अपने जीवन के अंतिम दिनों में बाबू जगजीवन राम एक बार फिर लौटना चाहते थे कांग्रेस में
चंद्रशेखर, पूर्व प्रधानमंत्री
1980 में लोकसभा का चुनाव हुआ। बाबू जगजीवन राम पार्टी के नेता थे। जनता पार्टी के टूटने से लोगों का उससे मोहभंग हुआ और इंदिरा गांधी की वापसी निश्चित थी। बाबू जगजीवन राम को नेता बनाने के मोरारजी भाई खिलाफ थे। मैं भी उनके नाम से सहमत नहीं था। चुनाव के ठीक पहले वह स्व. दिनेश सिंह की मध्यस्थता में इंदिरा जी से बात चला रहे थे। उस समय मैंने उनका विरोध किया, लेकिन पार्टी में जो समाजवादी मित्र थे, उन्होंने जयप्रकाश जी से एक पत्र मेरे नाम लिखवाया, जिसकी अत्यंत दुखद कहानी है। मैंने जयप्रकाश जी को आश्वस्त किया कि उनके आदेश का पालन होगा। मैंने उस विवाद को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा। ब्रह्मानंद जी जयप्रकाश जी से बात करके आए थे और इस प्रसंग पर पत्र-प्रतिनिधियों से बात करने का उन्होंने निश्चय किया था, पर मैंने उस अप्रिय प्रसंग को तूल न देने का निर्णय किया। मोरारजी भाई ने मुझसे केवल इतना कहा कि मैं जगजीवन राम का नाम प्रस्तावित न करूं और मैंने उनकी बात मान ली। मोरारजी भाई की महानता उस समय सामने आई, जब रूठे जगजीवन राम को मनाने वह स्वयं उनके घर गए। उसके लिए मुझे जगजीवन राम जी के इच्छानुसार सुरेश के साथ जय गुरुदेव के सम्मेलन में मथुरा जाना पड़ा। बाबू जगजीवन राम चुनाव के दौरान बलिया आए। वहां की सभा में उन्होंने जनता पार्टी के लिए वोट मांगा। मैं वहीं से पार्टी का उम्मीदवार था। सार्वजनिक सभा में उन्होंने मेरा नाम नहीं लिया। स्वतंत्रता सेनानी विश्वनाथ चौबे मेरे चुनाव प्रतिनिधि थे। उन्होंने सभा में ही जगजीवन राम का भाषण समाप्त होने पर इस ओर उनका ध्यान दिलाया। कुछ हिचक के बाद वह फिर उठे और उन्होंने कहा, ‘चंद्रशेखर जी पार्टी के उम्मीदवार हैं। पहले वह हमारे विरुद्ध थे, अब हमारे पक्ष में हो गए हैं।’ यह बात मैंने चुनाव के बाद पार्टी संसदीय बोर्ड में जगजीवन राम जी के सामने कही तो वह बहुत झेंपे।
पार्टी में एक बार फिर विघटन हुआ। जनसंघ घटक के ज्यादातर लोग नई पार्टी में चले गए। भारतीय जनता पार्टी बनी, बहुत थोड़े-से लोग पार्टी में रह गए। उसके बाद बंबई में सम्मेलन हुआ। मैंने मोरारजी भाई से अनुरोध किया कि वह सम्मेलन में चलें पर उन्होंने मेरा अनुरोध अस्वीकार कर दिया और मुझे भी सलाह दी कि मैं उस सम्मेलन में न जाऊं। मेरे लिए ऐसा करना संभव नहीं था। मैं सम्मेलन में सम्मिलित हुआ। वहां बाबू भाई पटेल सहित गुजरात के सभी प्रमुख साथी थे। कोई पार्टी अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था। लोगों की दृष्टि में पार्टी समाप्त हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में मैं पुन: पार्टी का अध्यक्ष बना। अपनी मनःस्थिति के बारे में मैंने कभी किसी से जिक्र नहीं किया। बिखरे हुए लोगों को फिर से संगठित करने का प्रयास प्रारंभ हुआ। धीरे-धीरे लोग फिर जुटने लगे। लोगों को आभास होने लगा कि पार्टी समाप्त नहीं हुई है। 1980 के अंत में हम लोगों ने पार्टी का एक अखिल भारतीय सम्मेलन करने का निर्णय लिया। उस समय लोगों को यह एक दुस्साहसिक निर्णय लगा। सम्मेलन के लिए लखनऊ को चुना गया। आशा थी कि स्व. चंद्रभानु गुप्त की संस्था मोतीलाल नेहरू संस्थान में सम्मेलन करने की अनुमति मिल जाएगी। गुप्त जी के देहावसान के बाद कैलाश प्रकाश जी उस संस्था के अध्यक्ष बन गए थे। उन्होंने अनुमति अस्वीकार कर दी। उनकी अपनी विवशता थी। इंदिरा जी पुनः सत्ता में आ गई थीं। उनका रुख फिर ऐसा था कि लोग उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करने का साहस नहीं कर सकते थे। यद्यपि मैंने कभी यह अनुभव नहीं किया कि वह किसी भी काम में राजनीतिक विभेद के कारण कठिनाई पैदा करेंगी। हम लोगों के कई मित्रों ने कैलाश प्रकाश जी से अनुरोध किया, पर वह अपनी बात पर अड़े रहे। बरेली के राममूर्ति जी उस समय उत्तर प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष थे। वह भी उन्हें नहीं समझा सके। इस स्थिति में मैंने कैलाश प्रकाश जी से अनुरोध करना उचित नहीं समझा।
ओमप्रकाश श्रीवास्तव और कुछ अन्य लोगों से सलाह-मशवरा करने के बाद हमने निर्णय किया कि सम्मेलन सारनाथ में किया जाए। यह निर्णय इस विश्वास के साथ किया गया था कि वहां एक अच्छी धर्मशाला है, जहां सम्मेलन के लिए जरूरी इंतजाम करने में सुविधा होगी। मैंने ओमप्रकाश जी को सारनाथ जाकर स्थान देखने के लिए कहा और स्वयं पार्टी के कार्यक्रम में पटियाला चला गया। वहीं ओमप्रकाश जी ने सूचना दी कि वह धर्मशाला उपलब्ध नहीं है क्योंकि उसमें तिब्बत के शरणार्थी ठहरे हुए हैं। कोई और दूसरी ऐसी जगह नहीं है।
मैंने तुरंत निर्णय लिया कि अब फिर से स्थान बदलने की बात चली तो सारा कार्यक्रम ही एक उपहास की बात बनकर रह जाएगा। सम्मेलन अब सारनाथ में ही होगा, चाहे जो भी कठिनाई आए। उस समय यह निर्णय लेना आसान नहीं था, पर न जाने क्यों जब कोई चुनौती सामने आती है तो उससे निपटने के लिए हर स्थिति से जूझते हुए निर्णय लेना मेरे स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। ओमप्रकाश ने मुझसे कहा कि कुछ पैसे चाहिए होंगे। उस समय सहायता के लिए कोई तैयार नहीं था। मैंने हरियाणा में ही अपने मित्र और पार्टी के साथी सरदार तेजा सिंह तिवाना से कहा कि वह मुझे पच्चीस हजार रुपये उधार दे सकते हैं? तिवाना सारी परिस्थिति से परिचित थे। फिर भी उन्होंने बिना हिचक मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन बैंक खुलने के तुरंत बाद पच्चीस हजार रुपये दिए। मैंने उनको यह विश्वास दिलाया कि जिस समय वह सारनाथ सम्मेलन में आएंगे, लौटते समय ये पैसे वापस उनके हाथ में होंगे और मुझे संतोष है कि मैंने अपनी बात पूरी की। तिवाना जी की यह उदारता और मेरे प्रति उनका विश्वास मैं कभी भुला नहीं सका। ओमप्रकाश ही उस सम्मेलन की तैयारी उस निपुणता से कर सकते थे, जिसका उन्होंने परिचय अपनी कार्य कुशलता से दिया। सब मिलाकर थोड़े-से पैसे, कुल पच्चीस हजार रुपये थे, पर अपनी वाक्पटुता से वह सबका विश्वास प्राप्त करते रहे। मन में कभी-कभी संशय भी होता था कि कहीं हम अपनी योजना पूरी न कर सके तो क्या होगा। पर जब कार्य प्रारंभ हुआ तो सब कुछ सुगम होता गया।
(स्वर्गीय चंद्रशेखर की पुस्तक ‘जीवन जैसा जिया’, से साभार)