प्राचीन भारतीय वांग्मय में मांस शब्द
सनातन मांस
रामायण, वैदिक छान्दस, ब्राह्मण और उपनिषदों की भाषा पाणिनि के व्याकरण से कई स्तरों पर मुक्त है। 1500 ई.पू. में सृजन या प्राक् आर्यभाषा जैसे ऐतिहासिक हास्य प्रकरण छोड़ देने पर और ध्यान से पढ़ने पर किसी भी खुली बुद्धि वाले को यह लग जाता है वेदों की भाषा बहुत पुरानी है, इतनी कि उसके कई शब्द, धातु, प्रयोगादि वर्तमान में रूढ़ प्रयोगों से पूर्णत: भिन्न हैं – सन्दर्भ में भी और अर्थ में भी।
कल देर रात एक मित्र से वार्ता हुई और उसके पश्चात मैं काण्व शाखा के शतपथ ब्राह्मण को पढ़ता रहा। चेतना का जो स्तर वहाँ है, उसे हम क्यों नहीं देख पाते या क्यों उपेक्षित कर निरर्थक ही बहस करते रहते हैं? आँखें भर आईं। वास्तविकता यह है कि जिसे केवल ब्राह्मणों का प्रपंच मान प्रचारित किया जा रहा है, वह पूरी मानव सभ्यता की गौरवपूर्ण थाती है। स्वतंत्रता के पश्चात अब जब कि सब कुछ सब को उपलब्ध है, अध्ययन से हम आम जन क्यों कतराते हैं? पहले भी करता रहा हूँ, आज भी शेयर करता हूँ। इसमें मेरा कुछ भी नहीं, संस्कृत के विद्वानों का बताया हुआ है।
‘मांस’ नपुसंक लिंगी शब्द है। प्रथमा से पंचमी विभक्ति तक इसका अर्थ किसी भी फल या कन्द का गूदा होता है। वाल्मीकि के रामायण को पढ़िये तो विचित्र प्रयोग सामने आते हैं – गजकन्द, अश्वकन्द आदि। उनके गूदे के लिये मांस शब्द का प्रयोग किया गया है। अब यदि कोई मार्क्सवादी उनका अर्थ यह लगाता हो कि राम के समय में हाथी और घोड़े का मांस खाया जाता था तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा। वास्तविकता यह है कि भिषगाचार्य और वैद्य मृत पशुओं के शरीर का भी अध्ययन करते थे। पहचान सुनिश्चित करने के लिये कन्द विशेष के गूदे के रंग, बनावट आदि की समता के आधार पर जंतुओं के नाम पर आधारित नाम का प्रयोग करते थे। वे लोग आज के नागर जन की तरह परिवेश से कटे हुये नहीं थे। उनके लिये वन प्रांतर पड़ोस की सचाई थे और उद्योग क्षेत्र भी। सही शब्द ‘माम्स’ है जो कि मांस हो गया वैसे ही जैसे सम्स्कृत संस्कृत हो गयी। तो ये जो माम् स है वह किसी भी आहार के लिये प्रयुक्त था। आहार वह जो प्राण की निरंतरता सुनिश्चित करे। प्राणी वह जो प्राण(वायु) के रूप में श्वास ले। साँसों के नियमन के लिये प्राणायाम अर्थात प्राण का आयाम विस्तार।
लौकिक या वैदिक संस्कृत हमें मनुष्य की निरंतर ऊर्ध्व होती चेतना से परिचय कराते हैं। आहार के रूप में वनस्पतियों की श्रेष्ठता सिद्ध होने के पहले एक बहुत ही लम्बी और जटिल कालयात्रा रही है जो कि समझ की भी यात्रा रही है। शतपथ ब्राह्मण का ही एक भाग बृहदारण्यक उपनिषद है। उसमें एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्नोतरी प्रेक्षण है:
जैसे वृक्ष, वैसे मनुष्य। यह सत्य है। उसके रोम. इसकी पत्तियाँ; उसकी त्वचा इसकी छाल; उसकी त्वचा से रुधिर बहता है तो इसकी छाल से रस। इसलिये एक घायल मनुष्य से निकलता रुधिर वृक्ष की चोटिल छाल से टपकते रस के समान है। उसका मांस इसका भीतरी भाग है। उसकी पेशियाँ इसकी भीतरी मज्जा हैं। उसकी अस्थियाँ, इसकी लकड़ी हैं। उसकी अस्थिमज्जा भी इसके समान ही है।
तो हमारे पुरनिये (मूलनिवासी, आर्य, द्रविड़, बाबू साहब, दलित जी, यादो जी आदि सबके) संसार को इस दृष्टि से देखते थे। पिछड़े थे बेचारे, हम लोग बहुत विकसित हो गये हैं, हमारी चेतना का चरम बीफ पार्टी है। है कि नहीं?
भरद्वाज ने भृगु से पूछा – वृक्षों में जीवन है या नहीं? भृगु ने उत्तर दिया – जीवम् पश्यामि वृक्षाणाम्, अचैतन्यम् न विद्यते! वृक्षों में (मैं) जीव देखता हूँ, उन्हें अचैतन्य मत जानो। (महाभारत शांति पर्व)। यह आप्तवाक्य है, प्रमाण है। सनातन परम्परा के दो पुरनियों ने बताया है।
वापस आते हैं माम् स पर जिसका एक रूप मांस भी है। एक शब्द और भी है – माष। ऊड़द को माष कहा जाता था। माष और दधि का मिश्रण कहलाता था मांस अर्थात बलि अन्न। बलि का अर्थ आजकल काली माई के आगे बकरा भैंसा, गड़ासा और रक्तपात से लगाते हैं। है कि नहीं?
बलि का सम्बन्ध आहार से है लेकिन वह मामूली आहार नहीं है। यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे के अनुसार अपने प्राण पोषण के लिये दी गयी बलि समूचे परिवेश के लिये भी पोषक होनी चाहिये। बलिवैश्वादि का अर्थ यही है। बिना बलि दिये आहार नहीं लेना अर्थात बिना समर्पित किये खाना नहीं! तुमहिं निवेदित भोजन करहीं का भक्तिभाव भी वही है।
तो आप की जो रसोई है न – रसभरी रसायन वाली अर्थात जो जीवन के लिये आवश्यक रसों की शरीर में पूर्ति करती है; वह शूना है। शूना अर्थात बलिस्थान 🙂 सिलबट्टा शूना है, चूल्हा शूना है, पात्र शूना है … जहाँ ‘अग्निदेव’ को भीतर की ‘जठराग्नि’ को तृप्त करने हेतु बलि दी जाती है। समझे कि बलिवैश्वादि का वैश्वानर अर्थात दहकते अग्नि से क्या सम्बन्ध है?
हाँ तो माष और दधि = मांस अर्थात बलि ‘अन्न’, पशुमांस नहीं। यज्ञ पूर्णाहुति के समय ‘दिक् पाल’ बलि दी जाती है। कैसे? दस दिशाओं में ऊड़द, मसूर, दधि आदि के मिश्रण को पीपल के पत्ते पर रख कर दीप जला बलि दी जाती है। हमारे दिक्पाल भी मांस खाते हैं। है कि नहीं बहुबंस बाबू?
शतपथ की यजन् भाषा देखिये:
गोधूम+यव (गेहूँ और जौ) का मिश्रण = लोम
इनका गूँथा गीला आटा = त्वचा
भुना या तला आटा = मांस
हरा जौ = तोक्म
तोक्म अर्थात त्वचा से यव वैसे ही घिरा है जैसे मांस त्वचा से।
यथा तोक्म शब्देन यवा विरूदा उच्चते, तोक्यानि मांसम्!
बृहदारण्यक में ही एक कर्मकांड का वर्णन है जिसमें इच्छित संतान की प्राप्ति के लिये विभिन्न उपाय बताये गये हैं। जिसे आधार बना कर यह कहा जाता है कि उसमें बछड़े और बैल का मांस खाने को बताया गया है।
ओदन’ कहते हैं भात को (बनाने की विधियाँ और सान्यता अलग अलग हो सकती हैं)। कर्मकांड के अनुसार गोरा और एक वेदज्ञाता पुत्र चाहिये तो दम्पति क्षीरौदन का सेवन करें अर्थात दूध में बने ओदन का। कपिल पिंगल वर्ण का दो वेदों का ज्ञाता पुत्र चाहिये तो दही भात का सेवन करें। श्याम वर्ण लाल आँखों वाला तीन वेदों का ज्ञाता पुत्र चाहिये तो पानी में बने ओदन का सेवन करें। यदि पंडिता पुत्री चाहिये (हाँ, फेमिनिस्टों! पुत्री प्राप्ति के लिये भी कर्मकांड है) तो तिल के साथ बने भात का सेवन करें। एक बात ध्यान रखें कि यहाँ तक कहीं भी मांस खाने को नहीं कहा गया है।
अब आइये आगे। समिति योग्य सर्ववेदज्ञाता पुत्र चाहिये तो … तो, तो… महाविद्वान मरकस बाबा के अनुयायी अनुसार बछड़े और बैल के मांस वाला ओदन खाने को बताया गया है। कारण बताये गये हैं तीन शब्द – मांस (माँस है, मांस नहीं। तो चन्द्रबिन्दु से क्या अंतर पड़ता है, अवैज्ञानिक लिपि का दोष), औक्षेण और वार्षभेण (उक्षा का एक अर्थ बैल है और वृषभ माने भी बैल) अर्थात विद्वान जी की मानें तो चन्द्रबिन्दु से कोई अंतर नहीं पड़ता और दो बार बैल का पर्यायवाची लिखा गया जिसमें से किसी एक का अर्थ बछड़ा हो जाता है। नहीं? J भैया जी! सर्ववेद का अर्थ चार वेदों से है। चौथा है अथर्वण, वही जिसे वैद्यकी से जुड़ा बताया जाता है। वैद्यकी का एक ग्रंथ है जिसे सुश्रुत का रचा बताते हैं।
उसमें महराज लिखे हैं कि सुपुत्र की प्राप्ति के लिये पुरुष को दूध, भात, मक्खन और स्त्री को तेल एवं माष से बने भोजन का सेवन करना चाहिये। चमका कुछ? माँस (मांस नहीं) माष है। उक्षा माने बैल नहीं होता? होता है भैया लेकिन उसका एक अर्थ सोम भी होता है। वही सोम जिसे आप लोग मिथकीय विलुप्त औषधि बताते हैं। आकाश से भी वृषाकपि सोम बरसाते हैं और धरा उक्ष हो जाती है माने कि भीग जाती है! बैल जी और भीगने का सम्बन्ध दास कैपिटल में नहीं मिलेगा!
वह जो अश्वकन्द गजकन्द वाले मांस की बात की थी न मैंने? कहाँ थी? रामायण में न? रामायण किस कुल का वर्णन करता है? इक्ष्वाकु कुल का न? पूरबिया सूर्यवंशी इक्ष्वाकु कुल वेदों की किस शाखा का पोषक था? अथर्वण शाखा का न? वह रामायण में जो सारे भारत की प्रमुख औषधियों सॉरी, वनस्पतियों का वर्णन है वह अकारण ही नहीं है। समझ में आ गया न?
लेकिन वह वार्षभेण? वृषभ वाला? हाँ भई, ऋषभकन्द भी औषधीय गुण वाला था जिसका मांस सॉरी गूदा बैल के माफिक गन्धाता था, होता भी वैसे ही था, एक ठो ऋषभक भी होता है। देवी को जो मधु समर्पित करने को लिखा है न वह माधवी सुरा नहीं, मधु ही है जिसमें ईक्ष अर्थात गन्ने का रस भी मिला हो। देवी ऐसे ही नहीं हाथ में मधुतृण अर्थात गन्ना थामे होती हैं। यह ईक्षुदंड बाद में यक्षदंड हो गया। उसका फसली अर्थात ऋतु से भी सम्बन्ध है।
अब आखिर में आप के लिये एक ठो नारीमेध छोड़े जाता हूँ।
ततोवरो वध्यादक्षिण स्कन्धोपरि हस्तं नीत्वाममब्रते स्तिस्व पठित मंत्रेण तस्थाहृदयमालभते।
विवाह वेदी पर दूल्हा स्त्री के दायें कन्धे को पकड़ देह काट उसका हृदय निकाल लेता है (और अपने कुल में मंत्र पढ़ते हुये बाँट देता है)!
हो गया न नारीमेध? स्त्री की बलि?? अब आप का एक लेख तो बनता ही है, ‘हिन्दुओं’ में जारी नारी शोषण पर जो कि उस कारिका से आता है जिसमें स्त्री के प्रति इतनी हिंसा का भाव है! नहीं?? शुरू हो जाइये।
✍🏻गिरिजेश राव
कन्यादान के विषय में विवाद है कि उसका वस्तु जैसा दान किया जाता है। किन्तु विवाह पद्धति से स्पष्ट है कि उसका गोत्र पिता के गोत्र से काटते हैं, जिसको दान कहते हैं
दान का एक और अर्थ है काटना-दो अवखण्डने। इससे भोजपुरी में दांव हुआ हे। ओड़िशा में शस्त्र या छावनी स्थान का नाम दानपुर है। पटना के पश्चिम भाग में भी सेना छावनी को दानापुर कहते हैं। ओड़िया के एक रामायण वैदेही विलास में भी शूर्पणखा की नाक काटने के प्रसंग में दान शब्द का दोनों अर्थो में प्रयोग हुआ है। शूर्पणखा को राम ने कहा कि मेरा विवाह हो गया है, लक्ष्मण से पूछो। लक्ष्मण ने कहा कि राम का लिखित आदेश होने पर वे विवाह करेंगे। राम ने आदेश दिया जिसके २ अर्थ थे-
बाबू नाक श्री दान योग्य योषा कू।
विहर कानन कर अभिनन्दन कू॥
शूर्पणखा के लिए अर्थ-बाबू (लक्ष्मण), स्वर्ग (नाक) की शोभा इस स्त्री के सौंदर्य के सामने दान योग्य है। कानन में इसके साथ विहार करो तथा अभिनन्दन करो।
लक्ष्मण के लिए अर्थ-इस इस स्त्री की नाक काटने योग्य है। इसका कान हरो, अभिनन्दन मत करो।
विवाह के बाद स्त्री पति के परिवार की हो जाती है। पिता के गोत्र से उसका सम्बन्ध कट जाता है। इस अर्थ में दान किया जाता है। पति के गोत्र से सम्बन्ध जोड़ने के प्रतीक रूप में पति के साथ गांठ बान्धी जाती है।
✍🏻अरुण उपाध्याय
हिन्दी के विदेशज शब्द कहीं आपको भारत से दूर तो नहीं कर रहे?
सरलीकरण के नाम पर कई ऐसे शब्द अनायास ही हमारी हिन्दी के अभिन्न अंग बन गए जिनके अर्थ में भारतीयता के प्रति घृणा, द्वेष या तिरस्कार निहित है।
एक पोस्ट लिखी थी अनुवाद और धार्मिक अनुवाद को लेकर। वास्तव में मुद्दा उसमे दूसरा था, सभी मित्रों ने उसे अपने अपने हिसाब से लिया, और उसमें अनुचित कुछ नहीं। आज उसे थोड़ा विस्तार देते हैं और बात करते हैं कि कैसे अनुवाद आपको अपनी संस्कृति से घृणा करना सिखाता है। कैसे कुछ शब्द आपको स्वयं से दूर कर देते हैं। अनुवाद और वह भी धार्मिक-राजनीतिक अनुवाद एक ऐसा टूल है जो कुछ न करते हुए भी आपको एकदम से काट देता है, जड़ कर देता है। यही कारण है कि अनुवाद यहाँ तक कि बाजार का अनुवाद करते समय भी तमाम तरह की सतर्कता का चयन करना आवश्यक है। हिन्दी से या हिन्दी में अनुवाद इस सिद्धांत में अपवाद नहीं हो सकता।
हम लोगों ने एक शब्द बहुत आम सुना है — ‘काऊ बेल्ट’! गाय की पट्टी के निवासी हैं! यह गाय की पट्टी क्या हुआ? यह कैसा शब्द है? और जो काऊ बेल्ट के निवासी हैं वह पिछड़े कैसे हो गए? कैसे गंवार शब्द पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया? ऐसे कई प्रश्न है जो अवधारणात्मक अनुवाद में आपको मिलेंगे।
स्वयं के प्रतीकों पर लज्जित होने की यह कहानी हमारे धर्म ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद और फिर अनूदित धर्म ग्रंथों को स्रोत माने जाने के कारण आरम्भ हुई।
दो उदाहरण देती हूँ, उनसे आपको बात समझ आएगी। तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं
स्यामसुरभि पय बिसद, अति गुनद करहिं सब पान,
गिराग्राम्य सिय राम जस, गावहिं सुनहिं सुजान!
अर्थात काली गाय का दूध उज्जवल और अत्यंत गुणदायक जानकर भी सब पान करते हैं, उसी तरह गँवारी बोली में कहे गए सियाराम के यश को सज्जन लोग गान करते हैं और सुनते हैं।
मगर जब इसका अंग्रेजी अनुवाद होता है तो द रामायण ऑफ तुलसीदास में यह गंवारू अर्थात ग्राम्य भाषा को रफ भाषा कर दिया जाता है! इसके अनुवाद में लिखा गया है।
The milk cow can be black; its milk is white and very wholesome, and all men drink it and so, though my speech is rough, it tells the glory of Sita and Rama and will, therefore, be heard and repeated with pleasure be sensible people.
अंग्रेजों के लिए ग्राम का अर्थ पिछड़ा था, गाय एक पशु थी एवं हमारे यहाँ की व्यवस्था एक नई दुनिया। वनवासियों की दुनिया पर उन्होंने जो किताबें लिखी हैं, उन्हें आप पढ़िए तो आपको लगेगा कि वह कैसे हैरान और परेशान हैं, यहाँ की दुनिया देखकर छोटा नागपुर के ओरांस (the Oraons of Chhota Nagpur) में उराऊं की समृद्ध परम्परा देखकर हैरान हैं। वह यह देखकर हैरान हैं कि कैसे जंगलों में रहने वाले लोग धरती माता और सूरज का रिश्ता जोड़कर खुद को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध किए हैं। वह यौन स्वतंत्रता देखकर भी हैरान हैं।
अब जिनके लिए लोक भाषा का अर्थ ही rough भाषा है, वह किस तरह से ग्रामीण जीवन और उसके साथ ही साथ प्रकृति की निकटता को समझ पाएंगे। जिस भारत में उन्होंने कदम रखा वह भारत प्रकृति से प्रेम करने वाला भारत था, नदियों को पूजने वाला भारत था। (कृपया नदियों के सम्बन्ध में अभी की जा रही लापरवाही का उदाहरण न दें), वह जिस भारत में आए उसके सुदूर गावों में जो व्यवस्था थी वह उसके लिए पर्याप्त थीं।
मगर धीरे-धीरे जैसे जैसे हमारे इतिहास को अंग्रेजी में अनूदित किया गया और हमारे वनवासी इतिहास को अंग्रेजी में लिखा गया, तब से अंतर आना आरम्भ हुआ। जब से हिन्दी को सुगम बनाने के लिए उर्दूनिष्ठ शब्दों को जोड़ा जाने लगा तब से और भी ज्यादा समस्या का विस्तार हुआ। उर्दू का जन्म और विकास भले ही भारत में हुआ, यह भाषा भारत की तह तक नहीं पहुँच पाई क्योंकि यह मुसलमान आक्रांताओं की सुविधा के लिए उनकी अरबी, फ़ारसी और तुर्की को उत्तर भारत के ब्रज व अवधी के साथ मिलाकर सैनिकों की छावनी में प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा थी जो कई शताब्दियों तक मुग़लों के दरबार तक नहीं पहुँच पाई। और जब पहुँची, इसके आगे शहरों में ही चली, गाँवों तक कभी नहीं पहुँची जिससे कि यह हमारी सभ्यता और संस्कृति की भागीदार बन सके।
जिस भाषा को उर्दू के नाम से जाना जाता है, उसमें कई शब्द ऐसे इस्लामी मान्यताओं के आधार पर बने हैं जो अंतत: भारत के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। जैसे काफ़िर, जंग, ईमान आदि। कई बार बाज़ार के दबाव के कारण उर्दूनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करना पड़ जाता है, परन्तु honest का सच्चा अर्थ ईमानदार नहीं हो सकता। ईमान पूरी तरह मज़हबी शब्द है। जो भी व्यक्ति ईमानदार शब्द का प्रयोग honest के लिए करता है, वह इस शब्द के उद्गम के बारे में नहीं जानता।
ईमान वाला व्यक्ति अर्थात जिसने इस्लाम को मन और वचन दोनों से अंगीकार कर लिया है, उसे honest कैसे और किस सन्दर्भ में प्रयोग किया जा सकता है, यह एक प्रश्न है।
इसी प्रकार घर में कोई बच्चा बहुत चंचल हो तो हम उसे अनायास ही ‘बदमाश’ कह देते हैं। क्या आपको पता है कि ‘माश’ का अर्थ है ‘रोज़गार’ और जो समाजविरोधी तत्त्व नीति-विरुद्ध उपायों से पैसे कमाते हैं उन्हें बदमाश कहते हैं? जैसे चोर, डकैत, लुटेरे, आदि।
ऐसे ही कई और शब्द हैं और यह मूल लेखन के साथ भी हैं। उर्दू का शब्द मूलतः अरबी और फ़ारसी से सन्दर्भ लेता है जबकि हिन्दी का संस्कृतनिष्ठ शब्द संस्कृत से सन्दर्भ लेता है। जब हम अपने लेखन में या अनुवाद में बहुत आराम से सरलता से ‘काफ़िर’ शब्द का प्रयोग करने लगते हैं, या ‘प्रतिमा’ के स्थान पर ‘बुत’ का प्रयोग करने लगते हैं तो कहीं न कहीं अन्याय करते हैं। हम प्रतिमा को बुत से नहीं जोड़ सकते, उनके लिए बुत का अर्थ है शैतान की प्रतिमूर्ति, जबकि हमारे लिए प्रतिमा का अर्थ है हमने प्रतिमा में भी प्राण प्रतिष्ठा की है एवं तब पूजा की।
कहने का तात्पर्य यह है कि अपने लेखन और अनुवाद में जितना अधिक से अधिक हो सके, संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया जाए, जिससे हम अपनी संस्कृति से जुड़े रहें। शब्दों के माध्यम से तोड़ना हमारे लिए सबसे पहला चरण है।
विशेष कर पंजाब से अवध प्रांत तक हिन्दी के सरलीकरण के चक्कर में हिन्दी में तत्सम से अधिक विदेशज शब्दों का प्रयोग होने लगा, भाषा को सरल बनाने के नाम पर अंग्रेजी शब्दों को भी ठूंस दिया गया। इसके दो दुष्परिणाम देखने को मिले। एक तो बच्चे संस्कृत से दूर हुए और संस्कृत से दूर होते ही अपनी संस्कृति से दूर हो गए।
हिन्दी में सरलीकरण के नाम पर जो भी उर्दू के शब्द ठूंसे गए, उनका दुष्परिणाम आप नई पीढ़ी पर देखिये, जिसे ‘काफ़िर’ शब्द सहज लगता है, जिसे प्रतिमाओं को तोड़ना बहुत सामान्य सी बात लगती है। हिन्दी के साथ ही गयी इस घुसपैठ को हर मूल्य पर रोकना होगा। हमारे आपके जीवन में जो विधर्मी शब्द अतिक्रमण करके घुस आए हैं, उन्हें हटाना होगा। बच्चों को यह समझाना ही होगा कि इश्क, लव और प्रेम तीनों एक ही नहीं है। प्रेम व्यापक है, इश्क जिस्मानी है और लव, वह तो जैसे लस्ट का ही पर्याय आजकल बन गया है।
कहने को यह बहुत छोटा मुद्दा है, मगर शब्द ही हैं जिनके माध्यम से आपके बच्चों का भाषा से और धर्म से प्रथम परिचय होता है। उसे अंग्रेजी निष्ठ और उर्दू निष्ठ हिन्दी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का अध्ययन कराने की आवश्यकता है। अंग्रेजी आपको स्वयं से घृणा करनी सिखाएगी और उर्दू आपकी मूल अवधारणाओं पर ही प्रहार करेगी। क्योंकि हर भाषा की उत्पत्ति उसके मत और पंथानुसार ही होती है।
✍🏻सोनाली मिश्र