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परीक्षा की इस घड़ी में सबसे पहले कोरोना के सवाल को ही हल करना होगा

 

आनंद प्रधान

देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर हर दिन नए रेकॉर्ड बना रही है। यह लहर पहले की तुलना में ज्यादा संक्रामक और घातक मानी जा रही है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों और मुंबई, पुणे, दिल्ली, रायपुर, सूरत, अहमदाबाद और लखनऊ जैसे बड़े शहरों में स्थिति बहुत गंभीर होती जा रही है। कोरोना संक्रमण के अत्यधिक तेजी से बढ़ते मामलों के बीच टेस्टिंग और कॉन्ट्रैक्ट ट्रेसिंग की व्यवस्था से लेकर सरकारी और निजी अस्पतालों में बिस्तरों खासकर आईसीयू और वेंटिलेटर की उपलब्धता पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है।

जाहिर है कि इससे आम लोगों में घबराहट और बेचैनी बढ़ रही है। अधिकांश जगहों पर कोरोना के गंभीर मामलों में इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाले रेमडेसवीर इंजेक्शन की किल्लत और कालाबाजारी की रिपोर्टें हैं, सोशल मीडिया पर प्लाज्मा थेरपी के लिए प्लाज्मा की मार्मिक गुहारें लगाई जा रही हैं और श्मशान घाटों पर भीड़ बढ़ने और टोकन बंटने की खबरें हैं। यही नहीं, कई राज्यों और शहरों में वैक्सीन की कमी से टीकाकरण के प्रभावित होने की खबरें हैं और इसे लेकर राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी शुरू हो गए हैं।

दूसरी ओर, एक बार फिर कई कोरोना हॉटस्पॉट राज्यों जैसे महाराष्ट्र में संपूर्ण लॉकडाउन लगाने पर राज्य सरकार गंभीरता से विचार कर रही है। कई और राज्यों/शहरों ने नाइट कर्फ्यू और वीकएंड लॉकडाउन समेत लोगों की आवाजाही और इकट्ठा होने पर कई तरह के प्रतिबंधों की घोषणाएं की हैं। इसके बावजूद अनेक जगहों पर स्थिति बेकाबू होती दिख रही है क्योंकि विशेषज्ञों के मुताबिक, कोरोना की यह दूसरी लहर अभी अपने पीक से दूर है और अगले दस-पंद्रह दिन बहुत महत्वपूर्ण हैं।

इस लिहाज से केंद्र और राज्य सरकारों, नीति-नियंताओं और स्वास्थ्य प्रतिष्ठान के लिए अगले दस से पंद्रह दिन कड़ी परीक्षा की घड़ी हैं। निश्चय ही, समय कम और चुनौती बहुत बड़ी है, लेकिन याद रहे कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर से पैदा हुई मेडिकल इमरजेंसी जैसे हालात से निपटने में कोई भी कोताही, लापरवाही, घबराहट, जल्दबाजी या राजनीतिक नफा-नुकसान का ध्यान देश और सार्वजनिक स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और आम जनजीवन के लिए बहुत भारी पड़ सकता है। दुनिया के कई देशों ने कोरोना से निपटने में जो गलतियां की हैं, कोताही और लापरवाही बरती है या गलत राजनीतिक फैसले किए हैं, उन्हें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।

मुश्किल यह है कि सरकारों और नीति-नियंताओं के पास विकल्प भी बहुत ज्यादा नहीं हैं। इसकी एक बड़ी वजह तो यह है कि पिछले एक साल में इस महामारी से निपटने की जैसी व्यापक तैयारी खासकर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के युद्ध स्तर पर विस्तार और उसे चुस्त-दुरुस्त करने, टेस्टिंग और कॉन्ट्रैक्ट ट्रेसिंग की सक्षम और प्रभावी व्यवस्था बनाने की होनी चाहिए थी, वह नहीं की गई। इस नाकामी के लिए कई बहाने और कुछ जायज कारण गिनाये जा सकते हैं लेकिन सच यह है कि इस नाकामी के कारण आज देश एक बार फिर गंभीर मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में खड़ा है।

जाहिर है कि इस स्थिति से निपटने के लिए अवैज्ञानिक और हास्यास्पद टोटके और इवेंट्स के बजाय ऐसे ठोस कदम उठाने होंगे, जिनसे आम लोगों, संक्रमित मरीजों और उनके परिजनों के साथ-साथ भारी दबाव और तनाव में काम कर रहे डॉक्टरों और पैरा-मेडिकल स्टाफ की न सिर्फ घबराहट और बेचैनी कम हो, बल्कि उनका भरोसा बढ़े। किसी भी पब्लिक पॉलिसी की कामयाबी इस भरोसे पर ही निर्भर करती है। इस भरोसे के लिए जरूरी है कि राजनीति थोड़ा पीछे हटे, फैसिलिटेटर की भूमिका में आए और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विश्वसनीय विशेषज्ञों को जिम्मेदारी दी जाए।

यहां दोहराने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए संपूर्ण लॉकडाउन कोई वास्तविक विकल्प नहीं है। लॉकडाउन से आप सिर्फ समस्या को टालते या उससे निपटने के लिए कुछ समय हासिल करते हैं, वह भी अर्थव्यवस्था और आर्थिक गतिविधियों की भारी कीमत चुकाकर। पिछले साल के लॉकडाउन के अनुभव अभी तक ताजा हैं। याद रहे कि लॉकडाउन आपको महामारी से निपटने के लिए जरूरी उपाय करने का वक्त देता है जिसे इस एक साल में काफी हद तक गंवा दिया गया है। इसलिए कुछेक हॉटस्पॉट इलाकों/शहरों/जिलों को छोड़कर लॉकडाउन कोई तार्किक और प्रभावी उपाय नहीं है।

इसके बजाय बेहतर होगा कि इस सप्ताह से ही सही, पश्चिम बंगाल में बड़ी राजनीतिक रैलियों और रोड शो पर रोक लगा दी जाए। राजनीतिक पार्टियां यह पहल खुद कर सकती हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव कुछ महीनों के लिए टाल दिए जाएं। सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में बड़े धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक समारोहों और कार्यक्रमों पर इनसे जुड़े संगठन और संस्थाएं स्वैच्छिक रोक लगाने की घोषणा करें।

इसके समानांतर यह भी जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर वैकल्पिक रास्ते ढूंढें। इनमें पहला और सबसे जरूरी उपाय है- एक समावेशी और यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम को मिशन मोड में आगे बढ़ाना। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस समय कोरोना महामारी से लड़ने में टीकाकरण से ज्यादा सक्षम और दूरगामी कोई उपाय नहीं है। इसके लिए लोगों को टीके तक नहीं बल्कि टीके को लोगों तक पहुंचाने की रणनीति बनानी होगी। इसके साथ दो भारतीय वैक्सीन के अलावा अन्य वैक्सीन को भी अनुमति देने में देर नहीं करनी चाहिए। इस लिहाज से स्पूतनिक V को मंजूरी देने की ओर बढ़ना अच्छा कदम है। साथ ही, टीकाकरण को सीमित आयुवर्ग से आगे यूनिवर्सल बनाने की पहल करनी होगी।

समय कम, विकल्प बहुत कम
इसके साथ ही, देश में युद्धस्तर पर अस्थायी कोविड अस्पताल, टेस्टिंग सेंटर और क्वारंटीन सेंटर बनाने के लिए सरकारी, निजी, कॉरपोरेट, पैरा-मिलिट्री और सेना आदि सभी को मिलकर प्रयास करने चाहिए। दवाओं की कालाबारी से कड़ाई से निपटा जाना चाहिए। पुलिस और दूसरी सरकारी एजेंसियों को आम लोगों से जुर्माना, मारपीट और अपमानजनक व्यवहार करने के बजाय सहृदयता और सहायता के भाव से बर्ताव करना होगा। साथ ही, देश में कोरोना से बचाव के लिए विभिन्न भाषाओं में व्यापक जन-शिक्षण के लिए एक क्रिएटिव, आकर्षक, सूचनात्मक-तथ्यपूर्ण पब्लिक कम्युनिकेशन कैंपेन शुरू किया जाना चाहिए।

समय कम है और विकल्प बहुत कम हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री खुद कहते हैं- इस परीक्षा की घड़ी में सबसे कठिन प्रश्न को ही सबसे पहले हल करना होगा।

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