आज के लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक जमाने में भी जब किसी देश से सेना द्वारा तख्तापलट के समाचार आते हैं तो बड़ा कष्ट होता है । यह कष्ट उस समय और अधिक बढ़ जाता है जब हम देखते हैं कि तख्तापलट से पीड़ित हुए ऐसे देश के पड़ोसी देश या विश्व के बड़े देश और यहां तक कि विश्व पंचायत घर संयुक्त राष्ट्र भी ऐसी कार्रवाई पर या तो मौन साध जाता है या ऐसी प्रतिक्रिया देता है जो लोकतंत्र के समर्थन में उचित नहीं कही जा सकती ।
जबसे म्यांमार में सैन्य तख्तापलट हुआ है तब से ही वहां पर सेना की ओर से हिंसा की घटनाएं निरंतर जारी हैं। प्रदर्शनकारियों की आवाज को दबाने के लिए सेना अपने हर प्रकार के हथकंडे को प्रयोग में ला रही है। विश्व मानव अधिकार आयोग और संयुक्त राष्ट्र के रहते ऐसा किया जाना सचमुच शर्मनाक है। इसके उपरांत भी भारत के पड़ोसी देश में लोग लोकतंत्र बहाली के लिए अपने प्रदर्शन निरंतर जारी रखे हुए हैं। भारत ने भी अपने पड़ोसी देश के भीतर चल रही ऐसी घटनाओं पर सभी सताई प्रतिक्रिया दी है।
सेना के भय से म्यांमार के लोगों का पलायन भी जारी है। बड़ी संख्या में लोग देश से पलायन कर रहे हैं और सबसे तेज स्थानों की तलाश में है। भारत के मिजोरम में भी बड़ी संख्या में लोग पहुंचे हैं। अमेरिका समेत यूरोपीय देशों की ओर से म्यांमार की सैन्य हुकूमत पर लोकतंत्र की बहाली के लिए लगातार दबाव बना हुआ हैं। म्यांमार के पड़ोसी मुल्कों खासकर चीन, पाकिस्तान और भारत में सैन्य शासन के प्रति क्या दृष्टिकोण है ? म्यांमार में सैन्य हुकूमत के पीछे चीन का क्या स्टैंड है ? वह सैन्य शासन का विरोध क्यों नहीं कर रहा है ? पाकिस्तान, म्यांमार में सैन्य तख्तापलट की घटना से क्यों चिंतित है ? म्यांमार में सैन्य शासन के खिलाफ उसने चीन का साथ क्यों नहीं दिया ? प्रो. हर्ष वी पंत का कहना है कि चीन लोकतांत्रिक मूल्यों का विरोधी रहा है। उन्होंने कहा कि जहां तक सवाल म्यांमार में सैन्य शासन का है तो उसका इस बात से मतलब नहीं है कि वहां किसकी सरकार है। सरकार का क्या स्वरूप है। चीन का सरोकार सिर्फ म्यांमार में अपने हितों का पोषण करना है। उसे बढ़ाना है। म्यांमार में चीन का बड़ा निवेश है। चीन जानता है कि म्यांमार में किसी तरह की राजनीतिक अस्थिरता से उसके आर्थिक हित प्रभावित होंगे। इसलिए उसकी सबसे बड़ी चिंता म्यांमार में राजनीतिक स्थिरता कायम करने की है। वह स्थिरता चाहे सैन्य शासन के जरिए हो या लोकतांत्रिक सरकार के माध्यम से हो। यही कारण रहा है कि चीन ने संयुक्त राष्ट्र की उस अपील पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जिसमें म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार को बहाल करने और दमन का रास्ता छोड़ने के लिए कहा गया है।
उन्होंने कहा कि म्यांमार में सैन्य शासन के बाद लोकतांत्रिक देशों की तुलना चीन की प्रतिक्रिया काफी अलग थी। म्यांमार में सैन्य शासन के बहाने चीन ने लोकतांत्रिक पद्धति पर ही तंज कसा था। चीन के ग्लोबल टाइम्स की एक रिपोर्ट से चीनी सरकार के दृष्टिकोण का पता चलता है। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि दुनिया के कुछ ही देश ऐसे हैं, जहां ताकत दिखाकर लोकतात्रिक व्यवस्था को लागू किया गया है। अखबार ने लिखा है कि छोटे देशों के पास लोकतंत्र बहाल करने की शक्ति नहीं है। छोटे मुल्क पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों का अनुकरण करते हुए देश में लोकतंत्र बहाल करने की कोशिश करते हैं। उन्हें लोकतांत्रिक पद्धति का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि इन मुल्कों के पास कोई राजनीतिक व्यवस्था को बहाल करने का विकल्प नहीं बचता है। प्रो. हर्ष पंत का कहना है कि चीन की लोकतांत्रिक प्रणाली में कतई आस्था नहीं है। इसलिए उसने म्यांमार में कभी लोकतंत्र बहाली या आंग सांग सू की रिहाई की बात नहीं की।
वास्तव में संसार के देशों की यह बहुत ही खतरनाक मनोवृति है कि वे अपने पड़ोसी या किसी भी देश में लगती हुई आग को शांत करने का प्रयास नहीं करते, बल्कि उसमें और भी अधिक घी डालने का काम करते हैं। यही कारण है कि विश्व में चारों ओर अफरा-तफरी ,अराजकता है और शंका आशंकाओं का दौर जारी है। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था के होते हुए भी देशों का परस्पर विश्वास बहाल नहीं हो पाया है। रह-रहकर तीसरे विश्व युद्ध की चर्चाएं होती रहती हैं । ऐसे निष्कर्ष भी निकाले जाते हैं कि यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो चौथे विश्व युद्ध के लिए कोई हथियार नहीं बचेगा और ना ही चलाने वाला बचेगा । ऐसी खतरनाक आशंकाओं के बीच भी यदि विश्व नेतृत्व शांत रहता है और वह एक दूसरे को नीचा दिखाने की गतिविधियों में लगा हुआ है तो इसे विश्व समुदाय के भविष्य के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता।
यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब हम लोकतंत्र के युग में यह भली प्रकार जानते हैं कि लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका मिलकर काम करती हैं। शासन के इन तीनों अंगों से अलग चौथा सैनिक पालिका नाम का कोई स्तंभ नहीं है। सेना का अपना काम है जो प्रत्येक देश में निर्धारित किया गया है। इसलिए सेना को अपने काम पर ही ध्यान देना चाहिए । यदि वह बैरकों से बाहर निकल कर के सरकार का गठन करती है या अपनी किसी तथाकथित निर्दयी सरकार को सत्ता से बेदखल करती है तो उसका यह कार्य असंवैधानिक ही कहा जाएगा। सरकारों को सत्ता से बेदखल करने के लिए एक प्रक्रिया है जो प्रत्येक देश में अपनाई जाती है और जनता के पास जाकर नया जनादेश लेकर नई सरकार का गठन किया जाता है। जिसमें सेना अपना उचित सहयोग कर सकती है लेकिन सहयोग के नाम पर सरकारों को खत्म कर नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती।
यदि कहीं किसी देश में किसी तानाशाह की सत्ता काम कर रही है तो वहां भी सेना को अधिक से अधिक इतना काम करना चाहिए कि वह उस तानाशाह को उखाड़ फेंके और जनता को अपनी नयी सरकार बनाने का अवसर चुनावों के माध्यम से प्रदान करे। इस कार्य के लिए संसार के अन्य देशों को भी ऐसी तानाशाह सरकार के विरुद्ध काम कर रही सेना का सहयोग व समर्थन करना चाहिए । कुल मिलाकर हर हाल में हर देश में लोकतंत्र बहाल हो और लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करने का साहस कोई भी तानाशाह या किसी भी देश की सेना नहीं कर सके ऐसा प्रबंध इस समय विश्व स्तर पर होना चाहिए। जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र को समय रहते हस्तक्षेप करना चाहिए और पड़ोसी देश म्यंमार में जो कुछ भी हो रहा है उसे सुलझाने के लिए विश्व समुदाय का साथ लेना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत