जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी का भारतीय इतिहास में विशेष और सम्मान पूर्ण स्थान है । उन्होंने धर्म मार्ग से भटकते हुए लोगों को ज्ञानपूर्वक सही मार्ग दिखाने का प्रयास किया। उनके द्वारा स्थापित किया गया जैन धर्म संसार के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। इस धर्म का उल्लेख ‘योगवशिष्ठ’, ‘श्रीमद्भागवत’, ‘विष्णु पुराण’, ‘शाकटायन व्याकरण’, पद्म पुराण’, ‘मत्स्य पुराण’ आदि में मिलता है। प्राचीन ग्रंथों में भी जिन, जैन और श्रमण आदि नामों से मिलता है।
जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकरों के होने का उल्लेख मिलता है । इन्हीं 24 तीर्थंकरों के व्यक्तित्व और कृतित्व को अपने इतिहास का उचित माध्यम बनाकर जैनी लोग अपने इतिहास की विस्तृत रूपरेखा तैयार करते हैं। जैन धर्म वैदिक धर्म के मूल सिद्धांतों में भी विश्वास रखता है। जैसे वैदिक धर्म में आत्म संयम, तप और धैर्य आदि दिव्य गुणों को धारण कर व्यक्ति की महानता का आकलन किया जाता है या मनुष्य को महान बनने की सीख दी जाती है उसी प्रक्रिया और मार्ग को अपनाकर जैन तीर्थंकरों ने भी अपने जीवन को दूसरों के लिए अनुकरणीय बनाया। इंद्रिय संयम और आत्म विजय को जैन धर्म में विशिष्टता प्रदान की गई है। इस संबंध में कठोपनिषद का ऋषि बड़ी सुंदर बात कहता है :-
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहु: परमां गतिम्।।
जब मन के सहित पांचों ज्ञानेन्द्रियां भली प्रकार स्थित हो जाती हैं और बुद्धि चेष्टा नहीं करती उसे परमगति कहते हैं।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।
उस स्थिर इन्द्रियधारणा को ‘योग’ मानते हैं। क्योंकि तब (वह) प्रमाद रहित हो जाता है ( निश्चय ही) योग (शुभ के) उदय और (अशुभ के) अस्त वाला है।
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य साधारण रूप में जन्म लेता है, परंतु अपनी इंद्रिय संयम और आत्म विजय की साधना के बल पर वह महान बन जाता है। इस प्रकार के महान पुरुषों को ही जैन धर्म में तीर्थंकर कहा जाता है। जिनके प्रति जैन धर्मावलंबियों की बड़ी गहरी निष्ठा है। वैसे भी भारतवर्ष उच्चतम दर्जे की पवित्र आत्माओं के प्रति सम्मान व्यक्त करने वाला देश रहा है । भगवान महावीर जैन धर्म के चौंबीसवें तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म अबसे लगभग ढाई हजार वर्ष पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व) वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। महावीर स्वामी जी को ‘वर्धमान’, वीर’, ‘अतिवीर’ और ‘सन्मति’ के नाम से भी जाना जाता है।
जैन परम्परा ऋषभदेव से जैन धर्म की उत्पत्ति होना मानती है। जैन धर्म महावीर और पार्श्वनाथ से भी पूर्व प्रचलित था। महावीर स्वामी जी ने धर्म मार्ग से पतित लोगों को सत्य धर्म का दर्शन कराने का सराहनीय प्रयास किया । जो लोग सांसारिक विषय वासना और भोगों में फंसकर धर्म विमुख हो चुके थे , उन्हें सही रास्ते पर लाकर अपने समय में महावीर स्वामी जी ने एक महान क्रांति का सूत्रपात किया था। उन्होंने लोगों को कर्म बंधन से मुक्ति दिलाने और मोक्ष की ओर बढ़ने का वैदिक संदेश और उपदेश दिया। उन्होंने मुक्त को निर्वाण की संज्ञा दी है।
सम्यक विश्वास, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण
व्यक्ति की साधना को पूर्ण करते हैं। उन्हीं से जीवन महान बनता है । सम्यक का अभिप्राय विचारपूर्वक किए जाने वाले कार्य से हैं।
अपने चारों ओर शान्ति का वातावरण उत्पन्न करना का परम लक्ष्य है। इसके लिए आवश्यक है कि हमें जीवन में इंद्रिय संयम और आत्मिक जय की ओर बढ़ना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य
(1) अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेयं, (4)ब्रह्मचर्य, (5) अपरिग्रह जीवन में आत्मसात करे।
अहिंसा:- मन, वचन, कर्म तीनों से किसी भी प्राणी को कष्ट न देना अहिंसा है। महावीर स्वामी जी का मानना था कि हमारे जीवन का परम विशिष्ट लक्षण है। यदि हम मन, वचन और कर्म से दूसरों के प्रति सहनशीलता का बर्ताव करेंगे तो निश्चय ही सामाजिक परिवेश अच्छा बनेगा।
सत्य:-मन, वचन, कर्म तीनों से सत्य का प्रतिष्ठित होना सत्य है। इसे महावीर स्वामी सूनृता (सच्चा भाषण) कहते हैं। सत्य के प्रति समर्पित होना और सत्य की खोज में जीवन भर लगे रहना मानव जीवन की पराकाष्ठा है। जब जीवन इसी साधना में रत हो जाता है तो वह साधारण से असाधारण हो जाता है और संसार के प्रत्येक प्राणी का हितचिंतक हो जाता है।
अस्तेयं:-मन, वचन, कर्म तीनों से चोरी न करना। जो लोग इस प्रकार की साधना को अपना जीवन व्रत बना लेते हैं , वे संसार के लिए भूसुर बन जाते हैं ।भूसुर बनना जीवन की बहुत बड़ी साधना का परिणाम होता है। वास्तव में आज के संसार में चोरी, हिंसा ,बलात्कार जैसे अपराध इसीलिए बढ़ रहे हैं कि लोगों ने साधना के इन स्रोतों को बंद करके रख दिया है। इस प्रकार महावीर स्वामी जी की ये शिक्षाएं आज भी बड़ी प्रासंगिक हैं और यदि इन्हें आज का मानव अपना ले तो वास्तविक विश्व शांति स्थापित हो सकती है।
ब्रह्मचर्य:-शरीर में रज-वीर्य की रक्षा करते हुए लोकोपकारक विद्याओं को ग्रहण करना, मातृवत-पर-दारेषु – की भावना होना। इस प्रकार की पवित्र भावना हमें संसार में सात्विकता को बलवती करने की प्रेरणा देती हैं। जिससे सामाजिक परिवेश सुंदर ,सुव्यवस्थित और सभी के लिए सहज और सरल बना रहता है। इस प्रकार के परिवेश में जीवन बहुत ही सरलता से आगे बढ़ता है।
अपरिग्रह:-धन का संग्रह करने, रखने, खोये जाने की तीनों ही अवस्था दु:खकारी हैं, इसलिये धन संचय की इच्छा न करना अपरिग्रह है। महावीर स्वामी जी का कहना था कि आवश्यकता से अधिक संचय करना समस्याओं को आमंत्रित करना होता है। भारत के इसी प्राचीन वैदिक मूल्य को उन्होंने मानवता के लिए एक ऐसा ज्योतिपुंज बनाकर प्रस्तुत किया जिससे युग युग तक मनुष्य प्रेरणा और प्रकाश प्राप्त कर अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है।
यदि महावीर स्वामी की इन पांचों बातों पर हम विचार करें तो पता चलता है कि उन्होंने संसार को एक ऐसा अमृतोपदेश दिया जो संसार से प्रत्येक प्रकार के कष्ट और क्लेश को समाप्त करने की क्षमता और सामर्थ्य रखता है । यदि मनुष्य इन 5 गुणों को अपना लें तो संसार से सारा झूठ, फरेब, छल, कपट हिंसा,मारकाट आदि का व्यापार समाप्त हो सकता है।
क्योंकि हम देखते हैं कि संसार में जितना भर भी अपराध है वह हिंसा, लूट कपट, व्यभिचार ,अपेक्षा से अधिक धन संग्रह चोरी आदि पर ही निर्भर करता है।
सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। यह सत्य ही वह परम तत्व है जिसकी खोज के लिए मानव इस संसार में आया है । जिसके जीवन से सत्य की खोज का अनुसंधान निकल जाता है , वह जीवन निरर्थक हो जाता है ।जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है। सत्य का उपासक होना जीवन की साधना के संगीत को हृदय में सुनने की क्षमता पैदा करने के समान होता है । जो सत्य की साधना के संगीत को हृदय में सुन नहीं सकते वह मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं रह पाते हैं।
सत्य की इस साधना के उपासक के विचारों में संसार के प्रत्येक जीव के प्रति दया भावना स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। जो पूरे संसार में अहिंसक परिवेश बनाने में बड़ी सहायक होती है।
महावीर स्वामी कहते हैं कि अहिंसा के इस संदेश को अपने हृदय में अंगीकार कर मनुष्य प्रत्येक प्राणी के प्रति दयालु हो और उसकी रक्षा करना अपना धर्म समझे।
क्षमा के बारे में भगवान महावीर कहते हैं- ‘मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं क्षमा करता हूँ।’
वास्तव में ऐसा चिंतन किसी ऊँचे साधक का ही हो सकता है। जिसने संसार में आकर सकारात्मक संपत्ति को संजोना अपना जीवन लक्ष्य बनाया है और जो संसार के प्रत्येक प्राणी के प्रति मैत्री भाव रखने का अभ्यासी हो गया है, उसकी सात्विक वृत्तियों ने उसे सात्विक साधना का फल भोगने का अधिकारी बना दिया है, उसी के हृदय से ऐसे शब्द निकल सकते हैं। महावीर स्वामी ऐसे ही महान व्यक्तित्व के स्वामी थे।
वे यह भी कहते हैं ‘मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।’
ऐसे उपदेश से वह अपने मन की उस पवित्र अवस्था की ओर संकेत कर रहे हैं जिसमें किसी प्रकार का दोष नहीं रह गया है, जो पवित्र हो गया है, जिसमें शुचिता प्रवेश कर गई है और जो संसार के कल्याण में रत हो गया है, जो आत्मरस का रसिक हो गया है और जो संसार के हितचिंतन को ही अब अपना सर्वस्व समझने लगा है।
भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर भगवान महावीर ने अपना पवित्र संदेश फैलाया।
गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्णजी से पूछ लिया कि कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों में से श्रेष्ठ कौन सा है? तुम एक बार में तो कर्मयोग की प्रशंसा करते हो, तो दूसरे ही क्षण में तुम ज्ञान योग की प्रशंसा करते हो। ऐसी मिली जुली बातें क्यों करते हो? अर्थात मुझे यह स्पष्ट बताओ कि इन दोनों में से उत्तम कौन सा है? गीता का पांचवां अध्याय अर्जुन की इसी भ्रान्ति के समाधानार्थ विरचित किया गया है। अर्जुन के मुंह से ऐसी बात कहलवाकर गीताकार ने आज के साधारण व्यक्त की मानसिक परेशानी या द्वन्द्व भाव को प्रकट करने का प्रयास किया है।
अर्जुन भ्रमित हो गया करने लगा सवाल।
कर्म बड़ा या ज्ञान बड़ा बतलाओ गोपाल।।
इस स्वाभाविक प्रश्न को सुनकर श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन की शंका का समाधान करते हुए उसे समझाने का प्रयास किया। वह कहने लगे कि अर्जुन मैंने जो तुझे ज्ञानयोग और कर्मयोग के विषय में बताया है ये दोनों ही मनुष्य को नि:श्रेयस की सिद्घि या प्राप्ति कराने वाले हैं। नि:श्रेयस परमकल्याण अर्थात मोक्ष का नाम है। यदि पूर्ण श्रद्घा से व्यक्ति इन दोनों योगों में से कोई से एक को भी करने का अभ्यासी हो जाता है तो उसे परमकल्याण की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु तूने पूछा है तो मैं तुझे बताना चाहूंगा कि इन दोनों में से कर्म को त्याग देने की शिक्षा देने वाले ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग अर्थात निष्काम कर्म कहीं अधिक अच्छा है।
इससे अगले श्लोक में श्रीकृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं कि अर्जुन जो व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता, अपितु सबको अपना मानकर प्रेम करता है-सभी के प्रति सहिष्णु और सहयोगी रहता है, सहृदयी और प्रेमभाव का प्रदर्शन करने वाला रहता है, वह व्यक्ति द्वन्द्वों से परे रहता है अर्थात वह परम तपस्वी होता है। उसे किसी व्यक्ति की या वस्तु की चाह नहीं रहती। ऐसे व्यक्ति को कर्मयोगी ही समझो। क्योंकि उसके सारे कर्म निष्कामता से परिपूर्ण हैं। भाव ये है कि उसमें ईश्वर का अकामी गुण आ जाता है। वह कामनाओं को जीत लेता है। कामनाओं का अन्त कर लेना ही निष्काम भाव को अपना लेना है। ईश्वरीय गुण का अंगीकार कर लेना स्वयं में दिव्यता उत्पन्न कर लेना है।
इसे आज के सन्दर्भ में महावीर स्वामी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से जोड़कर इस प्रकार समझो कि जैसे कोई व्यक्ति देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के पास कार्य करते हुए स्वयं को शक्ति का पुंज समझने लगता है या अपने आप में विशिष्टता उत्पन्न कर लेता है-वैसे ही ईश्वर का सामीप्य पाने वाले व्यक्ति भी वैशिष्ट्य की अनुभूति करने लगते है। यद्यपि संसार में किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ कार्य करने वाले व्यक्ति की स्वयं के विषय में विशिष्टता की अनुभूति उसे घमण्डी भी बना सकती है और उससे गलत कार्य भी करा सकती है, पर इंद्रिय संयम और आत्मविजय की अनुभूति करने वाला व्यक्ति तो द्वन्द्वातीत हो जाता है। उसमें अहंकार न बढक़र अहंकारशून्यता बढ़ती है। जिससे वह अन्य विकारों की केंचुली से भी मुक्त होता जाता है और अन्त में संसार की केंचुली (आवागमन का चक्र) से भी छूट जाता है। इसे श्रीकृष्णजी कर्म बन्धन से मुक्ति कहते हैं। ईको महावीर स्वामी निर्वाण कहते हैं।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि पंडित लोग ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को अलग न मानकर एक ही मानते हैं। इसलिए ऐसे लोग अपनी जीवन नैया को भवपार लगाने के लिए इन दोनों में से किसी एक को कसकर पकड़ लेते हैं। अन्त में उन्हें दोनों का ही फल प्राप्त हो जाता है।
महावीर स्वामी जी इसी बात को अपने इंद्रिय संयम और आत्मविजय के दो शब्दों से प्रकट करते हैं।
निश्चय ही बात का राज बड़ा गहरा है। समझ लिया तो इतना सरल है कि जीवन ही बदल जाएगा और नहीं समझा तो यह भी तय है कि जीवन नर्क बन जाएगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत