था। मुंबई की ‘रजा अकादमी’ के लोगों का शहीद स्मारक को पैर की ठोकरों से नुकसान पहुंचाने का फोटो भी ऐसा ही था। किंतु उस पर किसी ‘शिवसैनिक’ को क्रोध आया, ऐसा सुनने में नहीं आया!
अखंड भारत की बात सुनते ही कुछ लोगों की भौहें तन जाती हैं। यह राजकीय विस्तारवाद की बात नहीं है, इसे समझना होगा। अंग्रेजों के एक-छत्री शासन में आने से पहले सम्पूर्ण भारत में किसी एक राजा का राज्य नहीं था, फिर भी भारत एक था। भारत एक भू-सांस्कृतिक इकाई है, सदियों से रही है, इसे समझना होगा। हम सबको जोड़ने वाली जीवन की अध्यात्म आधारित एकात्म और सर्वांगीण दृष्टि से भारत की एक विशिष्ट पहचान और व्यक्तित्व निर्माण हुआ है, और इसे दुनिया हजारों वर्षों से जानती आई है। भारत की इस पहचान या व्यक्तित्व को ही दुनिया ‘हिंदुत्व’ के रूप में जानती है। ‘हिंदुत्व’ का किसी राजकीय दल की घोषणा मात्र रह जाना अलग बात है। वास्तव में इस भू-सांस्कृतिक एकता की पहचान के नाते ‘हिंदुत्व’ स्मरण में रहा तो ऐसी हल्की प्रतिक्रिया नहीं आ सकती। एंगस मेडिसन के शोधपरक ग्रंथ ‘वर्ल्ड हिस्ट्री आॅफ इकॉनामिक्स’ में इस प्रख्यात ब्रिटिश अर्थशास्त्री ने दावा किया है कि ईसा की पहली शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक विश्व व्यापार में भारत का सहभाग (33 प्रतिशत) सर्वाधिक था। वह इसी भू-सांस्कृतिक इकाई भारत की बात थी। दूसरी शताब्दी में यहूदी, छठी शताब्दी में पारसी और आठवीं शताब्दी में सीरियन ईसाई भारत के अलग-अलग भूभाग में आश्रय हेतु आए। वहां के राजा अलग थे, लोग अलग-अलग भाषा बोलते थे, अलग-अलग देवताओं की उपासना करते थे, फिर भी सांप्रदायिक, भाषिक और वांशिक दृष्टि से ‘परकीय’ ऐसे प्रताड़ित और आश्रयार्थ आए इन लोगों के साथ भारत का व्यवहार एक समान स्वागत, सम्मान और स्वीकार का था। कारण, भारत भू-सांस्कृतिक दृष्टि से एक था। इसलिए भारतीयों के श्रद्धा स्थान इस सम्पूर्ण भू-सांस्कृतिक इकाई में व्याप्त हैं। हिंगलाज देवी का मंदिर, ननकाना साहिब गुरुद्वारा आज के पाकिस्तान में, ढाकेश्वरी देवी का मंदिर आज के बांग्लादेश में, पशुपतिनाथ का मंदिर, सीता माता का जन्मस्थान जनकपुरी आज के नेपाल में हैं। रामायण संबंधित कितने सारे स्थान आज के श्रीलंका में हैं। ब्रह्मदेश, श्रीलंका, तिब्बत, भूटान आदि देशों में रहने वाले बौद्ध-मतावलम्बियों के श्रद्धा स्थान भारत में हैं। भारतीय कैलाश-मानसरोवर की यात्रा वर्षों से करते आए हैं। इन सब स्थानों की तीर्थयात्रा इस भू-सांस्कृतिक इकाई में रहने वाले लोग वर्षों से श्रद्धापूर्वक करते आए हैं।
पाकिस्तान के आतंकवादी गतिविधियों और जिहादी तत्वों का समर्थन करने वाले लोग, राष्ट्र-विरोधी इरादों को छुपी सहायता पहुंचाने वाली अनेक संस्थाएं भारत में, मुंबई में भी हैं। मुंबई की ‘रजा अकादमी’ के लोगों का शहीद स्मारक को पैर की ठोकरों से नुकसान पहुंचाने का फोटो भी ऐसा ही था। किंतु उस पर किसी ‘शिवसैनिक’ को क्रोध आया, ऐसा सुनने में नहीं आया
इतना ही नहीं, इस भू-सांस्कृतिक एकता का दर्शन भारतीय परिवारों में बच्चों के नामकरण में भी होता है। कर्नाटक का एक परिवार गुजरात में रहता था। उनकी दो पुत्रियों के नाम सिंधु और सरयू थे। सरयू नदी कर्नाटक में नहीं है और सिंधु नदी तो आज के भारत में बहुत कम दूरी तक बहती है, इसका बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में है। पाकिस्तान में बहने वाली किसी नदी का नाम आप नहीं रख सकते, क्योंकि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधि चलाता है। इसलिए उनकी बेटी का नाम बदलने की धमकी देने, ऐसा ही शायद कोई सिरफिरा पहुंच जाता! कर्णावती में इसरो में कार्यरत उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के एक वैज्ञानिक की पुत्री का नाम कावेरी था। गुजरात के भावनगर के एक परिवार की बेटी का नाम झेलम है और विदर्भ के एक परिवार में एक बेटी का जन्म हुआ, उसका नाम रावी रखा गया है। ये सब बातें सहजता से और आनंद से होती आयी हैं। इसके पीछे का विचार यही भू-सांस्कृतिक एकता की भावना ही है।
आज भारत के पड़ोसी देशों का विचार करेंगे तो, भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध नकार कर कोई भी देश सुखी नहीं है। इन सब देशों का सुख, संपन्नता, सुरक्षा और शांति इनके भारत के साथ रहने में ही है, क्योंकि ये केवल भारत के पड़ोसी देश नहीं हैं, ये सभी भारत की सदियों पुरानी भू-सांस्कृतिक इकाई के अविभाज्य अंग थे। परन्तु इसे प्रत्यक्ष साकार करने में भारत की एक बड़ी भूमिका है। 2014 के बाद भारत की इस दृष्टि से पहल उल्लेखनीय और आश्वासक है। 2014 में प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में भारत के सभी पड़ोसी देशों के प्रमुखों की उपस्थिति और उसके बाद सभी के मिलकर एक आर्थिक शक्ति के नाते उभरने के लिए परस्पर सहायता हेतु भारत की पहल को दुनिया देख रही है। हम इन सबका राजकीय अस्तित्व ऐसा ही कायम रखते हुए भू-सांस्कृतिक इकाई के भाव को मजबूत करते हैं तो यह पूर्व के समान एक आर्थिक शक्ति के नाते भी खड़ी होगी। आज के पश्चिम के तथाकथित विकसित देशों की आज की आर्थिक समृद्धि अत्याचार, लूट, और गुलामों के अमानवीय व्यापार पर आधारित है, ऐसा इतिहास बताता है। परन्तु भारत की इस भू-सांस्कृतिक इकाई की आर्थिक सम्पन्नता का आधार लूट, अत्याचार, जबरदस्ती जमीन कब्जाना आदि कभी नहीं था। भारतीयों ने वहां जाकर वहां के लोगों को साथ लेकर उन्हें समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया। इसकी मधुर स्मृति आज भी वहां के लोगों के मन में है। अमेरिका में चीन के राजदूत रहे श्री हु शी ने इसीलिए कहा है, ‘‘भारत का चीन पर 2,000 वर्ष तक सांस्कृतिक साम्राज्य था, वह भी एक भी सैनिक को भेजे बिना।’’
कैरिबियन देशों में भारतीय मूल के लोग 150 वर्ष पूर्व मजदूरी करने अंग्रेजों द्वारा ले जाए गए। त्रिनिदाद, गुयाना, सूरीनाम, जमैका और बारबाडोस जैसे देशों ने भी अपनी भू-सांस्कृतिक इकाई के नाते एकत्र पहचान बना रखी है। उनका इतिहास बहुत पुराना नहीं है। पर इतिहास बोध एक है। इसलिए शासन व्यवस्था, मुद्रा, सेना आदि के अलग-अलग होते हुए भी एक भू-सांस्कृतिक इकाई के नाते कुछ बातें उनकी सांझी हैं, परस्पर पूरक हैं, आपस में आवागमन की सुलभ सुविधा भी है। भारत की भू-सांस्कृतिक इकाई का इतिहास तो हजारों वर्षों पुराना, आर्थिक समृद्धि का, सांस्कृतिक संपन्नता का, मानव जीवन के लिए दीपस्तम्भ के समान दिशादर्शक का रहा है। इस वृहत-भारत का वही स्थान फिर से प्राप्त करना है तो भारत की इस भू-सांस्कृतिक इकाई का विस्मरण नहीं होने देना चाहिए। स्थानों के और व्यक्तियों के नाम के द्वारा ही सही, उसकी स्मृति को संजोये रखना आवश्यक है। क्षुद्र मानसिकता, इतिहास बोध का अभाव और सत्ता के कारण उपजी हेकड़ी, इन सब बातों का कड़े शब्दों में निषेध और विरोध के साथ हर उपाय करते हुए इस भू-सांस्कृतिक एकता का स्मरण, गौरव और फिर से वह श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करने का संकल्प बार-बार दोहराना आवश्यक है। इजराइल ने 1800 वर्ष तक यह असंभव-सा कार्य संभव करके दिखाया है, उसे स्मरण रखें।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)