कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय ब्राह्यण में लिखा है कि ‘वाचे पुरुषमालभते’ इस पर सायणाचार्य भाष्य करते हुए लिखते हैं कि, ‘वाग्देवतायै पुरुषं पूरकं स्थूलशरीरमित्यर्थ: अर्थात् वाणी के देवता के लिए पुरुष का वध करें। उसी में फिर लिखा है कि ‘ ब्राह्मणे ब्राह्मणमालभते’ इस पर सायणाचार्य कहते हैं कि ‘ब्राह्मणजात्याभिमानी देवसत्यस्मै कञ्चित् ब्रह्मवर्चसयुक्त ब्राह्मणजातीयं पुरुषमालभते’। अर्थात् ब्राह्मण अभिमानी देवता के लिए ब्राह्मणवर्चस युक्त ब्राह्मण का वध करें।उसी ग्रंथ में फिर लिखा है कि ‘आशायै जामिम् ‘। इस पर सायणाचार्य भाष्य करते हुए लिखते हैं कि ‘आशायै अलभ्यवस्तुविषयतृष्णाभिमानिन्यै निवृत्तरजस्कां भोगायोग्यां सित्रयमालभते’ अर्थात् अलभ्य वस्तु की तृष्णा के अभिमानी देवता के लिए जिस स्त्री का रजस्ववला होना बंद हो गया हो उसका वध करें।उसी में फिर लिखा है कि ‘प्रतीक्षायै कुमारीम् ‘।
इस पर सायणाचार्य कहते हैं की ‘प्रतीक्षायै लब्बव्यस्य वस्तुनो लाभप्रतिक्षणाभिमानिन्यै कुमारीमनूढ कन्यकामालभते’ अर्थात् लब्ध प्रतीक्षा वाले देवता के लिए कुमारी जो अभी युवा नहीं हुई उसका वध करें।इसके सिवा ‘ तैत्तिरीयापस्तंब हिरण्यकेशी नामी उसी की एक पुस्तक के कांड 6 प्रश्न संख्या 1 अध्याय 8 में लिखा है कि ‘पशूनेवावरून्धे सप्त ग्राम्याःपशव: सप्तारण्या:सप्तच्छन्दास्युभयस्यावरूध्यै’ अर्थात् यज्ञ में गाय ,घोड़ा आदि सात ग्राम्य पशु, काले हिरण आदि जंगली सात पशु अथवा दोनों प्रकार के सात पशुओं की योजना करें। फिर लिखा है की आदद ऋतस्य त्वादेव हवि पाशेनाभे०’। इस पर सायणा के भाष्य में है कि ‘सावित्रेण रशनामादाय पशोर्दक्षिणाबाह्वो परिवीयोध्र्व मृत्कृष्य आदद इति। दक्षिणोsधःशिरसि पाशेन क्ष्णया प्रतिमुच्य धर्षा: मानूषानित्युत्तरतो यूपस्य नियुनक्ति दक्षिणत ऐकादशिनान् इति।अक्ष्णया परिहरति वध्यहि प्रत्यं चं प्रतिमुञ्चति व्यावृत्यै ‘ अर्थात् ‘ देवस्य त्वा०’ इस मंत्र में रस्सी लेकर ‘तत्सवितु०’ इस मंत्र में से पशु की दक्षिणा बाहू बांधकर ऊपर खींचे, पश्चात ‘आदद०’ इस मंत्र से रस्सी को सिर की तरफ ले जाकर दूसरे पैरों को बांधकर पशु को अच्छी तरह जकड़ दें ,जिससे हिले डुले नहीं। इसके बाद लिखा है कि ‘वज्रो वै स्वधितिः शांत्यै पाश्र्वत्०’ इसके भाष्य में लिखा है कि ‘वपोत्खेदनार्थ दक्षिणपाश्र्वे छिन्द्यात् शूलाग्रेण वपां छिन्द्यात्।’ अर्थात् उस पशु के चमे को त्रिशूल से निकाले और शूल की नोक से चर्बी जुदा करें।जब मांस इकट्ठा हो जाय, तब ‘सुकृतात्तच्छमितारः कृण्वन्कूत मेधश्रृतपाकं पचन्तु’ अर्थात् शमिता (मांस को साफ करने वालों) से मांस को साफ करा कर पकाया जाए और ‘एतद्यज्ञस्य यदिडा साभिप्राश्नाति अर्थात् उस मांस से होम करके शेष मांस को खाया जावे ।
इस तैत्तिरीय साहित्य में इस प्रकार से पशुहिंसा और मांसयज्ञ तथा मांसभक्षण की विधि का वर्णन है। इसी साहित्य में मद्य (शराब) बनाने और पीने की विधि का भी उल्लेख है।वहां लिखा है कि ‘अन्नस्य वा एतच्छमलं यत्सुरा। यस्य पिता पितामहादि सुरां न पिबेत् स व्रात्यः’अर्थात दो प्रकार की मदिरा को मिलाकर पिए क्योंकि जिसके पिता पितामहादि सुरा नहीं पीते,वे व्रात्य हैं – नीच है । इसके आगे मांस खाकर और मद्य पी कर फिर यजमान पत्नी के साथ क्या-क्या व्यवहार करना लिखा है,वह हम यहां नहीं लिखना चाहते।
क्रमशः