पश्चिम की जूठन खाने वाले ये तथाकथित विद्वान अधिकारी
10 जनवरी को प्रत्येक वर्ष अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस मनाया जाता है । 2 वर्ष पहले मैं उस दिन डायमंड पॉकेट बुक्स के चीफ श्री नरेंद्र वर्मा जी के आमंत्रण पर प्रगति मैदान में लगे विश्व पुस्तक मेले में एक वक्ता के रूप में पहुंचा । जिसमें कुछ पुस्तकों का विमोचन किया जाना था । उस कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध पत्रकार डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक सहित भारत सरकार के राजभाषा विभाग से भी दो अधिकारी उपस्थित थे। राजभाषा विभाग से उपस्थित हुए उन अधिकारियों के बारे में संचालक महोदय ने बताया कि वह कई देशों की यात्रा भी कर चुके हैं । भारतवर्ष में यह बड़ी अजीब बात है कि लोगों के विदेश भ्रमण के आधार पर भी उन्हें ज्ञानी मान लिया जाता है और वह स्वयं भी जब बोलने को खड़े होते हैं तो विदेश यात्राओं का अभिमान उनकी वाणी से भी झलकता है।
राजभाषा विभाग से आए इन अधिकारियों ने अपने संबोधन में कहा कि बोली से भाषा का विकास होता है। उन्होंने खड़ी बोली को हिंदी भाषा के विकास का आधार बताया। इस बात को सुनकर मेरा माथा ठनक गया। मैं बैठा- बैठा सोच रहा था कि इन लोगों के मन मस्तिष्क में पश्चिम के मूर्ख विद्वानों की धारणाएं इतनी अधिक घर कर चुकी हैं कि ये भारत में भी उन्हीं को लागू करना चाहते हैं। लगता है ये लोग विदेशी दौरों पर जाकर भारत के लिए यही सीख कर आते हैं कि भारत का पश्चिमीकरण कैसे किया जाए या भारत पर पश्चिम के तथाकथित विद्वानों की मान्यताओं और धारणाओं को कैसे थोपा जाए ? वास्तव में ये लोग पश्चिमी जगत के तथाकथित विद्वानों के उच्छिष्टभोजी विद्वान हैं, जो दूसरों की जूठन को ही सब कुछ मान लेते हैं।
जहां तक पश्चिम की बात है तो वहां पर कोई भी भाषा ऐसी नहीं है जो अपने आपको भाषा कहला सके, क्योंकि वह सारी की सारी बोलियां हैं। यहां तक की अंग्रेजी भी अपने आप में एक भाषा नहीं है बल्कि एक बोली है। जिसमें भाषा की पवित्रता, वैज्ञानिकता और उत्कृष्टता का लेशमात्र भाव भी नहीं मिलता। भाषा तो संसार के लिए ईश्वर ने केवल वेद वाणी संस्कृत ही दी है। इसे हम इसलिए भी कहते और मानते हैं कि जब संसार का बनाने वाला एक है, उसकी व्यवस्था अर्थात वेद एक है तो उसकी भाषा भी एक ही होनी चाहिए ।संस्कृत को पश्चिम के विद्वान सबसे पुरानी भाषा तो मानते हैं परंतु साथ ही साथ अपनी बोलियों को भी भाषा के रूप में स्थान दिलाने का हर संभव प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं। इसलिए उन्होंने भाषाओं के अलग-अलग परिवार तक बनाने का अतार्किक प्रयास किया है। लोगों को इन तथाकथित भाषा परिवारों के नाम पर भ्रमित किया है। जब इन्हीं पश्चिमी विद्वानों की मान्यताओं को राजभाषा विभाग के उक्त अधिकारियों ने मंच से बोलना आरंभ किया तो लगा कि उन लोगों के पास अपना चिंतन नहीं है, पर यह बड़े पदों पर बैठकर भारत और भारतीयता का बहुत बड़ा अहित कर रहे हैं। सरकारों में बैठे लोग भी अभी तक कम्युनिस्ट और कांग्रेसी विचारधारा के होने के कारण इनकी उल्टी-सीधी मान्यताओं और धारणाओं पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा देते हैं । जिससे बातों का और भी अधिक गुड़ गोबर हो जाता है।
जब मुझे बोलने का अवसर दिया गया तो मैंने उनकी इस बात को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भाषा से बोली बनती है, बोली से भाषा नहीं ,आर्य भाषाशास्त्रियों का सिद्धांत यही है। फिर मैंने उन्हें बताया कि उदाहरण के रूप में आप ‘जुगाड़’ शब्द को ले सकते हैं ,जो सभी भाषाओं की जननी संस्कृत के ‘युक्ति’ शब्द से बिगड़कर युक्ति से जुगती, जुगती से जुगत और जुगत से जुगाड़ तक पहुंच गया है । ‘जुगाड़’ शब्द किसी भाषा का शब्द नहीं है, यद्यपि यह एक बोली का शब्द हो सकता है। इस प्रकार बोली भाषा का विकृत स्वरूप है। यह कभी नहीं हो सकता कि जुगाड़ से युक्ति शब्द बन जाए अर्थात बोली के शब्द से हम भाषा के पवित्र और वैज्ञानिक शब्द की ओर कभी नहीं बढ़ सकते।
बोली को भाषा का आधार बनाना उल्टी गंगा पहाड़ चढ़ाना है। इसी प्रकार कई शब्दों पर प्रकाश डालते हुए मैंने अपने संबोधन में यह भी कहा कि संस्कृत का शब्द है यव, जो ‘यव’ से बिगड़कर ‘जव’ हो गया ‘जव’ से ‘जौ’ हो गया। जव को अंग्रेजों ने ‘जावा’ बोला। यह वैसे ही है जैसे वह राम को रामा कृष्ण को कृष्णा और योग को योगा बोलते हैं। इसलिए उन्होंने हमारे ऋषियों के द्वारा यव द्वीप को जव द्वीप न कहकर जावा द्वीप कहा। यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे ऋषियों ने यव द्वीप की जौ जैसी आकृति होने के कारण उसे यवद्वीप के नाम से पुकारा था।
अब यदि ‘जावा’ शब्द पर विचार करें तो ‘जावा’ किसी भी भाषा का शब्द नहीं है । यह पूर्णतया अवैज्ञानिक शब्द है। जिसे आप किसी बोली विशेष का शब्द तो कह सकते हैं, पर संस्कृत या हिंदी भाषा का शब्द नहीं कह सकते। पश्चिमी जगत के तथाकथित भाषा शास्त्रियों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि जावा किस भाषा का शब्द है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भाषा की जूठन, टूटन, फूटन और रूठन से बोली बन जाती है । बोली से कभी भी भाषा नहीं बन सकती । भारतीय ऋषियों का यह चिंतन ही भाषा के संबंध में माननीय और मननीय होना चाहिए।
जहां तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खड़ी बोली से हिंदी के विकास की बात है तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खड़ी गोली में अनेकों शब्द संस्कृत भाषा के हैं जो टूट फू कर आज उल्टे सीधे अर्थों में प्रयोग किए जाते हैं। उन शब्दों को पकड़कर उनके वास्तविक शब्द पर जाने की आवश्यकता है ना कि इस मूर्खता पूर्ण धारणा में जीने की आवश्यकता है कि खड़ी बोली के इन्हीं टूटे-फूटे शब्दों से संस्कृत से निकली हिंदी जैसी परिष्कृत और वैज्ञानिक भाषा का विकास हुआ?
मेरे इस विचार से डॉ वेद प्रताप वैदिक जी तो सहमत थे, परंतु उक्त अधिकारी महोदय इतने तनाव में आए कि वह अपनी नाराजगी को चेहरे पर लेकर मुझसे मुंह चढ़ा कर बैठ गए। कारण साफ था कि उनकी अपनी मान्यता को मेरे बोलने से ठेस लगी थी। इन लोगों के भीतर इतना अहंकार पैदा हो जाता है कि यह बड़े पदों पर बैठकर यह मान लेते हैं कि जो तुम कह रहे हो वही ठीक है और उसी को नीचे वाले यथावत मान लें। इसका एक कारण यह भी है कि देश की व्यवस्था को चलाने वाले नेताओं में से अधिकांश अभी तक ऐसे रहे हैं जो इन तथाकथित ‘पदेन विद्वानों’ की मूर्खतापूर्ण धारणाओं को ही ‘ब्रह्मवाक्य’ मानते रहे हैं। इससे इन लोगों के भीतर यह भ्रम पैदा हो जाता है कि जब हमारी बात को अमुक मंत्री या अमुक सचिव /अधिकारी आदि ने मान लिया तो फिर जनसाधारण को तो मान ही लेना चाहिए। गुलामी की यह भी एक पहचान होती है कि उसमें ऊपर वाला नीचे की बोलती बंद करके रखता है , अपने आदेश को अंतिम घोषित करके चलता है और नीचे वाला दुम हिलाते हुए तलवे चाटते चाटते उसकी बात पर ‘यस सर’ -‘यस सर’ करता जाता है । आप सरकारी अधिकारियों के पास यदि बैठे हैं और यदि उनके पास उनके बड़े अधिकारी का फोन आ जाए तो वह ‘यस’ ‘यस’ या ‘जी सर’ सर.. सर .. करते रहते हैं । अपना विचार नहीं दे सकते? अपना चिंतन नहीं दे सकते? अपनी बात नहीं रख सकते ? इसे आप क्या कहेंगे ? – निरी गुलामी। ऐसी सोच में जीने वाला बड़ा अधिकारी अपनी धारणाओं व मान्यताओं को सब पर लागू करते रहने का एक सुनहरा सपना देखता रहता है। भारत से अंग्रेज चले गए हैं पर अंग्रेजियत नहीं गई है ।उसी अंग्रेजियत की गुलामी भरी मानसिकता की प्रतीक है – यह व्यवस्था। इसी सोच के वशीभूत उपरोक्त अधिकारियों ने मेरे प्रति ऐसा व्यवहार किया जैसे मैंने उनकी बात को काटकर बहुत बड़ा अपराध कर दिया है।
स्वामी योगानंद तीर्थ अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘स्वाध्याय सन्दोह’ में एक वेद मंत्र की व्याख्या करते हुए ‘विदथे’ शब्द पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि यह उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता है जो शास्त्रसंग्राम में धर्षक वाणी वाला अर्थात दूसरे की बोलती बंद कर देता है। अब इस धर्षक शब्द पर विचार करते हैं।
इस धर्षक से ही शब्द ‘धसक’ बन गया है। जो इसी भाव में प्रकट होता है कि दूसरा व्यक्ति किसी के बोलने पर मौन हो जाता है। इसी से धौंस बन गया है। इसी धर्षण शब्द से दहाड़ (शेर की आवाज ) दहाड़ी या धाड़ी, दड़ूक (बेजार की आवाज) धड़ल्लेबाज ( लंबा झूठ बोलकर किसी को निरुत्तर कर देने वाला) जैसे शब्द बने हैं। यदि इन सब शब्दों पर विचार करें तो पता चलता है कि मूल शब्द की विकृति से यह सारे शब्द बन गए हैं, जो उसी भाव में थोड़े थोड़े अर्थ परिवर्तन के साथ प्रयोग किए जाते हैं। वास्तव में शब्दों में विकृति उच्चारण दोष के कारण होती है जो अनपढ़ अशिक्षित लोगों के द्वारा अक्सर हो जाया करती है। अंग्रेजी के लॉर्ड साहब शब्द को लीजिए जो हमारे अनपढ़ अशिक्षित ग्रामीण देहातियों के द्वारा आज की ‘लाट साब’ के नाम से बोला जाता है । इसी प्रकार गवर्नर शब्द को लोग ‘गवन्नर’ कहते मिलते हैं । ऐसे अनेकों शब्द हैं। जिनसे पता चलता है कि हम भाषा के शब्दों को पकड़ने की ओर न बढ़कर बोली के शब्दों पर अनावश्यक कुश्ती करते रहते हैं और उन्हें किसी न किसी प्रकार वैज्ञानिक और तार्किक ठहराने का प्रयास करते रहते हैं, जो कि पूर्णतया गलत है।
हमारा मानना है कि भारतवर्ष में यदि लोग बोलियों को भाषा मानना छोड़ दें और बोलियों के शब्दों को भाषा के किसी मूल शब्द से ले जाकर जोड़ने की ओर मन मस्तिष्क का प्रयोग करने लगें तो हमारी भाषा संबंधी अनेकों समस्याओं का समाधान हो सकता है। इससे भाषाई विवाद या भाषाओं को लेकर होने वाले झगड़े भी समाप्त हो सकते हैं। इस सब के लिए हमें तथाकथित पदेन विद्वानों के भ्रम जाल से अपने आप को बाहर निकलना होगा हम समझने की पदों पर बैठे तथाकथित विद्वान भारत और भारतीयता के संदर्भ में नत्थू कुछ जानते हैं और ना कुछ करने को तैयार हैं इसके तरीके जहां तक नेताओं की बात है तो यह इनकी स्थिति और भी अधिक दयनीय है। इनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिनके पास कोई बौद्धिक चिंतन नहीं है और जिनका जमीन से जुड़ाव भी नहीं है। इसलिए समझ लीजिए कि जो कुछ करना है, हम आप सबको मिलकर ही करना है।
आपको एक और बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि ये भारत के नौकरशाह पहले दिन से ही अंग्रेजों वाली पोशाक पहनकर भारतीय प्रशासन को चलाते आ रहे हैं । दुर्भाग्य से शासन में आने वाले लोग भी वही रहे हैं जो इनकी मानकर चलें हैं। इन्होंने कभी भारतीय पोशाक को प्राथमिकता नहीं दी। जब इन्हें भारतीय पोशाक अच्छी नहीं लगती तो भारतीय विचार इन्हें कहां अच्छे लगते होंगे ? दूसरी बात, अब इन्हीं के बीच में से निकल कर जब कुछ केजरीवाल जैसे लोग देश की राजनीति में आ रहे हैं तो वे भी इन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए भारतीय पोशाक को राजनीति से भी विदा कर रहे हैं। नेताओं की पोशाक भारतीय और अधिकारियों की पोशाक विदेशी , इस खिचड़ी को हमने पहले दिन से समझा नहीं । अब समझ लीजिए । अभी भी समय है।
नेता नाटक के लिए जनता के बीच खड़े होकर भारत की पोशाक पहनते रहे और उनके अपने कार्यालय विदेशी पोशाक पहने अधिकारियों के माध्यम से चलते रहे। तनिक सोचिए, इस खिचड़ी के बीच भारत का विकास कैसे संभव है? कैसे भारत की भाषाओं का उत्थान हो सकता है , कैसे भारतीय विचारों को विश्व मंचों पर परोसा जा सकता है?
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत