महर्षि दयानंद , सत्यार्थ प्रकाश और आर्य समाज हमें क्यों प्रिय हैं ?
ओ३म्
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सृष्टि के आरम्भ से लेकर अद्यावधि संसार में अनेक महापुरूष हुए हैं। उनमें से अनेकों ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं या फिर उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं का संग्रह कर उसे ग्रन्थ के रूप में संकलित किया है। हम अपने जीवन में उत्तम महान पुरूष को प्राप्त करने के लिए निकले तो हमें आदर्श महापुरूष के रूप में महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रतीत हुए। हमने उन्हें अपने जीवन में सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष के रूप में स्वीकार किया है। ऐसा नहीं कि उनसे पूर्व उनके समान व उनसे उत्कृष्ट पुरूष या महापुरूष, महर्षि, ऋषि तथा योगी आदि उत्पन्न ही नहीं हुए। हमारा कहना मात्र यह है कि हमारे सम्मुख जिन महापुरूषों के विस्तृत जीवन चरित्र उपलब्ध हैं, उनमें से हमने महर्षि दयानन्द को अपने जीवन का सच्चा, यथार्थ व आदर्श पथ प्रदर्शक पाया है। न केवल हमारे अपितु वह विश्व के सभी मनुष्यों के सच्चे हितैषी, विश्वगुरू व पथप्रदर्शक रहे हैं व अपने ग्रन्थों व कार्येां के कारण अब भी हैं। विश्व के लोगों ने अपनी अज्ञानता व कुछ निजी कारणों से उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया। महर्षि दयानन्द के अतिरिक्त हम अन्य महापुरूषों यथा श्री रामचन्द्र जी, योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र जी, आचार्य चाणक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी और सभी आर्य विद्वानों व प्रचारकों को भी अपना आदर्श मानते हैं।
संसार में सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। गणनातीत ग्रन्थों में एक ग्रन्थ वेद भी है जिसके बारे में हमें महर्षि दयानन्द जी से पता चला कि वह मनुष्यों व ऋषियों की रचना नहीं अपितु ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में चार सर्वाधिक पवित्र ऋषि आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को संसार के तत्कालीन व भावी मनुष्यों के कल्याण व उद्धार के लिए ईश्वर ने अपने अन्तर्यामीस्वरूप से दिया था। उस ज्ञान को ही स्मरण कर व अन्यों में प्रचार कर इन चार ऋषियों व इनसे पढ़कर ब्रह्माजी ने प्रथम वेदों का प्रचार व प्रसार किया था और तब जो परम्परा आरम्भ हुई थी, उसका ही निर्वहन महर्षि दयानन्द जी ने ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में किया। महर्षि दयानन्द के आविर्भाव से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का प्रसिद्ध महायुद्ध हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप विश्व की अपने समय की एकमात्र सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति की कालान्तर में अप्रत्याशित अवनति हुई थी। वेद विलुप्ति के कागार पर थे। वेदों के सत्य अर्थ तो प्रायः विलुप्त ही हो चुके थे तथा उनके स्थान पर कपोल कल्पित भ्रान्त अर्थ प्रचलित थे। वैदिक धर्म व संस्कृति में भी अनेक विकार आकर यह अन्धविश्वासों, कुरीतियों, पाखण्डों व सामाजिक असमानताओं सहित शिक्षा व ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत अधिक अवनत अवस्था में आ गई थी। यही कारण था देश व देश से बाहर अनेक अवैदिक मतों का प्रादुर्भाव हो चुका था। सभी मत सत्य व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों से युक्त थे। इन मतों के कारण लोग परस्पर मित्र भाव न रखकर एक दूसरे के प्रति शत्रु भाव ही प्रायः रखते थे। दिन प्रतिदिन इसमें वृद्धि हो रही थी। ऐसा कोई महापुरूष उत्पन्न नहीं हुआ था जो इनमें एकता के सूत्र की तलाश करता और उसका प्रस्ताव कर सभी मतों को अपने अपने मिथ्या विश्वासों और मान्यताओं को छोड़कर सत्य का ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का आह्वान करता। यह काम महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने समय में अपनी पूरी शक्ति व प्राणों की बाजी लगाकर किया जिसका परिणाम महाभारत के समय के बाद आज का अधिक उन्नत विश्व कहा जा सकता है जिसमें अनेकानेक अन्धविश्वास कम व दूर हुए हैं, सामाजिक कुरीतियां व विषमतायें कम व दूर हुई हैं और भौतिक ज्ञान-विज्ञान देश-विदेश में नित्य नई ऊंचाईयों को छू रहा है।
महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व संकल्प, इच्छा शक्ति, वेद ज्ञान, साहस, वीरता, देश प्रेम, प्राणीमात्र के हित को सम्मुख रख कर विश्व कल्याण के लिए वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया। उन्होंने बताया कि वेद ईश्वर प्रदत्त सत्य व प्रमाणिक ज्ञान है। उनकी मान्यता थी कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है तथा वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ, बुद्धिमान, ईश्वर को मानने वाले सच्चे व निष्पक्ष लोगों का परम कर्तव्य व धर्म है। वेदों की सत्यता और प्रमाणिकता के साथ ही वेदों की प्रासंगिकता और सर्वांगपूर्ण धर्म की पुस्तक होने का प्रबल समर्थन उन्होंने युक्ति व तर्कों सहित अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया है। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि उनके अनेक ग्रन्थ हैं जो सत्यार्थप्रकाश की मान्यताओं व सिद्धान्तों के पूरक व इसके अनुकूल हैं। ऋषि दयानन्द के साहित्य से सिद्ध होता है कि वेद पूर्णरूपेण सर्वांगपूर्ण धर्म ग्रन्थ हैं। धर्म की जिज्ञासा के लिए अन्य किसी ग्रन्थ की मनुष्यों को अपेक्षा नहीं है क्योंकि वेद ईश्वरीय सत्य वाणी होने से स्वतः प्रमाण और संसार के अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं अर्थात् सत्य व प्रमाणिकता में वेदों के समान संसार का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। भाषा आदि के ज्ञान की दृष्टि से लोग वेदार्थ जानने के लिए वेदों के संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य-अन्य भाषाओं में भाष्य व टीकाओं की सहायता ले सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश को भी हम संसार के सभी मनुष्यों का एक आदर्श धर्म ग्रन्थ कह सकते हैं जिसमें वेदों की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए मनुष्यों के मुख्य-मुख्य कर्तव्यों पर प्रकाश डालने के साथ अकर्तव्य, अन्धविश्वासों व मिथ्या मान्यताओं का परिचय देकर उनका त्याग करने की प्रेरणा दी गई है। सत्यार्थप्रकाश में ऐसा क्या है जो हमें सर्वाधिक प्रिय है? इस सम्बन्ध में हमारे विचार प्रस्तुत हैं।
सत्यार्थप्रकाश का आरम्भ महर्षि दयानन्द ने विस्तृत भूमिका लिख कर दिया है। इससे महर्षि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश की रचना करने का उद्देश्य तथा पुस्तक में सम्मिलित किये गये विषयों का ज्ञान होता है। वह लिखते हैं कि उनका इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान, आप्तों (धर्म विशेषज्ञों) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरुप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। महर्षि दयानन्द ने भूमिका में इन वाक्यों में जो कुछ कहा है, उसका उन्होंने सत्यार्थप्रकाश एवं अन्य ग्रन्थों में पूरी निष्ठा से पालन किया है। हम समझते हैं कि इस प्रयोजन व उद्देश्य से शायद ही विश्व में कोई धर्मग्रन्थ लिखा गया हो और यदि लिखा भी गया है तो सम्प्रति उनमें अनेक अशुद्धियां व असत्य मान्यतायें, अन्य मतों के प्रति विरोध व शत्रुता का भाव, छल, कपट, लोभ व बल पूर्वक उनका धर्मान्तरण करने का विचार व अनुमति जैसे अमानवीय विचार विद्यमान है जिससे संसार में अशान्ति उत्पन्न हुई है।
सत्यार्थ प्रकाश के पहले समुल्लास व अध्याय में हम ईश्वर के मुख्य निज नाम सहित उसके सत्यस्वरूप व 100 से कुछ अधिक नामों व उन नामों के तात्पर्य के बारे में सविस्तार जानकारी प्राप्त करते हैं। इससे वेदों में अनेक ईश्वर व देवता होने की बात निरर्थक व असत्य सिद्ध होती है तथा यह विदित होता है कि एक ही ईश्वर के असंख्य गुण-कर्म-स्वभाव व सम्बन्धों के कारण उसके अनेक नाम हैं। इस अध्याय को समझ लेने पर जहां ईश्वर का सत्यस्वरूप जानकर आत्मा की तृप्ति होती है वहीं ईश्वर के स्वरुप, नाम व कार्यों के विषय में भिन्न भिन्न ग्रन्थों में जो मिथ्या व अन्धविश्वासयुक्त कथन है, उसका भी निराकरण हो जाता है। दूसरे अध्याय में माता-पिता व आचार्यों द्वारा कैसी शिक्षा दी जाये इसका ज्ञान कराया गया है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण व मनुष्य व समाज के धारण व व्यवहार करने योग्य है। तीसरा समुल्लास पढ़कर ब्रह्मचर्य का महत्व व उससे लाभ, पठन पाठन वा अध्ययन-अध्यापन सहित सत्य व असत्य ग्रन्थों का भी परिचय मिलता है और पढ़ने वा पढ़ाने की रीति का भी ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश के चैथे समुल्लास में युवावस्था में विवाह और गृहस्थ आश्रम के सद् सद् व्यवहारों की शिक्षा दी गई है। पांचवा अध्याय गृहस्थाश्रम का निर्वाह कर इसके कर्तव्यों व दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम में प्रवेश व उसके महत्व व विधान को विस्तार से समझाया गया है। इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ का छठा अध्याय प्रजा व राजधर्म विषय पर है जिसमें वेद व मुख्यतः मनुस्मृति के आधार पर शासन व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है जिसे पढ़कर अनेक बातों में इसके विधान वर्तमान की व्यवस्था से भी श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं। सातवां समुल्लास ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद और ईश्वर के सत्यस्वरूप के बारे में वेद, युक्ति, तर्क तथा ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाल कर श्रोता की इस विषय में पूर्ण सन्तुष्टि कराता है जिससे संसार के अन्य एतदसम्बन्धी ग्रन्थ निरर्थक से प्रतीत होते हैं। आठवां समुल्लास वैदिक सृष्टि विज्ञान से सम्बन्धित है जिसमें जगत की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर ज्ञान व विज्ञान से परिपूर्ण प्रकाश डाला गया है। यह ज्ञान संसार के अन्य सभी धर्म ग्रन्थों में प्रायः नदारद है जिससे उनकी न्यूनता व अपूर्णता प्रकट होती है।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्धन तथा मोक्ष, जन्म, मृत्यु, लोक व परलोक की सत्य व ज्ञान से पूर्ण व्याख्या प्रश्नोत्तर शैली में कर वैदिक ज्ञान का संसार से लोहा मनवाया गया है। दसवें समुल्लास में आचार, अनाचार, भक्ष्य और अभक्ष्य आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ग्याहरवां समुल्लास भारतवर्षीय नाना मत-मतान्तरों की अज्ञानपूर्ण मान्यताओं का परिचय कराता है और साथ हि उनका युक्ति व प्रमाणों से खण्डन किया गया है जिसका उद्देश्य सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कराना मात्र है। बारहवें, तेरहवें व चैदहवें समुल्लासों में क्रमशः चारवाक-बौद्ध-जैन, ईसाई व मुस्लिम मत का विषय प्रस्तुत कर सत्य के ग्रहणार्थ उनकी कुछ मान्यताओं का परिचय दिया गया है। इस प्रकार सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने पर मनुष्य को अपने कर्तव्य व धर्म का पूर्ण बोध होने के साथ अन्य मतों का परिचय भी मिलता है। सत्यार्थप्रकाश के अनुरूप अन्य कोई ग्रन्थ संसार में नहीं है। इससे सत्य धर्म का निर्णय करने व उसका पालन करने का ज्ञान होता है जिससे मानव जीवन सफल होता है। सत्यार्थ प्रकाश वेदों पर आधारित ग्रन्थ है, इसमें दी गई मान्यतायें सार्वभौमिक है और विश्वस्तर पर इनका पालन होने से अशान्ति दूर होकर विश्व में शान्ति की स्थापना की पूर्ण सम्भावना परिलक्षित होती है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य सत्य विधि से ईश्वरोपासना करने वाला भक्त, वायु-जल-पर्यावरण का शुद्धि कर्ता, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों-सच्चे-संन्यासियों की सेवा करने वाला, देश भक्त, समाज सेवी, ज्ञान-विज्ञान का पोषक व धारणकर्ता, स्त्रियों केा आदर व सम्मान देने वाला तथा वैदिक गुणों से धारित स्त्रियों को माता के समान मानकर उनका सम्मान करने वाला आदि अनेकानेक गुणों वाला मनुष्य निर्मित होता है। यह कार्य सत्यार्थप्रकाश व वेद करते हैं जो अन्य किसी प्रकार से नहीं होता। सत्यार्थप्रकाश का उद्देश्य किसी मत-मतान्तर का विरोध न कर केवल सत्य को प्रस्तुत करना व उसका पालन करने के लिये लोगों को प्रेरित करना है, यही इस ग्रन्थ की संसार के अन्य सभी ग्रन्थों से विशिष्टता है। हम सत्यार्थ प्रकाश को देवता कोटि के मनुष्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में सर्वोत्तम ग्रन्थ पाते हैं, इसलिये हमें यह ग्रन्थ सर्वाधिक प्रिय है। इसके लेखक महर्षि दयानन्द में आदर्श महापुरूष के सभी दिव्य गुण व क्रियायें विद्यमान होने व उन्होंने समाज, देश व विश्व की उन्नति के लिए जो अवदान वा योगदान दिया है, इस कारण उन्हें सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष मानते हैं।
महर्षि दयानन्द ने वैदिक विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज ने वेदों के प्रचार प्रसार, कुरीति उन्मूलन, सामाजिक विषमता दूर कर समरसता स्थापित करने सहित देश को स्वतन्त्र कराने में प्रमुख भूमिका निभाई है। सम्प्रति समय के साथ कुछ शिथिलतायें भी संगठन में आयीं हैं जिसको दूर करना नितान्त आवश्यक है जिससे कि प्रभावशाली तरीके से वेदों का प्रचार प्रसार हो और संगठन सुदृढ़ एवं आदर्श बने। महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पूर्ण अंहिसात्मक संगठन है और प्रेम व सदभावपूर्वक ज्ञान का प्रचार करता है। इसके मूल में अपनी संख्या बढ़ाने हेतु हिंसा, लोभ, लालच, छल व प्रपंच वर्जित हैं। यह प्राणी मात्र के प्रति दया रखता है। कोई भी सच्चा आर्यसमाजी मांसाहार व मदिरापान, अण्डे व अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं करता। आर्यसमाज व वैदिक धर्म के दरवाजे सभी मतों के अनुयायियों के लिये खुले हैं। कोई भी यहां आकर सदाचरण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना कर सफलता प्राप्त कर सकता है। आर्यसमाज ने दलितों सहित सभी वर्णाें के बन्धुओं को वैदिक विद्वान बनाने के साथ पुरोहित बनाया है और सभी स्त्रियों को वेद विदुषी भी बनाया है। अनेक कार्यों में यह भी उसका अभूतपूर्व कार्य है। जातिप्रथा उन्मूलन में भी आर्यसमाज ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। हम यहां यह भी कहना चाहते हैं कि विश्व भर में चर्चित योग वेदों की ही देन हैं। महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का आधार वेद ही हैं। संसार का कोई मनुष्य यह नहीं कह सकता कि वह योग को स्वीकार नहीं करता। सबके जीवन में कहीं अधिक व कहीं कुछ कम योग समाया हुआ है। किसी न किसी रूप में आसन, व्यायाम व प्राणायाम सभी करते हैं। योग के दो अंग यम व नियम तथा इनके उपांग अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान को भी प्रायः संसार के सभी लोग कुछ कम व अधिक मानते व इन पर आचरण करते हैं। अतः हमारा मानना है कि संसार के सभी मतों के लोग आंशिक रूप से योग करते हैं। जो योग से परहेज करते हैं उन्हें योग को पूर्णतया अपने जीवन का अंग बनाना चाहिये। इसमें उन्हीं का लाभ व कल्याण है। हम यह भी कहना चाहते हैं कि हम आज बौद्धिक ज्ञान की दृष्टि से जो कुछ हैं, उसमें महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की महत्वपूर्ण भूमिका है। अन्त में यह भी बताना है कि आर्यसमाज ने विश्व को ईश्वर, जीव तथा प्रकृति संबंधी त्रैतवाद का विश्व का श्रेष्ठतम सिद्धान्त दिया है। इस कारण भी हमें आर्यसमाज सहित वेद व ऋषि दयानन्द सर्वप्रिय हैं। लेख विस्तृत हो गया है अतः हम लेखनी को विराम देते हैं और सभी पाठकों से आग्रह करते हैं कि सत्यार्थप्रकाश का जीवन में बार-बार पाठ, अध्ययन व चिन्तन-मनन करें। इससे उन्हें वह लाभ मिलेगा जो संसार के अन्य ग्रन्थों के अध्ययन करने से नहीं मिल सकता।
-मनमोहन कुमार आर्य