राष्ट्रवाद की राजनीति में बढ़ती धार्मिक कट्टरता
सतीष भारतीय
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क में प्रथक-प्रथक धर्मो, भाषाओं, संस्कृतियों और रीति-रिवाजों को मानने वाले विभिन्न समुच्चयों को एकत्व के सूत्र में बांधने वाला मूलाधार ही राष्ट्रवाद है और यह वही राष्ट्रवाद है जो भारतीय स्वाधीनता के कल्प में हमें अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सड़कों पर जन आंदोलनों के रूप में देखने मिलता था तथा उस वक्त राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर हमारे बहुत से अर्जमन्द महापुरुषों ने मुल्क की स्वाधीनता के लिए अपनी कुर्बानी दे दी और रफ्ता-रफ्ता मुल्क आजाद हुआ तथा मुल्क के दो टुकड़े भारत और पाकिस्तान हो गए और उनका मुस्तकबिल भी अलग-अलग दिशाओं में तब्दील हो गया।
हमारे देश में जब संविधान निर्मित होकर लागू हुआ तो महसूस हुआ कि सत्ता प्राप्ति के लिए एक सियासी आहट तेज हो गयी और आखिरकार देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू बने तथा आजादी के कुछ दशक उपरांत राष्ट्रवाद की राजनीति में जो धार्मिक कट्टरता का एक विकराल स्वरूप रफ्ता-रफ्ता उद्भूत किया जाने लगा तो भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आ गया और राष्ट्रवाद की भावनाएं कभी बढ़ने लगी और कभी शिथिल होने लगीं लेकिन ध्यान देने योग्य है कि 2000 के अनंतर जिस तरह का सियासी माहौल देश में प्रजनित हुआ है उसे देख कर लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में धर्म के नाम पर सियासी खेल चल रहा है और आवाम के प्रमुख मुद्दों में धार्मिक कट्टरता को प्रादुर्भूत किया जा रहा है।
इस वक्त चुनावी एजेंडों से लेकर छोटे-बड़े कार्यक्रमों और प्रदर्शनों में नेताओं की जुबान से जो लफ़्ज़ निकल रहे है वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहीं ना कहीं किसी विशिष्ट संप्रदाय एवं विचारधारा से मेल खा रहे हैं तथा ऐसे चुनावी कार्यक्रमों एवं प्रदर्शनों में ग्रामीण और शहरी अशिक्षित व भोली भाली आवाम को कट्टरतापूर्ण राष्ट्रवाद की आड़ में वोट बैंक के लिए टारगेट किया जा रहा है और इन प्रदर्शनों में युवाओं को दरकिनार किया जा रहा है क्योंकि आज का युवा शिक्षित और जागरूक है वह बुनयादी मुद्दों को तरजीह देता है तथा उससे धार्मिक कट्टरता के नाम पर वोट बैंक हासिल करना मुहाल है।
वहीं मौजूदा युग में विभिन्न स्तर पर राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रवाद का एजेंडा लिये खुद को सबसे बड़ा देशभक्त प्रमाणित करने में लगी हुई है तथा राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दे रही है जिससे विदित हो रहा है कि नेताओं ने लोकतंत्र को धर्मतंत्र बना दिया है। राष्ट्रवाद के नाम पर हमारे देश में राजनीतिक दलों द्वारा जो राजनीति हो रही है उसका लक्ष्य और रूप खुद को लाभान्वित करना नजर आ रहा है जिसे देख कर लग रहा है ऐसे राजनीतिक दल किसी भी तरह सत्ता पाना चाहते हैं। आज जो सड़कों पर राष्ट्रवाद के नाम पर खास तौर पर हिंदू-मुस्लिम धार्मिक कट्टरता देखने मिला रही है उसे देखकर यही लगता है कि धार्मिक कट्टरता के चक्कर में मनुष्यता गुम हो रही है।
आपको सचेत कर दें कि धार्मिक कट्टरता के अस्बाब से कई लोगों की जान चली जाती है उदाहरण के तौर पर कट्टर हिंदुत्ववादी नेता यति नरसिंहानंद के नफ़रत भरे भाषणों ने दिल्ली दंगाइयों में इस तरह कट्टरता पैदा की जिससे दिल्ली में 2020 की फरवरी के अंतिम हफ़्ते में चार दिन तक चली सांप्रदायिक हिंसा ने 53 लोगों की जान ले ली हालांकि मारे गए लोगों में लगभग हमारे तीन चौथाई मुसलमान थे।
हमारे देश का संविधान पूर्णत: धर्मनिरपेक्ष है लेकिन जो धार्मिक कट्टरता की राजनीति मुल्क में हो रही है उसमें धर्मनिरपेक्षता का नाम दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा बल्कि राष्ट्रवाद के नाम पर सियासत में हिंदू-मुस्लिम और भारत- पाकिस्तान जैसे आदि शब्दों के झांसे की आहट सुनाई देती है।
यदि हम आज के संदर्भ में राष्ट्रवाद की बात करें तो आज बेशक सरहद पर मुल्क की रक्षा करने वाले जवान राष्ट्रवाद का अप्रतिम उदाहरण है लेकिन महज यही राष्ट्रवाद नहीं है बल्कि सड़क से कचरा उठाकर कचड़ेदान में डाल देना और अपने टिफिन का खाना किसी भूखे मुफलिस व्यक्ति को खिला देना तथा देश हित को सर्वोपरि समझते हुए देश के लिए छोटे-छोटे कार्य करना भी राष्ट्रवाद है।
वर्तमान कल्प में राष्ट्रवाद की राजनीति में जैसे-जैसे धार्मिक कट्टरता बढ़ रही उससे लोकतंत्र की महत्ता पर मुसलसल निकृष्ट प्रभाव पढ़ रहा जो देश के उमदा भविष्यतकाल पर प्रश्न चिन्ह प्रजनित करता है हमारे देश की राष्ट्रीय एकजुटता के लिए लोकतंत्र को मुनासिब बनाए रखना निहायती अवश्यंभावी है जिसके लिए हमें धार्मिक कट्टरता की भावनाओं को त्याग कर राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम की भावनाओं को बढ़ावा देने के साथ राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का सत्यपरायणता से पालन करने की दरकार है तब सही मायनों में राष्ट्रीय एकता कायम होगी।