वेदों में सामवेद”
वेद, विद्या के अक्षय भण्डार और ज्ञान के अगाध समुद्र हैं। वेद सत्य और तथ्य पर आधारित हैं तथा मानवता के आदर्शों का पूर्णरूपेण वर्णन है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। मानव मात्र के कल्याणार्थ सृष्टि के आरंभ में ईश्वर ने चार ऋषियों के हृदय में वेद ज्ञान प्रदान किया था। वेद अपौरुषेय हैं, वेद स्वत: प्रमाण हैं, अन्य समस्त ग्रंथ परत: प्रमाण है। चार वेदों में 20389 मंत्र हैं यथा
ऋग्वेद – 10552
यजुर्वेद 1975
सामवेद 1875
अथर्ववेद 5987
प्रभु ने सामवेद का प्रकाश आदित्य ऋषि के हृदय में किया था। आकार की दृष्टि से सामवेद सबसे छोटा है, पर महत्व की दृष्टि से मानव समाज के लिए सबसे बड़ा है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी इसकी महिमा का गान करते हुए गीता में उपदेश किया है “वेदानां सामवेदोऽस्मि“, वेदों में मैं सामवेद हूं अर्थात्
देखन में छोटा लगे, पर हरे हृदय की पीर।
आत्मसात् कर लेते हैं, मिले दूध में नीर।।
“सामवेद एव पुष्पम्” सामवेद पुष्प के समान है। जीवन भी एक पुष्प है और चरित्र उसकी सुगंध है। सही अर्थों में साम का सार्थक अर्थ मित्र है और सच्चा मित्र वही है जो तार दे अर्थात् जीवनरूपी वैतरणी से पार कर दे। मित्र – मि + त्र = मि यानी मिलना , त्र यानी दुख दूर करना जिसके मिलने से दुख दूर हो जाएं वही मित्र है। जीवन जीना एक बात है उम्र काटना और बात है। उम्र तो सारा जमाना किसी न किसी प्रकार काटता है पर जीवन वही है जो जीवट के साथ जीता है।
प्राचीन काल में सामवेद का मानव जीवन से घनिष्ठ संबंध था। यज्ञों को आकर्षक बनाने के लिए सामगान किया जाता था। महर्षि दयानंद ने भी प्रत्येक संस्कार के पश्चात् सामगान का विधान किया है। आज आर्य समाज में भी यह प्रणाली धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। आर्य जगत के कर्णधारों, विद्वानों और याज्ञिकों इसके उद्धार का उपाय करना चाहिए।
“स्वस्ति“
आइये सामवेद के कुछ विशिष्ट मंत्रों की चर्चा करें जो मानव मात्र का कल्याण करते हैं।
ओं स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। (१८७५)
पदार्थ: (वृद्धश्रवाः) जिसका सबसे बढ़कर यश है वा सबसे अधिक वेद मंत्रों में श्रवण है वह (इंद्र:) इंद्र देवराज (न:) हमारे लिए (स्वस्ति) सुख, कल्याण वा अविनाश को (दधातु) धारण करे। (विश्वेवेदा) सबका लाभ कराने वाला वा जानने वाला ( पूषा) पोषण करने वाला पूषादेव (न:) हमारे लिए (स्वस्ति) सुख, कल्याण वा अविनाश को धारण करें। (अरिष्टनेमी) जिसकी नेमि अर्थात् नेति वा चाल रोगरहित है वह ( तार्क्ष्य:) विद्युद्धिवेश देव (नः) हमारे लिए (स्वस्ति) सुख , कल्याण वा अविनाश धारण करे। (बृहस्पति:) पालक पोषक देव (न:) हमारे लिए सुख, कल्याण वा अविनाश को परमेश्वर की कृपा से धारण करे।
पदार्थ भावार्थ –
कल्याणार्थ और रोग रहित, यश वाला जीवन होता है।
पालन पोषण करें बृहस्पति, जीवट ही जीवन होता है।।
“जीवन का कल्याण वहां है, यश से महाप्रयाण जहां है।”
“वेदोपदेश देकर रक्षा करो“
पाहि नो अग्न एकया पाह्यूऽत द्वितीयया।
पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जाम्पते पाहि चतसृभिर्वसो।। ३६
(ऊर्जाम्पते) हे ऊर्जापति, बलपते ! (वसो) हे अन्तर्यामी (अग्ने) पूजनीय परमेश्वर (एकया) ऋग्वेद के उपदेश से (न:) हमारी (पाहि) रक्षा करो। (उत) और (द्वितीयया) यजुर्वेद की वाणी से (पाहि) रक्षा करो। (तिसृभिःगीर्भि) ऋग्यजु: सामवेद रूपी त्रयी की वाणी से (पाहि) रक्षा करो। ( चतसृभि:) चारों वेदों से (पाहि) हमारी रक्षा करो।
चार वेद छ: शास्त्र में, बात मिली है दोय।
सुख दी ने सुख होत है, दुख दीने दुख होय।।
भावार्थ– मनुष्य की रक्षा जिस प्रकार वेदों से होती है उस प्रकार राजा, शासक भी नहीं कर सकते। जब वैदिक काल था तब अश्वपति जैसा सम्राट यह घोषणा करता है कि मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है कोई कंजूस नहीं। कोई मद्यपान नशा करने वाला नहीं है, कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो यज्ञ, अग्निहोत्र न करता हो। कोई भी पुरुष चरित्रहीन, व्यवहारी भी नहीं है और ना ही कोई भूख है फिर कोई स्त्री कैसे पतित हो सकती है।
न मे स्तेनो जनपदे, न कर्दयो न मद्यपः।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान, नस्वैरी स्वैरिणीकुतः।। (छान्दो. ५।११।५)
तुझे किसी कीमत पर न त्यागू
महे च न त्वाद्रिव: परा शुल्काय दीयसे।
न सहस्त्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ। (सामवेद २९१)
अर्थ– (अद्रिवः) आनंदघन, ओजस्वी (शतामघ) अनंत संपदा वाले (शताय शुल्काय) सैकड़ों (म) न (सहस्त्राय) हजारों न ( अयुताय) लाखों प्रलोभनों के होते मैं (न परा दीयसे) (त्वा) आप का परित्याग नहीं करता हूं ( च न) और (महे शुल्काय) न ही बड़े मूल्य अर्थात् प्रलोभन पर आपंका परित्याग करता हूं।
लोक में देखा जाता है कि लोग लक्ष्मी के लिए लक्ष्मीपति विष्णु का त्याग कर देते हैं। कहा भी है “कि भूखे भजन न होय गोपाला“। “बुभुक्षित: किं न करोति पापम्” भूखा कौन सा पाप नहीं करता। सचमुच पेट की ज्वाला बुझाने को व्यक्ति किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हो जाता है, परंतु हम कितनों को पता है कि लक्ष्मी विष्णु की पत्नी है। कोई भी स्त्री बिना पति के प्रसन्न नहीं होती है अतः हमें लक्ष्मीपति को ही प्राथमिकता देनी चाहिए अर्थात् हमें कोई सैकड़ों हजारों लाखों करोड़ों और बड़ा प्रलोभन दे तब भी उस ऐश्वर्यों को देने वाला परमात्मा को नहीं छोड़ना चाहिए।
इसी संदर्भ में यमाचार्य आने ने नचिकेता को विविध प्रलोभन दिये।
शतायुषः पुत्र पौत्रन वृणीध्वबहून पशून हस्ति हिरण्यंश्वान।
भूमेर्महदयानं वृणीध्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि।। (कठ. 1.23)
हे नचिकेता, तुम मुझ से सौ वर्ष आयु वाले पुत्र, पौत्रों को मांग लो, बहुत से पशु, हाथी, घोड़ा, सोना और भूमि मांग लो, स्वयं भी जितने वर्ष जीना चाहते हो उतनी आयु मैं तुम्हें देता हूं।
नचिकेता ने कहा – हे यमाचार्य! संसार के जितने विषय हैं वे अनित्य हैं। वे इंद्रिय के तेज को नष्ट करने वाले हैं। यह धन संपत्ति आपके पास ही रहे, मुझे तो ब्रह्मविद्या और मृत्यु के पश्चात आत्मा कहां जाता है यही जानने की इच्छा है।
यहां मन रूपी नचिकेता को सुबुद्धिरूपी यमाचार्य ने उपदेश किया है। क्योंकि मन चञ्चल चपल है वह विचलित हो जाता है। लेकिन जब मन “तन्मे मनः शिवसंकल्पस्तु” वाला हो तो उसे कोई भी विचलित नहीं कर सकता अर्थात् मन जब ज्ञान, कर्म को आत्मसात कर लेता है तो मन साम बन जाता है।
उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह ने लाखों-करोड़ों आय वाली एकलिंग की गद्दी स्वामी दयानंद को देने को कहा और बोले कि आपको मूर्ति पूजा भी नहीं करनी पड़ेगी। केवल मूर्ति पूजा का खंडन न कीजिये। इस पर स्वामी जी गंभीर हो गए और बोले हे राजन्! तेरे राज्य को मैं एक दौड़ लगाकर पार कर सकता हूं परंतु जन्म-जन्मांतर में भी परमेश्वर के राज्य को पार नहीं कर सकता। आगे से आप ऐसे वचन कहने का साहस मत कीजिए।
महर्षि दयानंद का मन तन्मे मनः शिवसंकल्प वाला था। वह सच्चे नचिकेता थे जिन्होंने तत्कालीन महाराणा को निरंतर कर दिया।
शुभेच्छु
गजेंद्र आर्य
राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता
+91-9783897511
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