जंगे आजादी के दौरान कठपुतलियों की कसक
चंद्र प्रकाश
कृषि कानून, मुसलमानों का उत्पीड़न और नागरिक स्वतंत्रता जैसे विषयों पर दुनिया में भारत की छवि बिगाड़ने के प्रयास हो रहे हैं। देश में असहमति और सरकार की नीतियों के विरोध के बहाने देश विरोधी ताकतों के इशारे पर कुछ कठपुतलियां उनके मंसूबों को अंजाम तक पहुंचाने में जुटी हैं। हर बार विरोध करने वाले चेहरे भले ही अलग दिखते हों, लेकिन इनके तार आपस में जुडेÞ हुए नजर आते हैं। इनका एक ही उद्देश्य है- अराजकता फैलाकर देश को खांचों में बांटना
मानवाधिकार संस्थाओं पर दबाव, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं, विशेषकर मुसलमानों का उत्पीड़न और हमले, घटती राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता जैसे विषयों को लेकर भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निशाना बनाए जाने के प्रयासों के तहत अमेरिका में कथित थिंकटैंक और एनजीओ फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में भारत का दर्जा ‘फ्री कंट्री’ से बदल कर ‘पार्टली फ्री’ कर दिया गया है। देश में बीते कुछ वर्षों से असहमति के नाम पर वितंडा खड़ा किया जा रहा है। लगातार यह हवा बनाने की कोशिश हो रही है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है। एक एजेंडे के तहत यह सब किया जा रहा है। बात का बतंगड़ बनाने वाले लोगों की पृष्ठभूमि खंगालने पर उनके सूत्र देश विरोधी ताकतों से जुड़ते हैं। अलग-अलग दिखने वाले चेहरे परस्पर जुड़े हुए हैं। छिपी हुई ताकतें लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आघात करने की ताक में हैं। चाहे अभिव्यक्ति की आजादी की बात हो, असम में राष्ट्रीय नागरिकता पंजी की बात हो, या नागरिकता संशोधन कानून हो या कथित किसान आंदोलन, हर बार विभाजनकारी ताकतों ने देश को खांचों में बांटने का कुत्सित प्रयास किया और हर बार उनके हाथ नाकामी ही लगी। लेकिन अपने प्रयासों के बावजूद ये ताकतें अपनी असलियत लंबे समय तक छिपा नहीं सकीं।
भारत में यह कहा जा रहा है कि असहमति को दबाने के लिए सरकारें राजद्रोह जैसे कड़े कानूनों को हथियार बना रही हैं। कुछ लोगों का मानना है कि केंद्र में भाजपा सरकार के आने के बाद से यह प्रवृत्ति बढ़ी है। जब भी कोई किसी मुद्दे पर सरकार की नीतियों का विरोध करता है, उसे राजद्रोह, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) या अवैध गतिविधि रोकथाम अधिनियम-1967 में फंसा दिया जाता है। विशेष रूप से सामान्य नागरिकों की स्वतंत्रता को बाधित किया जा रहा है। क्या ऐसा वास्तव में है? यदि हां, तो एक समाज के रूप में यह सबके लिए चिंता की बात है, भले ही आप वैचारिक रूप से भाजपा के समर्थक हों। यदि नहीं, तो यह अकारण विलाप कौन और क्यों कर रहा है? इन दोनों पहलुओं की समीक्षा आवश्यक है।
कोरोना काल में मनमानी
कोरोना महामारी को फैलने से रोकने के लिए देशभर में लॉकडाउन लगाया गया। शादी, पर्व-त्योहारों के दौरान धार्मिक-राजनीतिक कार्यक्रमों पर रोक लगा दी गई। मंदिर तक बंद करा दिए गए। लेकिन मुसलमानों ने मस्जिद में नमाज पढ़ना बंद नहीं किया। निजामुद्दीन में बड़ी संख्या में जुटे जमाती देशभर में घूम-घूम कर कोरोना फैलाते रहे, लेकिन सरकार की अपील के बावजूद जांच के लिए सामने नहीं आए। यहां तक कि उन्होंने कई स्थानों पर स्वास्थ्यकर्मियों, चिकित्सकों, पुलिस और सुरक्षाबलों पर हमले किए। दिल्ली की आआपा सरकार ने तो लॉकडाउन के दौरान रातोंरात अफवाहें फैलाकर हजारों प्रवासी श्रमिकों को उत्तर प्रदेश की सीमा पर छोड़ दिया। वहीं, लॉकडाउन के दौरान पंजाब के पटियाला में ड्यूटी पर तैनात एएसआई हरजीत सिंह पर तलवार से हमला कर निहंगों ने उनका हाथ काट दिया।
पश्चिमी वैज्ञानिक गैलीलियो गैलिली ने कहा था, ‘‘हजारों व्यक्तियों पर शासन करने वाली किसी व्यवस्था का विचार, एक अकेले व्यक्ति के विनम्र तर्क जितना मूल्यवान नहीं हो सकता।’’ गैलीलियो वही थे, जिन्होंने पश्चिम में ईसाई मत की अवैज्ञानिक और अतार्किक मानसिकता के विरुद्ध सबसे सशक्त असहमति व्यक्त की थी। उनके इस विचार में सबसे महत्वपूर्ण शब्द है- ‘विनम्र तर्क’। कोई समाज कितना स्वतंत्र है, उसका मानक यही है कि वहां पर असहमति को कितना स्थान प्राप्त है। गैलीलियो के अनुसार, यह असहमति ‘तर्कपूर्ण’ होनी चाहिए। कुतर्क से कोई हल नहीं निकलता, बल्कि अराजकता और भ्रम ही पैदा होता है। आधुनिक समाज पर भी यह बात लागू होती है।
पहला प्रश्न, असहमति किस विषय पर है? ताजा मामला ‘किसान आंदोलन’ का है। कथित किसान और उनके तथाकथित नेता अभी तक देश को यह समझा नहीं पाए हैं कि कृषि कानून पर उनकी असहमति क्या है? 26 जनवरी को लालकिले पर जो कुछ हुआ, उसे सबने देखा। कथित किसान आंदोलन के नाम पर कई विदेशी और विदेशों में बैठी भारत विरोधी शक्तियां सक्रिय हैं, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। देश में बड़े पैमाने पर हिंसा और अराजकता फैलाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। इसकी पूरी लिखित योजना सामने आ चुकी है, जिसे ‘टूलकिट’ कहा जा रहा है। पता चला कि जो षड्यंत्र विदेशों में बैठे कुछ लोग रच रहे हैं, उन पर अमल करने वाले कुछ चेहरे भारत में भी बैठे हैं। उन्हें इसका पूरा अनुमान था कि कथित प्रदर्शनकारी जब लालकिले पर कोहराम मचाएंगे, तब पुलिस गोली चलाने को मजबूर हो जाएगी। 2-4 दंगाई भी मर गए तो इसे ‘नरसंहार’ का नाम दे दिया जाएगा। मार खाकर भी दिल्ली पुलिस ने गोली नहीं चलाई, तब भी योजना पर अमल जारी रहा। यह बताया जाने लगा कि भारत सरकार बड़ी संख्या में किसानों की हत्याएं करवा रही है। स्पष्ट है कि मामला सरकार की किसी नीति से असहमति का नहीं है। मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से योजनाबद्ध तरीके से झूठ फैलाए गए और उनके आधार पर दुनिया में भारत की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र रचा गया। यहां न तो यह अभिव्यक्ति का मामला है और न असहमति का।
अनुच्छेद-370 के विरुद्ध अफवाह
5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटा दिया गया। इसके बाद ट्विटर पर भारत विरोधी प्रोपेगेंडा फैलाया जाने लगा। यह अफवाह फैलाकर माहौल बिगाड़ने का प्रयास किया गया कि 12 अगस्त को बकरीद के मौके पर घाटी में गोलीबारी हुई, जबकि वहां शांतिपूर्ण तरीके से त्योहार मनाया गया। इसके बाद केंद्र सरकार ने ट्विटर से कश्मीर से चलाए जाने वाले 8 अकाउंट बंद करने को कहा। यहां तक कि पाकिस्तान के समुद्री मामलों के मंत्री अली हैदर जैदी ने यह कहते हुए एक पुराना वीडियो ट्वीट किया कि कश्मीर के लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों से परेशान हैं। इस वीडियो के दो हिस्से थे। पहले में एक बच्चे के साथ महिला को लहुलूहान हालत में दिखाया गया था, जो 25 अगस्त, 2017 को पंचकूला में राम-रहीम समर्थकों के हिंसा की है। दूसरे हिस्से में 2018 में तेलंगाना के एक पुलिसकर्मी द्वारा पत्नी से मारपीट का मामला था।
ये ट्विटर हैंडल फैला रहे थे अफवाहें
दूसरा विचारणीय प्रश्न है कि क्या असहमति की कोई मर्यादा भी है? किसी लोकतंत्र में नागरिकों की व्यक्तिगत या सामूहिक असहमति का स्थान होना चाहिए। इसकी कुछ मर्यादा भी होती है। यह ठीक उसी तरह है, जैसे संविधान में नागरिकों के मूल अधिकार के साथ उनके मूल कर्तव्यों की भी बात है। असहमति यदि अधिकार है तो असहमति की मर्यादा कर्तव्य की श्रेणी में आती है। भारत में कोई अधिनायकवादी सरकार नहीं है। हर पांच साल पर चुनाव होते हैं। किसी सरकार ने निरंकुश होने का प्रयास भी किया तो जनता उसे सत्ताच्युत करने में देरी नहीं लगाती। किसी तानाशाही और लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति के तरीके एक जैसे नहीं हो सकते।
तीन तलाक पर तिलमिलाहट
तीन तलाक के विरुद्ध कानून पर कांग्रेस, असदुद्दीन ओवैसी सहित कट्टरपंथियों ने यह अफवाह फैलाने की कोशिश की कि यह कानून मुस्लिम पुरुषों को जेल में डालने की साजिश के तहत लाया गया है। कांग्रेस के अल्पसंख्यक महाधिवेशन में महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने कहा, ‘‘अगर हमारी सरकार आई, तो नरेंद्र मोदी सरकार के लाए तीन तलाक कानून को खत्म कर देंगे।’’
तीसरा प्रश्न है, असहमति की आड़ में क्या दुर्भावनापूर्ण अभियानों की छूट दी जा सकती है? भारत में नेहरूवादी कांग्रेसी एवं वामपंथी तंत्र ने लंबे समय तक शासन चलाया है। वे मानते हैं कि सत्ता उनका एकाधिकार है और उनकी मर्जी के बिना सत्ता में आया कोई व्यक्ति ‘बाहरी’ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ‘बाहरी’ होने का यह ठप्पा शुरू से ही है। कांग्रेस और उसका तंत्र भाजपा को मिले जनादेश को झुठलाने का सतत प्रयास करता रहा है। यह खुलकर बोला और लिखा जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी कोई तानाशाह हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी उनकी नीतियां भी आलोचना के दायरे में रहती हैं। कई बार ऐसी आलोचनाएं देश की संप्रभुता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती दिखती हैं। क्या ये ऐसी स्थिति के लक्षण हैं, जिसमें असहमति को कुचला जा रहा हो? उपरोक्त तीनों प्रश्नों व उनके संदर्भ से जुड़ी प्रमुख बातों से स्पष्ट है कि नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड़ में कुछ ऐसे तत्व सक्रिय हैं, जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। वे दिखाई तो ‘व्यक्ति’ के तौर पर देते हैं, पर उनके पीछे एक तंत्र सक्रिय होता है जो उन्हें धन और प्रचार बल उपलब्ध करा रहा होता है। हालांकि यह डर भी उतना ही उचित है कि इन संदिग्ध शक्तियों पर कार्रवाई के चक्कर में सरकारें और पुलिस कहीं उस लक्ष्मण रेखा को न पार करने लगें, जहां वास्तविक नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और असहमतियों का तिरस्कार होता हो।
इस संदर्भ में पहले बात न्यायपालिका की। इस विमर्श में सरकारों और जांच एजेंसियों से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका न्यायालयों की है। कहीं कोई थानेदार या सरकार किसी व्यक्ति पर अनुचित ढंग से राजद्रोह या रासुका लगाने की कार्रवाई करे तो न्यायपालिका उसे बचा सकती है। लेकिन न्यायालयों को भी समझना होगा कि देश विरोधी शक्तियां पहले से अधिक शातिर हो चुकी हैं। उन्हें बखूबी पता है कि अपनी गतिविधियों को जारी रखते हुए कानून में मौजूद प्रावधानों से कैसे बचा जाए। ये लोग छद्म आवरण ओढ़ने में माहिर होते हैं। कोई पर्यावरण कार्यकर्ता है, कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता तो कोई महिला अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। जिस दिशा रवि का नाम पिछले दिनों चर्चा में आया, कोई नहीं जानता कि उसने पर्यावरण को बचाने के लिए ऐसा कौन सा तीर मारा है। कथित किसान आंदोलन का पर्यावरण की रक्षा से क्या लेना-देना? दिशा रवि जो कुछ बोलती और करती थी, वह उसकी निजी असहमति होती तो ठीक था, लेकिन अराजकता फैलाने की जिस योजना पर वह काम कर रही थी, उसके तार खालिस्तानी संगठनों के साथ जुड़े हैं। इसके पूरे सबूत मिल चुके हैं।
हिंदू आस्था पर चोट
महिलाओं को अधिकार और समानता दिलाने के नाम पर कांग्रेस और वामपंथी दलों ने हिंदुओं की आस्था को चोट पहुंचाई व सबरीमला मंदिर की 800 साल पुरानी परंपरा को तोड़ दिया। अय्यप्पा मंदिर में ईसाई-मुस्लिम महिलाओं को प्रवेश कराने का षड्यंत्र रचा गया। यही नहीं, केरल की स्वास्थ्य मंत्री के.के. शैलजा और माकपा की बृंदा करात की अगुआई में कथित तौर पर 620 किलोमीटर लंबी ‘महिला दीवार’ बनाई गई। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को केरल की पिनराई विजयन सरकार ने विरोध के बावजूद लागू किया, जिसके बाद भाकपा (माले) की 42 वर्षीया कार्यकर्ता बिंदु ने मंदिर में प्रवेश किया।
खालिस्तानी हों, जिहादी या वामपंथी, इनका नेटवर्क बहुत दूर तक होता है। कोई एक कड़ी पकड़ में आ भी जाए तो उनके वास्तविक अभियान को साबित करना पुलिस व जांच एजेंसियों के लिए आसान नहीं होता। इन्हें बचाने के लिए महंगे-महंगे वकील दौड़े चले आते हैं। मीडिया का एक बड़ा वर्ग उनका महिमामंडन करता है। ऐसा लगता है कि यह एक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क है जो सरकारों और जांच एजेंसियों ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका और न्यायाधीशों को भी दबाव में डालने की शक्ति रखता है। अनुकूल निर्णय या टिप्पणी पर न्यायाधीशों की व्यक्तिगत प्रशंसा की जाती है। उनके नाम और फोटो अखबार में छापे जाते हैं। इसी तरह, प्रतिकूल फैसला देने पर न्यायाधीश का नाम छापकर उन्हें खलनायक बताने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। यह दोनों ही तरीके न्यायाधीशों को दबाव में लाने के लिए अपनाए जाते हैं। हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद इस प्रवृत्ति पर चिंता जता चुके हैं। दिशा रवि को जमानत देने वाले दिल्ली की स्थानीय अदालत के न्यायाधीश के बारे में इस तरह से समाचार लिखे जा रहे हैं, मानो उन्होंने कोई पत्थर की लकीर खींच दी हो, जबकि यह मुकदमा अभी भी विचाराधीन है और जांच में नए तथ्य सामने आ सकते हैं। जमानत मिलने या न्यायाधीश की किसी टिप्पणी को अपनी पसंद के अनुसार तूल देने का यह काम बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। न्यायपालिका को भी इस बात को समझना होगा। मीडिया में प्रशंसा पाने का मोह बहुत बड़ा होता है। आवश्यक नहीं कि हर न्यायाधीश स्वयं को इससे बचा पाए।
1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने बलवंत सिंह बनाम पंजाब सरकार के वाद में यह निर्णय दिया था कि हिंसा भड़काने के किसी प्रयास के बिना सिर्फ अलगाववाद या आजादी की बात करना राजद्रोह नहीं है। लेकिन उससे आगे बढ़कर न्यायालय अब ‘हिंसा भड़काने के प्रयास’ को भी नए ढंग से परिभाषित करने लगे हैं। यहां पर मीडिया की भूमिका पर भी ध्यान देना आवश्यक है। यह किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग वैचारिक रूप से कांग्रेस या वामपंथ के लिए प्रतिबद्ध है। इसमें कॉरपोरेट मीडिया भी है, जो अपने व्यापारिक हितों के अनुसार प्रतिबद्धता चुनता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश को लेकर सबसे अधिक कांव-कांव इसी वर्ग की ओर से होती है। जॉर्ज सोरोस जैसे अंतरराष्ट्रीय अराजकतावादी अरबपति भारत में वर्तमान सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
दिशा रवि का ही उदाहरण लें तो उसकी गिरफ्तारी के बाद कुछ अखबारों ने प्रतिदिन अपने 5-5 पन्ने इसी विषय को समर्पित कर दिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये पन्ने विज्ञापन की बाजार दर या उससे भी अधिक पर दिए गए होंगे, क्योंकि इन अखबारों की चिंता यदि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा होती, तो वे महाराष्ट्र में समीत ठक्कर नाम के युवक की गिरफ्तारी पर भी कम से कम एक-दो पृष्ठ तो छापते ही। समीत ठक्कर ने महाराष्ट्र सरकार का मजाक उड़ाते हुए कुछ ट्वीट किए थे। उसे चेहरा ढक कर व हाथों में रस्सी बांधकर न्यायालय में आतंकवादी की तरह प्रस्तुत किया गया। मीडिया ने समीत ठक्कर की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध एक शब्द नहीं लिखा। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसकी जमानत की याचिका पर सुनवाई करने से मना कर दिया। भारत को लेकर रेहाना, मियां खलीफा और ग्रेटा थनबर्ग के विचारों को पहले पन्ने पर स्थान मिला, लेकिन उनके अभियान के विरुद्ध जब लता मंगेशकर और सचिन तेंदुलकर ने अपने विचार व्यक्त किए तो मीडिया का एक बड़ा वर्ग उन पर टूट पड़ा। महाराष्ट्र की कांग्रेस प्रायोजित सरकार ने जांच के आदेश दे डाले। कहीं पर यह सुनने को नहीं मिला कि महाराष्ट्र सरकार नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर रही है।
बात-बात पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विलाप करने वाला भारत का मुख्यधारा मीडिया स्वयं भी कितना असहिष्णु है, इसके ढेरों उदाहरण हैं। समीत ठक्कर ने इंडिया टुडे समूह को लेकर अपने सूत्रों के आधार पर कुछ ट्वीट किए थे। इससे इंडिया टुडे समूह इतना बौखला गया कि उसने अपने आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडल से समीत ठक्कर को धमकाना शुरू कर दिया। हमारी जानकारी के अनुसार बाद में उसकी गिरफ़्तारी में भी इंडिया टुडे समूह ने अनौपचारिक रूप से बड़ी भूमिका निभाई। इसी तरह, स्ट्रिंग्स यूट्यूब चैनल के विनोद कुमार को पुलिस की सहायता से परेशान किया गया, क्योंकि उन्होंने तथ्यों के साथ बताया था कि मीडिया का एक वर्ग कुछ विदेशी शक्तियों के साथ सांठगांठ करके अराजकता फैलाने का प्रयास कर रहा है। एनडीटीवी और उसके मालिक अपने विरोध में बोलने वाले सामान्य नागरिकों और पत्रकारों को करोड़ों रुपये के मानहानि के नोटिस भेजकर डराते रहे हैं। लेकिन अपने इसी अधिकार का प्रयोग कोई व्यक्ति एनडीटीवी के विरुद्ध कर दे तो सामूहिक विलाप का एक ऐसा दृश्य पैदा कर दिया जाता है कि लगे कि उनके साथ बहुत अन्याय हो रहा है। इसी तरह, मुनव्वर फारुकी की गिरफ्तारी पर जैसा हो-हल्ला मचाया गया, वैसा हल्ला बेंगलुरु में रहने वाले अनुसूचित जाति के युवक नवीन के लिए नहीं मचा, जिसे फेसबुक पर मात्र टिप्पणी के लिए कई महीने जेल में रहना पड़ा। मुस्लिम दंगाइयों की भीड़ ने उसका घर भी जला दिया, पर नवीन के विरुद्ध हुई कार्रवाई को किसी ने व्यक्तिगत या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का मामला नहीं बताया।
सीएए और एनआरसी का विरोध
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरुद्ध देशभर में भ्रम फैलाया गया कि इसके जरिये भारतीय मुसलमानों की नागरिकता छीन ली जाएगी। राष्ट्रीय नागरिकता पंजी के बारे में कहा गया कि नागरिकता साबित नहीं करने वालों को निर्वासित कर दिया जाएगा। मुसलमानों को ‘डिटेंशन सेंटर’ भेजने की बात भी कही गई। दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, कपिल सिब्बल सहित तमाम कांग्रेसी नेता दोनों मुद्दों पर भ्रम फैला रहे थे। वहीं, शरजील इमाम ने ‘चिकन नेक’ काटने की बात कही थी। सीएए के विरुद्ध देशभर के मुसलमानों को भड़काने के लिए उसने स्थानीय मस्जिदों के इमामों की मदद से उत्तर-पूर्वी दिल्ली में अफवाहें भी फैलाई, जहां दंगे हुए। वह पॉपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया (पीएफआई) के संपर्क में था। जिहाद व इस्लामी युद्ध की धमकी देने वाली आयशा रेना व लदीदा फरजाना के अलावा सफूरा जरगर, उमर खालिद आदि भी जामिया व उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों की साजिश में शामिल थे। दिल्ली पुलिस के आरोपपत्र के अनुसार कांग्रेस की पूर्व पार्षद इशरत जहां, कार्यकर्ता खालिद सैफी, आआपा के निलंबित पार्षद ताहिर हुसैन आदि को सीएए के खिलाफ प्रदर्शन स्थलों के प्रबंधन व दंगों की साजिश को अंजाम देने के लिए 1.61 करोड़ रु. मिले थे।
ये तमाम उदाहरण बताते हैं कि चिंता नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की नहीं है। न ही सरकार की नीतियों से कोई स्पष्ट असहमति है। संविधान में दी गई इन सारी स्वतंत्रताओं का दुरुपयोग भ्रम फैलाने में किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, कृषि कानून से किसानों की जमीन छिन जाएगी, नागरिकता संशोधन कानून से मुसलमानों की नागरिकता छीन ली जाएगी इत्यादि। यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हमारे देश और समाज में कुछ विघटनकारी शक्तियां मौजूद हैं जिनके तौर-तरीके आज बहुत परिष्कृत हो चुके हैं। उनसे स्वस्थ आलोचना की आशा करना अनुचित होगा। असहमति के अधिकार की रक्षा तभी होगी, जब पता हो कि असहमति क्या है? असहमति सरकार की नीतियों से है, सरकार से है या उनकी आड़ में राष्ट्र से ही समस्या है। नक्सली और आतंकी तत्व इसी का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे में मात्र किताबी नियमों और सिद्धांतों से काम नहीं चल सकता। सरकारों और न्यायालयों को कुछ व्यावहारिक पहलू भी देखने पड़ेंगे।
किसान आंदोलन’ का सच
कृषि कानून के विरुद्ध चल रहे कथित किसान आंदोलन का सच भी लोगों के सामने आ ही गया। कथित आंदोलन से संबंधित ‘टूलकिट’ को सोशल मीडिया पर साझा करने वाले शांतनु मुलुक, दिशा रवि और निकिता जैकब सहित अन्य लोगों की गिरफ्तारी से यह साफ हो गया कि इस पूरे प्रकरण में खालिस्तानी गिरोह सक्रिय है। इन पर कनाडा स्थित खालिस्तानी संगठन ‘पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन’ और ‘सिख्स फॉर जस्टिस’ जैसे संगठन के लिए काम करने के आरोप हैं। ग्रेटा थन्बर्ग, पोर्न स्टार रेहाना भी इसी कड़ी का हिस्सा थीं।