_”इतिहासकार का यह कर्तव्य है कि वह अपने पात्रों की आकांक्षाओं, भावनाओं और कारनामों का भी यथारूप चित्रण करे। यह तभी सम्भव है जब वह अपनी पहले से बनाई धारणाओं को एक ओर रख दे और इस बात की भी परवाह न करे कि उसके इस चित्रण से वर्तमान के हितों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा। वर्तमान के हितों की रक्षा के लिए इतिहास की घटनाओं को हल्का, गहरा अथवा नकली रंग दे देना कदापि उचित नहीं।
उदाहरणतया, हजरत मुहम्मद के जीवन को लिखने वाला अपना कर्तव्य ठीक प्रकार से नहीं निभाएगा यदि वह बुतपरस्तों और काफिरों के प्रति मुहम्मद की तीव्र चोटों को इस विचार से चुभते ढंग से वणन न करे कि इससे गैर-मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुचेगी। … इतिहास की घटनाओं को ज्यों का त्यों ही लिखना चाहिये। यदि वह ऐसा न कर सके तो बेहतर है कि वह मुहम्मद का जीवन ही न लिखने बैठे। ठीक इसी तरह उसके पाठकों का भी एक कर्तव्य है और विशेषकर उन पाठकों का जिन्हें मुहम्मद की शिक्षाओं पर कोई आस्था नहीं। पाठकों को यह भ्रान्ति नहीं होनी चाहिये कि मुहम्मद, बाबर अथवा औरङ्गजेब की अच्छी-बुरी आकांक्षाओं, भावनाओं और कारनामों का यथारूप चित्रण करने वाला लेखक, आज का अच्छा नागरिक नहीं हो सकता। सम्भवतया वह लेखक अपने देश के अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति बहुत उदार और सहिष्णु हो।”_