होली –
होली आजकल असभ्यता का त्योहार माना जाने लगा है। ऐसा इस कारण हुआ, क्योंकि इसका रूप विकृत हो गया है, अन्यथा यह भी चार प्रमुख त्योहारों में से एक है। अन्य तीन त्योहार हैं- रक्षाबन्धन, विजयदशमी एवं दीपावली।
वास्तव में होली आरोग्य, सौहार्द एवं उल्लास का उत्सव है। यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और आर्यों के वर्ष का अन्तिम त्योहार है।
होलिका किसी स्त्री का नाम नही था यह गलत कहानी रची है न ही ऐसा समभव है कि आग में औरत जल जाऐ और बच्चा बच जाऐ बेशक कितना भी ईश्वर भक्त हो आग अपना धर्म जलाना नही छोड़ेगी।
किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चना आदि का निर्माण करती (माता निर्माता भवति) यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार गीरी /प्रह्लाद बच जाता।
होली नई ऋतु एवं नई फसल का उत्सव है। इसका प्रह्लाद एवं उसकी बुआ होलिका से कोई सम्बन्ध नहीं है। होलिका की कथा प्रसिद्ध अवश्य है
किन्तु वह कथा इस उत्सव का कारण नहीं है। यह उत्सव तो प्रह्लाद एवं होलिका की कहानी से पहले से मनाया जा रहा है।
होली क्या है?
यह नई ऋतु एवं नई फसल का उत्सव है।
होली नवसस्येष्टि है (नव= नई, सस्य= फसल, इष्टि= यज्ञ) अर्थात् नई फसल के आगमन पर किया जाने वाला यज्ञ है। इस समय फाल्गुन की फसल में गेहूँ, जौ, चना आदि का आगमन होता है। इनके अधभुने दाने को संस्कृत में ‘होलक’ और हिन्दी में ‘होला’ कहते हैं। होली’ और ‘होलक’ से ‘होलिकोत्सव’ शब्द तो अवश्य बनता है, किन्तु यह नामकरण वैदिक उत्सव का वाचक नहीं है जो कि नवसस्येष्टि है।
वृक्षों पर नये पत्ते उगते हैं। पशुओं की रोमावलि नई होने लगती है। पक्षियों के नये ‘पर’ निकलते हैं। कोयल की कूक एवं मलय पर्वत की वायु इस नवीनता को आनन्द से भर देती है। इतनी नवीनताओं के साथ आने वाला न्या वर्ष ही तो वास्तविक नव वर्ष है, जो होली के दो सप्ताह बाद आता है। इस प्रकार होलकोत्सव या होली नई फसल, नई ऋतु एवं नव वर्षागमन का उत्सव है।
होली कैसे मनाएँ ? :-
होली के नाम पर लकड़ी के ढेर जलाना, कीचड़ या रंग फेंकना, गुलाल मलना, स्वाँग रचाना, हुल्लड़ मचाना, शराब पीना, भाँग खाना आदि विकृत बातें हैं।
सामूहिक रूप से नवसव्येष्टि अर्थात् नई फसल के अन्न से बृहद् यज्ञ करना पूर्णतः वैज्ञानिक था। नई ऋतु के आगमन पर रोगों से बचने के लिए बृहद् होम करना वैज्ञानिक आवश्यकता भी है, होली (फाल्गुन सुदि पूर्णिमा) का दूसरा नाम नवसस्येष्टि यज्ञ भी है। इस अवसर पर नवसस्येष्टि यज्ञ करें और फाल्गुन की नई फसल की आहुतियाँ देकर ईश्वर का धन्यवाद करें।
इसी का विकृत रूप लकड़ी के ढेर जलाना है। गुलाब जल अथवा इत्र का आदान-प्रदान करना मधुर सामाजिकता का परिचायक था। इसी का विकृत रूप गुलाल मलना है। ऋतु-परिवर्तन पर रोगों एवं मौसमी बुखार से बचने के लिए टेसू के फूलों का जल छिड़कना औषधिरूप था। इसी का विकृत रूप रंग फेंकना है। प्रसन्न होकर आलिंगन करना एवं संगीत-सम्मेलन करना प्रेम एवं मनोरंजन के लिए था। इसी का विकृत रूप हुल्लड़ करना एवं स्वाँग भरना है। कीचड़ फेंकना, वस्त्र फाड़ना, मद्य एवं भाँग का सेवन करना तो असभ्यता के स्पष्ट लक्षण हैं इसे त्यागना चाहीए।