अपने गौरवशाली इतिहास को लिए दार्शनियों, कवियों और सूफी सन्तों के शहर पानीपत को बड़ा गर्व है । इसी शहर के सनातन धर्म महाविद्यालय में एक बार एक ईसाई पादरी आया और उसने वहाँ के पंडितों और विद्वान प्रोफेसरों को चैलेंज किया कि तुन्हें अपने वेदों पर बड़ा गर्व है और तुम वेदों को भगवान की वाणी कहते हो जबकि तुम्हारे वेदों में अनर्गल और मूर्खतापूर्ण बातें भरी हुई हैं । हम आपको तीन दिन का समय देते हैं , यदि पूरे पानीपत शहर का कोई विद्वान पण्डित या प्रोफेसर सार्वजनिक मंच से इस अमुक मन्त्र का अर्थ पढ़ देगा तो हम हिन्दू धर्म स्वीकार कर लेंगे , यदि नहीं पढ़ पाया आप सब ईसाई मत को स्वीकार कर लेना ।
असल में वह मन्त्र था – गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां प्रियपतिं हवामहे ।।
यह बहुत पवित्र मन्त्र है और हिन्दू लोग गणेश जी की पूजा के दौरान इसका पवित्र उच्चारण करते हैं, लेकिन विधर्मियों ने इसके अर्थ का अनर्थ करके इसे प्रचारित किया । विदेशी भाष्यकारों ने केवल शब्दार्थ के आधार पर अर्थ करके बहुत ऊटपटांग चीजें हमारे शास्त्रों बारे बहुप्रचारित की हैं । हमारे लगभग सभी ग्रंथों में छेड़खानी की गई मगर वे लोग वेदों में मिलावट तो न कर सके मगर उसके मन्त्रों के भाष्य (अर्थ ) का अनर्थ करके प्रस्तुत किया ।
पानीपत शहर में हड़कम्प मच गया । मन्त्र का अर्थ केवल पुस्तक में लिखा हुआ ही तो पढ़ना था, मगर वह अर्थ इतना अश्लील था कि वह यहाँ भी नहीं लिखा जा सकता । उसे मंच पर सार्वजनिक रूप से पढ़ने के लिए कोई तैयार न था । सभी परेसान थे । विद्वान आचार्यों की रातों की नींद उड़ गई । दो दिन बीत गए और केवल एक दिन बाद परीक्षा की घड़ी थी ।
शहर में एक सनातनी पण्डित जी बड़े जाने-माने विद्वान थे । उन्हें रात को लेटे-लेटे एक विचार आया और वे खड़े होकर रात को ही पानीपत शहर के आर्य समाज भवन में गए और ऋषि दयानन्द द्वारा कृत वेदभाष्य ( वेदों के अर्थ वाली पुस्तक) मांगी और उसमें से उसी मन्त्र को निकालकर उसका अर्थ पढा तो पण्डित जी खुशी से उछलने लगे, उनकी खुशी का ठिकाना न था, शरीर के अंग-अंग में अद्भुत शक्ति का संचार हो गया । पण्डित जी उस पुस्तक को मांगकर ले गए और अपने सिराहने के पास रखकर चैन की नींद सो गए ।
अगले दिन एकत्रित हुए सभा में पण्डित जी ने जब मन्त्र का अर्थ पढ़ना शुरू किया तो पादरी साहब को लगा जैसे किसी ने उन्हें गड्ढे में धक्का दे दिया हो, वे बीच में ही बोले – रुकिए, यह जो अर्थ आप पढ़ रहे हैं यह तो ऋषि दयानन्द का किया हुआ अर्थ है जिस ऋषि दयानन्द को आप सभी सनातनी लोग दिन-रात गाली देते हो, उनकी निन्दा करते हो ।
पहले से ही बहुत क्रोधित हुए पड़े पण्डित जी बोले – चुप, चुप, चुप ।।।।।।। हम आपस में चाहे कितना भी झगड़ते हों मगर दयानन्द हमारे हैं, हमारे गौरवशाली सन्यासी हैं, तुम्हारे भाष्यकार तो हमारे दयानन्द के शिष्य बनने की योग्यता भी नहीं रखते । तुम्हारे भाष्यकारों ने केवल शब्दों के अर्थ के आधार पर भाष्य करके अर्थ का अनर्थ बनाया हुआ है जबकि आदित्य ब्रह्मचारी दिव्य दयानन्द ने शब्दार्थ के साथ-साथ समाधिस्थ होकर मन्त्रों की आत्मा तक जाकर अर्थ किया है । हमें अपने दयानन्द पर गर्व है ।।।।।
- ईश्वर वैदिक ।