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बिखरे मोती

बिखरे मोती : मृत्यु खावे रोग को पाप आत्मा खाए

 

मृत्यु खावै रोग को,
पाप आत्मा खाय।
ऐसी करनी कर चलो,
जो परमधाम मिल जाय॥1461॥

व्याख्या :- मृत्यु का क्षण बड़ा दार्शनिक होता है।आदर्श और यथार्थ का यह कितना कठोर संगम है? मृत्यु की गोद में जीवन के सारे स्वप्न सो जाते हैं। वियोग जीवन का परम सत्य है।एक न एक दिन सभी को पृथक होना पड़ता है।यहां तक कि आत्मा और शरीर का भी विछोह हैं। भीगी आंखों से ही हर मनुष्य को यह कठोर सत्य सहना पड़ता है। रूप,श्रृंगार और सृजन अपनी कहानी चिता के किनारे छोड़ कर चले जाते हैं।

संसार के सारे सम्बन्धों की रति यहीं तक है।सोने जैसा शरीर चिता की लाल – पीली लपटों में जलकर राख की एक ढेरी मात्र रह जाता। यह निभ्रान्त सत्य है कि मृत्यु शरीर के साथ-साथ रोग को खा जाती है किंतु पाप को नहीं । यह पाप ही तो है ,जो आत्मा को खा जाता है। कितना कौतुहल है कि पाप चिता की लाल – पीली लपटो में भी नहीं जलता। वह तो जीव के साथ ऐसे रहता है, जैसे रथ के बैल के पीछे- पीछे उसका पहिया रहता है। इसलिए हे मनुष्य ! अपने कर्म को पूजा बनाओ ,इन्हें सत्कर्म (पुण्य) बनाओ, दिव्य- कर्म बनाओ,मन बुद्धि को प्रभु चरणों में लगाओ, अर्पण ,तर्पण और समर्पण को अपनाओ ताकि तुम्हें परमधाम मिल सके ,प्रभु की आगोश मिल सके,अर्थात् मोक्ष मिल सके।

पुराण पुरुष अक्षर वही, चिरनूतन ईशान

पुराण पुरुष अक्षर वही,
चिरनूतन ईशान।
मनुआ रम उस ब्रह्म में,
जो चाहे कल्याण ॥1462॥

व्याख्या:- संसार में परमपिता परमात्मा पुराणपुरुष है अर्थात् पुरातन है, सनातन है उससे अधिक पुराना कोई नहीं। वह प्राचीन से भी प्राचीन है किंतु कितने आश्चर्य की बात है कि वह प्राचीन होते हुए भी अर्वाचीन है, नित नूतन है।वह नवीन है, तो उसकी सृष्टि में नवीनता उसी के कारण हैं।वह अक्षर है अर्थात् परमपिता परमात्मा का विकास अथवा क्षरण कभी नहीं होता है। वह तीनों कालों में एक जैसा रहता है।इसलिए उसे अक्षर कहा गया है। वह समस्त ब्रह्माण्ड का निर्विवाद शासक है।सभी प्राणी, ग्रह, उपग्रह एवं नक्षत्र उसके लिए सिर झुकाते हैं।वह सभी को गति देता है किंतु स्वयं गति में नहीं आता। उसी के संकेत पर सूर्य ,चंद्र,वायु इत्यादि चलते हैं। इसीलिए उसे वेद ने ‘ईशान’ कहा है। वह राजाओं का ‘राजा’ है वह इतना महान है कि समस्त सृष्टि में उससे महान कोई नहीं। वह ब्रह्म अणु भी है और विराट भी। उससे बड़ा विराट कोई नहीं। इसलिए हे मेरे मन यदि अपना कल्याण चाहता है अर्थात् आवागमन के क्रम से मुक्ति चाहता है,तो उस परम ब्रह्म में नित रमण कर, तभी तेरा कल्याण संभव है।

प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य

संरक्षक : उगता भारत
क्रमश:

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