आजकल ‘सिफारिश’ शब्द इतने गलत अर्थों में प्रयोग किया जाता है कि जैसे ही हम किसी के बारे में यह सुनते हैं कि उस व्यक्ति की ‘सिफारिश’ अमुक व्यक्ति ने की, जिससे वह अमुक कार्य को कराने या अमुक नौकरी को पाने में सफल हुआ – वैसे ही हमें यह लगने लगता है कि इस प्रकार कार्य कराने में सफल होने वाले व्यक्ति या उस नौकरी को पाने वाले व्यक्ति में निश्चय ही कहीं ना कहीं कोई ना कोई कमी थी ,जिससे उसे सिफारिश का सहारा लेना पड़ा। इतना ही नहीं, हम ‘सिफारिश’ का अर्थ यह भी लगा लेते हैं कि इस काम को कराने या नौकरी को पाने में भ्रष्टाचार भी एक ‘माध्यम’ रहा। कभी-कभी तो भ्रष्टाचार के इस ‘माध्यम’ को ही सिफारिश मान लिया जाता है। वास्तव में देखा जाए तो इस ‘माध्यम’ से काम कराने वाले लोगों की भी समाज में बहुत बड़ी भीड़ है।
अब प्रश्न आता है कि ‘सिफारिश’ को लेकर हमारी ऐसी सोच क्यों बन जाती है ? यदि इस प्रश्न पर विचार करें तो ‘सिफारिश’ और भ्रष्टाचार का जहां अन्योन्याश्रित संबंध हो गया है, वहीं भ्रष्टाचार का संस्थागत हो जाना भी इसका एक कारण है। इसके अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि हम अपनी संस्कृति ,संस्कृत और हिंदी भाषा की पवित्रता और गरिमा को भूल गए हैं। उनके शब्दों की वैज्ञानिकता और पवित्रता को भी हमने भुला दिया है। इंग्लिश और उर्दू के भूत ने हमें अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से काट दिया है।
अब तनिक विचार कीजिए कि ‘सिफारिश’ शब्द संस्कृत के किस शब्द का पर्यायवाची है ? इसका उत्तर खोजने पर पता चलता है की ‘सिफारिश’ संस्कृत के ‘संस्तुति’ शब्द का पर्यायवाची है। संस्तुति का समानार्थक होने के उपरांत भी ‘सिफारिश’ शब्द बहुत निम्न स्तर का शब्द है, जबकि ‘संस्तुति’ शब्द बहुत ही पवित्र, उत्कृष्ट और वैज्ञानिक शब्द है।
संस्तुति का शाब्दिक अर्थ है – ‘सम्यक स्तुति।’ यह वैसे ही है जैसे सन्ध्या का शाब्दिक अर्थ सम्यक ध्यान है । सम्यक का अर्थ है – विचार पूर्वक करना । विचार मंत्र को भी कहते हैं। जब हम किसी काम को विचार पूर्वक करने की बात कहते हैं तो उसका अर्थ होता है कि जैसा मंत्र में विधि विधान है अर्थात जैसी वैदिक व्यवस्था है, हमें वैसा ही काम करना है। अतः संध्या का अर्थ हो गया जैसा विधि-विधान है , जैसा वेद मंत्र कहता है ,उसके अनुसार ईश्वर का ध्यान लगाना। विचारपूर्वक का एक अर्थ यह भी है कि हम उस समय अपने आपको संसार के अन्य विषयों से निर्लिप्त कर लें, दूर कर लें और ईश्वर के ध्यान में आ जाएं तो हमारी सन्ध्या सफल हो जाती है । इसी प्रकार संस्तुति में जब सम्यक स्तुति के विधान पर विचार करते हैं तो पता चलता है कि यहां भी हम किसी के गुणगान को या गुणों के बखान को सम्यक अर्थात विचार पूर्वक करें। ऐसा ही एक शब्द संन्यास है। जिसमें सम्यक न्यास अर्थात् दूरी बना लेनी होती है। इसका अभिप्राय है कि जैसा वेद विधान है उसके अनुसार संसार के संबंधों और वस्तुओं आदि से अपने आपको निर्लिप्त रखकर दूरी बना लेना, उन सबके बीच रहकर भी उनसे अलग रहने का अभ्यास संन्यास है।
स्तुति का अर्थ ईश्वर के गुणों का बखान करना है। यहां संस्तुति का अभिप्राय हुआ कि किसी व्यक्ति के गुणों का विचारपूर्वक बखान दूसरे से करना अर्थात उसके बारे में दूसरे को यह बताना कि इस व्यक्ति की अमुक अमुक विशेषताएं हैं । यदि इस व्यक्ति को अमुक कार्य, नौकरी या व्यवसाय दिया जाएगा या जिम्मेदारी दी जाएगी तो यह उसे सम्यक ढंग से संपादित कर सकता है, निष्पादित कर सकता है। इसलिए मैं इस की कार्यशैली और विचारधारा को देखकर यह कह सकता हूं कि इसको अमुक कार्य दे दिया जाए । संस्तुति में संस्तुति करने वाला व्यक्ति इस बात के प्रति गंभीर होता है कि वह जो कह रहा है वह भी विचारपूर्वक कह रहा है अर्थात उसमें झूठ, छल, कपट का कोई स्थान नहीं है। जैसा वेद का विधान है कि झूठ, छल, कपट का सहारा ना लेकर अपने कार्य व्यवहार का संपादन करो। मैं वैसा का वैसा ही कर रहा हूं, यही मेरी संस्तुति है। इसलिए भ्रष्टाचार की तो कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जैसे संस्तुति में सम्यक स्तुति है और संध्या में सम्यक ध्यान है, वैसे ही संन्यास में सम्यक न्यास अर्थात विचारपूर्वक दूरी बनाने का विधान होता है।
संस्तुति में पूर्णतया सकारात्मकता रहती है, जबकि सिफारिश में नकारात्मकता भी आ जाती है। सिफारिश एक पतित या गिरा हुआ शब्द है। जबकि संस्तुति एक पवित्र और उत्कृष्ट शब्द है।
अपनी वैज्ञानिक और अर्थपूर्ण भाषा को यदि नहीं बोलोगे तो उसके शब्दों की परिभाषा भी समाप्त हो जाएंगी । आवश्यकता अपनी भाषा की वैज्ञानिकता और पवित्रता को समझने की है। जिससे हम समाज में प्रचलित शब्दों की सही परिभाषा को भी समझ सकेंऔर उसके अनुसार अपने कार्य व्यवहार, जीवन शैली और कार्यशैली को बना सकें।
हम सिफारिश को हटाएं और संस्तुति को समझाएं।
सिफारिश ने हमें बहुत कुछ ऐसा दिया है जो हमारे लिए दुखद रहा है। जैसे सिफारिश के बल पर मंत्री, विधायक, सांसद ,मुख्यमंत्री, अधिकारी नौकरी पेशा वाले लोग, उद्योगपति आदि बहुत बने हैं। उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं पूर्णतया वाहियात और देश के बारे में न सोचकर अपने पेट के बारे में सोचने वाले होते हैं ।वर्तमान दौर में जितना भी कुछ भ्रष्ट तंत्र हमें दिखाई देता है, वह सारा का सारा इस सिफारिश शब्द के द्वारा ही चल रहा है। बाहर से सिफारिश शब्द रहता है, लेकिन भीतर से भ्रष्टाचार रहता है और ले देकर के मूर्ख, अज्ञानी और विषय का कुछ भी ज्ञान न रखने वाले लोग अध्यापक बन रहे हैं, जबकि कृषि के बारे में कुछ भी नहीं जानने वाला व्यक्ति कृषि मंत्री बन रहा है। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में सारा कुछ अस्त-व्यस्त हो चुका है।
अपनी भाषा से जुड़ो। अपने शब्दों से जुड़ो।उनकी परिभाषा को समझो और उनके अनुसार अपने तंत्र को सुधारने के लिए सक्रिय बनो।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत