वेद और पाप निवारण
वेदों में पाप निवारण के विषय में ईश्वर से सबसे अधिक प्रार्थना निष्पापता अर्थात कभी पाप न करने की गई हैं। पाप निवारण की प्रार्थना का अर्थ यह नहीं हैं समझना चाहिए की किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं, अपितु इसका तात्पर्य यह हैं की मनुष्य पाप कर्म से सदा दूर ही रहे। वेद में पाप निवारण के लिए अनेक मंत्र दिए गए हैं जिनमें मनुष्य ईश्वर से ऐसी मति, ऐसी बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना करता हैं, जिससे वह केवल और केवल सत्य मार्ग पर चलता रहे और पाप कर्म से सर्वथा दूर रहे। मनुष्य इन मन्त्रों का अनुष्ठान करते हुए यह संकल्प लेता हैं की वह पाप कर्म से सदा दूर रहेगा।
आइये इन मन्त्रों को ग्रहण कर, उनका चिंतन मनन कर, उन्हें अपने जीवन में शाश्वत करे जिससे हमारा जीवन सफल हो जाये।
१.प्राणी जगत का रक्षक, प्रकृष्ट ज्ञान वाला प्रभु हमें पाप से छुडाये- अथर्वेद ४/२३/१
२. हे सर्वव्यापक प्रभु जैसे मनुष्य नौका द्वारा नदी को पार कर जाते हैं, वैसे ही आप हमें द्वेष रुपी नदी से पार कीजिये। हमारा पाप हमसे पृथक होकर दग्ध हो जाये- अथर्ववेद ४/३३/७
३.हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर हम विद्वान तेरे ही बन जाएँ। हमारा पाप तेरी कृपा से सर्वथा नष्ट कर दे – ऋग्वेद १/९७/४
४. हे मित्रावरुणो अर्थात अध्यापकों उपदेशकों आपके नेतृत्व में अर्थात आपकी कृपा से गड्डे की तरह गिराने वाले पापों से में सर्वथा दूर हो जाऊ। ऋग्वेद २/२७/५
५.हे ज्ञानस्वरूप प्रभु आप हमे अज्ञान को दूर रख पाप को दूर करों। – ऋग्वेद ४/११/६
६.इस शुद्ध बुद्धि से हम भगवान के भक्त बनें और पाप से बिलकुल परे चले जाएँ। – ऋग्वेद ७/१५/१३
७.हे प्रभु तू पाप से हमारी रक्षा कर , पाप की कामना करने वाले व्यक्ति से भी दिन रात निरंतर हमारी रक्षा कर। – ऋग्वेद ७/१५/१५
८.हे मित्रा वरुणो आपके बताये हुए सत्य मार्ग से चलकर नौका से नदी की तरह पापरूपी नदी को तैर जाएँ। – ऋग्वेद ७/६५/३
९.हे सर्वज्ञ प्रभु आप मेरी सदा रक्षा करे मुझे कभी पाप की इच्छा रखने वाले दुष्ट बुद्धि वाले मनुष्य की संगती में मत पड़ने दे। – ऋग्वेद ८/७१/७
१०.निष्पापता की उत्सुकता इस सभी मन्त्रों में प्रकट की गयी हैं, प्रभु का सर्वव्यापकता तथा सर्वज्ञान गुण पाप दूर करने में सहायक होता हैं, सर्वव्यापक प्रभु हमारे द्वारा कहीं भी किये गए पाप कर्म को जान लेते हैं और यह प्रभु की न्याय व्यस्था ही हैं की किसी भी मनुष्य द्वारा किया गया पाप कर्म उसे दण्डित करने का हेतु बनता हैं, जो जैसा करेगा वैसा भरेगा का सिद्धांत स्पष्ट रूप से ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था को सिद्ध करता हैं. मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं और उसका फल पाने के लिए परतंत्र हैं, परतंत्रता का अर्थ ईश्वर का गुलाम अथवा मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कर्मों में बध्यता नहीं हैं अपितु पुण्य कर्म का फल सुख और पाप कर्म का फल दुःख हैं, इसलिए वेद भगवान अपने सन्देश द्वारा समस्त मानव जाति को पाप कर्म से दूर रहने का सन्देश दे रहे हैं।
११.हे प्रभु! आप सर्वव्यापक और सर्वज्ञाता हैं, आपकी सर्वव्यापकता तथा सर्वज्ञता को जानकर हम कभी पाप में प्रवित न हो। – ऋग्वेद १/१७/८
१२. हे ज्ञान के स्वामिन! जिसकी तुम रक्षा करते हो उसके पास कहीं से भी पाप नहीं फाटक सकता और न दुःख आ सकता हैं। – ऋग्वेद २/२३/५
पाप निवारण के उपाय-
पाप वृति को वशीभूत करने से ,दृढ संकल्प से ,यज्ञ से , सत्य संकल्प करने से, पापों में दोष दर्शन से और पापों के त्याग की कामना पाप निवारण के उपाय हैं।
वेद भगवान बड़े ही आत्मीय शब्दों में पाप निवारण के उपाय बताते है-
१. पाप वृति को वशीभूत करना
हे पाप! मुझे छोड़ दे, हमारे वशीभूत होकर , हमको सुखी कर ,कुटिलता से अलग करके हमे कल्याण और सुख के लोक में स्थापित कर। – अथर्ववेद ६/२६/१
सत्य हैं की जब मनुष्य पाप करने वाली वृतियों को वश में कर लेता हैं तब मनुष्य सुखी हो जाता हैं। मनुष्य का चित शांत और संतुष्ट हो जाता हैं। ऋग्वेद १/१८९/१ में कुटिलता को, उलटे कर्म को पाप कहा गया हैं, इसलिए जब तक कुटिलता रहती हैं तब तक मनुष्य भद्र नहीं बन सकता हैं। मनुष्य को अंतत अपने मन को स्वाभाविक सरल अवस्था में रखना भी पापों से छुटने का उपाय हैं। इसके लिखे मन को कुटिलता से पृथक करके पापवृति को वशीभूत करना होगा।
२. दृढ संकल्प से
हे पाप! जो तू हमें नहीं छोड़ता हैं तब हम ही तुझे छोड़ देते हैं। – अथर्ववेद ६/२६/२
दृढ संकल्प के द्वारा हम अपने मन को पाप कर्म से दूर करे , अगर मन को पक्का कर सत्य मार्ग पार चलेगे तभी पाप से विमुख रहेगे।
३. यज्ञ से
मेरे जो किये हुए यज्ञ- देवपूजन, सत्संग और दान हैं, वे मुझे प्राप्त रहें , मेरे मन का संकल्प सत्य हो , मैं किसी भी पाप को न प्राप्त होऊं। इस विषय में सब देव मरी पूर्ण रक्षा करें। – अथर्ववेद ५/३/४
वेद के इस मंत्र में स्पष्ट हैं की मनुष्य अपने सत्कर्मों में सदा लगा रहे और सत्य का संकल्प कर पाप कर्मों से दूर रहे। इसका अर्थ स्पष्ट हैं की मनुष्य अपने मन को श्रेष्ठ कर्मों इतना लीन कर ले की उसके पास पाप कर्म करने का समय ही न हो। हैं
स्वामी दयानंद के जीवन में भी इस प्रकार का एक उदहारण हमें मिलता हैं किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा की महाराज क्या आपको वासना नहीं सताती हैं। स्वामी दयानंद ने उत्तर दिया की समय ही नहीं मिलता, स्वामी जी का सम्पूर्ण जीवन यज्ञमय और श्रेष्ठ कर्मों को पूर्ण करने में व्यस्त था, इसलिए वे पाप कर्म से बचते गए और अंत में सर्वश्रेष्ठ सुख मोक्ष के भागी बने। इस मंत्र को स्वामी दयानंद ने साक्षात् रूप से अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था।
४. पापों में दोष दर्शन से और पापों की कामना का त्याग
हे मानसिक पाप ! दूर हट जा,तू क्यूँ अप्रस्त कामों की प्रशंसा करता हैं। दूर चला जा, मैं तुझे नहीं चाहता। – अथर्ववेद ६/४५/१
पाप तीन प्रकार के होते हैं- मानसिक, शारीरिक और वाचिक। शारीरिक और वाचिक पापों की उत्पत्ति मानसिक पापों के द्वारा ही होती हैं। यदि मन में कोई पाप नहीं हैं तो वाणी और शरीर द्वारा भी कोई पाप नहीं होगा। दूर चला जा, मैं तुझे नहीं चाहता। इस प्रकार के वाक्यों से व्यक्त रूप में या मानसिक रूप में पाप के विरुद्ध दृढ भावना पैदा होती हैं इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति पापों के विरुद्ध लगातार वाचिक और मानसिक अभ्यास करेगा तो वह अवश्य ही उन पर विजय पा लेगा। इस प्रकार अभ्यासी के मन में पापों के लिए घृणा पैदा होती हैं अत: प्रत्येक मनुष्य को इस प्रकार का अभ्यास कर पापों की कामना का त्याग करना चाहिए।
पाप निवारण का फल-
वेद भगवान अथर्ववेद १६/६/१ में कहते हैं- हम आज ही पापरहित हो गए हैं. हम आज ही विजय कर लेंगे और सुख, शांति और आनंद का भोग करेंगे।
आइये अंग्रेजी भाषा में एक मुहावरा हैं की Prevention is always better than cure अर्थात बचाव ईलाज से हमेशा उत्तम हैं। दुःख, अशान्ति आदि से बचने के लिए एक मात्र उपाय ईश्वर प्रदित मार्ग पर चलते हुए पाप कर्मों से दूर रहना हैं। वेद भगवान का सन्देश अपने जीवन में आत्मसात कर ही ऐसा संभव है।
डॉ विवेक आर्य