कुतुब मीनार अपने मूल में है एक हिंदू स्मारक भवन
कुतुब मीनार या लौह स्तम्भ एक ऐसा स्तम्भ है जिसे निजी और धार्मिक कार्यक्रम के तहत रूपांतरित किया गया, इसे अपवित्र किया गया और हेरफेर कर इसे दूसरा नाम दे दिया गया। इतिहास में ऐसे प्रमाण और लिखित दस्तावेज हैं जिनके आधार पर यह साबित किया जा सकता है कि कुतुब मीनार एक हिंदू इमारत, विष्णु स्तम्भ है।
इसके बारे में एमएस भटनागर ने दो लेख लिखे हैं जिनमें इसकी उत्पत्ति, नामकरण और इसके इतिहास की समग्र जानकारी है। इनमें उस प्रचलित जानकारियों को भी आधारहीन सिद्ध किया गया है जो कि इसके बारे में इतिहास में दर्ज हैं या आमतौर पर बताई जाती हैं।
क्या आपको पता है कि अरबी में ‘कुतुब’ को एक ‘धुरी’, ‘अक्ष’, ‘केन्द्र बिंदु’ या ‘स्तम्भ या खम्भा’ कहा जाता है। कुतुब को आकाशीय, खगोलीय और दिव्य गतिविधियों के लिए प्रयोग किया जाता है। यह एक खगोलीय शब्द है या फिर इसे एक आध्यात्मिक प्रतीक के तौर पर समझा जाता है। इस प्रकार कुतुब मीनार का अर्थ खगोलीय स्तम्भ या टॉवर होता है।
सुल्तानों के जमाने में इसे इसी नाम से वर्णित किया जाता था। बाद में, अदालती दस्तावेजों में भी इसका इसी नाम से उल्लेख हुआ। कालांतर में इसका नाम सुल्तान कुतुबुद्दीन एबक से जोड़ दिया गया और इसके साथ यह भी माना जाने लगा है कि इसे कुतुबुद्दीन एबक ने बनवाया था।
प्रो. एमएस भटनागर, गाजियाबाद ने इस अद्वितीयी और अपूर्व इमारत के बारे में सच्चाई जाहिर की है और इससे जुड़ीं सभी भ्रामक जानकारियों, विरोधाभाषी स्पष्टीकरणों और दिल्ली के मुगल राजाओं और कुछ पुरातत्ववेताओं की गलत जानकारी को उजागर किया। वर्ष 1961 में कॉलेज के कुछ छात्रों का दल कुतुब मीनार देखने गया।
उन्होंने इतिहास में एक परास्नातक और सरकारी गाइड (मार्गदर्शक) से सवाल किए जिसके उत्तर कुछ इस तरह से दिए गए। जब गाइड से इस ‘मीनार’ को बनवाने का उद्देश्य पूछा गया तो उत्तर मिला कि यह एक विजय स्तम्भ है। किसने किस पर जीत हासिल की थी? मोहम्मद गोरी ने राय पिथौरा (पृथ्वीराज) पर जीत हासिल की थी। कहां जीत हासिल की थी? पानीपत के पास तराइन में।
तब इस विजय स्तम्भ को दिल्ली में क्यों बनाया गया? गाइड का उत्तर था- पता नहीं। इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के एक लेक्चरर (जो कि भ्रमण के लिए आए थे) ने जवाब दिया। विजय स्तम्भ को गोरी ने शुरू करवाया था क्योंकि दिल्ली उसकी राजधानी थी। लेकिन गोरी ने दिल्ली में कभी अपनी राजधानी नहीं बनाई क्योंकि उसकी राजधानी तो गजनी में थी। फिर दिल्ली में विजय स्तम्भ बनाने की क्या तुक थी? कोई जवाब नहीं।
अगर इमारत को गोरी ने शुरू कराया था तो इसका नाम गोरी मीनार होना चाहिए, कुतुब मीनार नहीं। इसे कुतुब मीनार क्यों कहा जाता है। इसके जवाब में कहा जाता है कि इस इमारत का निर्माण शुरू करने वाला कुतुबद्दीन एबक मोहम्मद गोरी का गुलाम था और उसने अपने मालिक के लिए इसकी नींव रखी थी।
अगर यह तर्क सही है तो उसने विजय स्तम्भ के लिए दिल्ली को ही क्यों चुना? उत्तर है कि दिल्ली कुतुबुद्दीन एबक की राजधानी थी। अब सवाल यह है कि इस मीनार का निर्माण गोरी के जीवनकाल में शुरू हो गया था, वह जीवित था तो फिर उसके गुलाम ने दिल्ली को कैसे अपनी राजधानी बना लिया था?
विदित हो कि गोरी की मौत के बाद कुतुबुद्दीन को लाहौर में सुल्तान बनाया गया था। उसने लाहौर से शासन किया, दिल्ली से नहीं और अंतत: उसकी मौत भी लाहौर में हुई। जब उसकी राजधानी लाहौर थी तो उसने दिल्ली में विजय स्तम्भ क्यों बनाया? भीड़ में से किसी ने ज्ञान दर्शाया कि मीनार एक विजय स्तम्भ नहीं है, वरन एक ‘मजीना’ है।
एक मस्जिद में मुअज्जिन का टॉवर है जिस पर से अजान दी जाती थी और यह ‘कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद’ से जुड़ा था। पर भारत के समकालीन इतिहास में ‘कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद’ का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
इस शब्द को उन्नीसवीं सदी में सर सैय्यद अहमद खान ने गढ़ा था। इस बात को लेकर आश्चर्यचकित ना हों कि भारतीय इतिहास में ‘कुतुब मीनार’ जैसा कोई शब्द नहीं है। यह हाल के समय का एक काल्पनिक तर्क है कि यह मीनार मुअज्जिन का टॉवर है। अगर ऐसा है तो मस्जिद का प्राथमिक महत्व है और टॉवर का द्वितीयक महत्व है।
दुर्भाग्य की बात है कि इसके पास एक मस्जिद खंडहरों में बदल चुकी है। लेकिन तब इसका मुअज्जिन का टॉवर क्यों शान से खड़ा है? इस सवाल का कोई जवाब नहीं। हकीकत तो यह है कि मस्जिद और मजीना एक पूरी तरह बकवास कहानी है।
तथाकथित कुतुब मीनार और खंडहर हो चुकी जामा मस्जिद के पास मीनार को बनाने वाले एक नहीं हो सकते हैं। कुतुब मीनार एक बहुत अधिक पुराना टॉवर है। फिर मीनार पर कुरान की आयतों को क्यों अंकित किया गया है?
मीनार पर अंकित कुरान की आयतें एक जबर्दस्ती और निर्जीव डाली हुई लिखावट है जो कि पूरी तरह से हिंदू डिजाइन के सुंदर चित्रवल्लरी वाली धारियों पर ऊपर से लिखी गई हैं। कुरान की आयतों के लिहाज से इसे मुस्लिम मूल की ठहराना ठीक इसी तरह होगा जैसा कि किसी गैर-मुस्लिम का खतना कर उसे मुसलमान बना दिया जाए।
यह मीनार वास्तव में ध्रुव स्तम्भ है या जिसे प्राचीन हिंदू खगोलीय वेधशाला का एक मुख्य निगरानी टॉवर या स्तम्भ है। दो सीटों वाले हवाई जहाज से देखने पर यह टॉवर 24 पंखुड़ियों वाले कमल का फूल दिखाई देता है। इसकी एक-एक पंखुड़ी एक होरा या 24 घंटों वाले डायल जैसी दिखती है। चौबीस पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की इमारत पूरी तरह से एक हिंदू विचार है। इसे पश्चिम एशिया के किसी भी सूखे हिस्से से नहीं जोड़ा जा सकता है जोकि वहां पैदा ही नहीं होता है।
इस इमारत की लम्बवत प्रोजेक्शन लाइन्स जो कि टॉवर की प्रत्येक स्टोरी के शीर्ष पर बनी पत्थरों पर बारीक कारीगरी के मध्य बिंदुओं से लेकर इसके आधार पर बने क्षैतिज समधरातल पर एक कमल के फूल का निर्माण करते हैं जो कि टॉवर शीर्ष के ऊपर आसमान से देखा जा सकता है। ध्रुव स्तंभ का यह कमल के रूप में उठा हुआ भाग अतीत के किसी वास्तुविद या पुरातत्ववेत्ता के द्वारा सोचा या बनाया नहीं जा सकता है। आप कह सकते हैं कि ध्रुव स्तम्भ को मोहम्मद गोरी या कुतुबुद्दीन एबक का निर्माण बताने का कोई प्रश्न नहीं है। जिन सुल्तानों का इस मीनार के साथ नाम जुड़ा है, उन्होंने इसके आवरण को नष्ट कर दिया, जिन पत्थरों पर मनुष्य या पशुओं के आकार बने थे, उन्हें उलटा कर दिया और इन पर अरबी में लिखावट को उत्कीर्ण कर डाला।
वास्तव में, इन सुल्तानों की इस बात के लिए प्रशंसा नहीं की जा सकती है कि उन्होंने मीनार बनाई। किसी भी व्यक्ति ने इस आशय का लेख, अभिलेख या शिलालेख छोड़ा है कि उसने इस मीनार के बनवाने की शुरुआत कराई।
कुतुब मीनार को लेकर ही इस बात के बहुत अधिक प्रमाण हैं कि यह एक हिंदू टॉवर था जो कि कुतुबुद्दीन से भी सैकड़ों वर्षों पहले मौजूद था। इसलिए इसका नाम कुतुबुद्दीन से जोड़ना गलत होगा। कुतुब मीनार के पास जो बस्ती है उसे महरौली कहा जाता है। यह एक संस्कृत शब्द है जिसे मिहिर-अवेली कहा जाता है। इस कस्बे के बारे में कहा जा सकता है कि यहां पर विख्यात खगोलज्ञ मिहिर (जो कि विक्रमादित्य के दरबार में थे) रहा करते थे। उनके साथ उनके सहायक, गणितज्ञ और तकनीकविद भी रहते थे। वे लोग इस कथित कुतुब टॉवर का खगोलीय गणना, अध्ययन के लिए प्रयोग करते थे।
इस टॉवर के चारों ओर हिंदू राशि चक्र को समर्पित 27 नक्षत्रों या तारामंडलों के लिए मंडप या गुंबजदार इमारतें थीं। कुतुबुद्दीन के एक विवरण छोड़ा है जिसमें उसने लिखा कि उसने इन सभी मंडपों या गुंबजदार इमारतों को नष्ट कर दिया था, लेकिन उसने यह नहीं लिखा कि उसने कोई मीनार बनवाई।
जिस मंदिर को उसने नष्ट भ्रष्ट कर दिया था, उसे ही कुव्वत-अल-इस्लाम मस्जिद का नाम दिया। तथाकथित कुतुब मीनार से निकाले गए पत्थरों के एक ओर हिंदू मूर्तियां थीं जबकि इसके दूसरी ओर अरबी में अक्षर लिखे हुए हैं। इन पत्थरों को अब म्यूजियम में रख दिया गया है।
इससे यह बात साबित होती है कि मुस्लिम हमलावर हिंदू इमारतों की स्टोन-ड्रेसिंग या पत्थरों के आवरण को निकाल लेते थे और मूर्ति का चेहरा या सामने का हिस्सा बदलकर इसे अरबी में लिखा अगला हिस्सा बना देते थे। बहुत सारे परिसरों के खम्भों और दीवारों पर संस्कृत में लिखे विवरणों को अभी भी पढ़ा जा सकता है। कॉर्निस में बहुत सारी मूर्तियों को देखा जा सकता है लेकिन इन्हें तोड़फोड़ दिया गया है।
यह टॉवर आसपास की इमारतों का हिस्सा है। ऐसा नहीं है कि पहले की हिंदू इमारतों के चारों ओर काफी जगह होती थी और यह जगह पर्याप्त थी कि कुतुबुद्दीन आए और इसमें एक टॉवर बना दे, लेकिन स्तम्भ की अलंकृत शैली यह सिद्ध करती है कि यह एक हिंदू इमारत है। मुस्लिम मीनारों की धरातल पूरी तरह समतल होता है। जो लोग यह तर्क करते हैं कि इस टॉवर का उपयोग मुस्लिमों की अजान के लिए होता था, तो ऐसे लोग कभी इसके ऊपर तक नहीं गए हैं और उन्होंने ऊपर से नीचे रहने वाले के लिए कभी चिल्लाकर नहीं देखा होगा।
अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्हें पता लग जाता कि इतनी ऊंचाई से बोले गए शब्दों को नीचे खड़ा आदमी सुन ही नहीं सकता है। इस तरह के बेहूदा और मूर्खतापूर्ण दावे प्राचीन हिंदू इमारतों को इस्लामी बनाने के लिए किए गए हैं। इस बारे में एक महत्वपूर्ण विचार यह भी है कि टॉवर का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है, पश्चिम में नहीं, जबकि इस्लामी धर्मशास्त्र और परम्परा में पश्चिम का महत्व है।
प्रवेश द्वार के एक ओर पत्थर का कमल का फूल बना है जो कि यह सिद्ध करता है कि यह एक हिंदू इमारत थी। मध्यकालीन इमारतों में पत्थरों के फूल बनाना एक प्रमुख हिंदू परम्परा रही है। मुस्लिम कभी भी इमारतें बनाते समय इस तरह के फूल नहीं बनाते हैं। टॉवर पर चित्र वल्लरी पर नमूनों में इनमें मिलावट नजर आती है, ये एकाएक समाप्त हो जाते हैं या बेमेल लाइनों का घालमेल नजर आता है। कमल की कलियों जैसे हिंदू रूपांकन के बीच में अरबी के अक्षरों को फैला दिया गया है।
एक कट्टर मुस्लिम और विद्वान सैयद अहमद खान स्वीकार करते हैं कि यह मीनार एक हिंदू इमारत है। अगर आप टॉवर के शीर्ष पर एक एयरोप्लेन से देखें तो आपको विभिन्न गैलरियां ऊपर से नीचे तक एक दूसरे में फिसलती नजर आती हैं और ये एक 24 पंखुड़ी वाले किसी पूरी तरह से खिले कमल की तरह दिखाई देती हैं।
विदित हो कि 24 का अंक वैदिक परम्परा में पवित्र माना जाता है क्योंकि यह 8 का गुणनफल होता है। टॉवर की इंटों का लाल रंग भी हिंदुओं में पवित्र समझा जाता है। इस टॉवर का नाम विष्णु ध्वज या विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ के तौर पर जाना जाता था जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह खगोलीय प्रेक्षण टॉवर था।
पास में ही जंग न लगने वाले लोहे के खम्भे पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत में लिखा है कि विष्णु का यह स्तम्भ विष्णुपाद गिरि नामक पहाड़ी पर बना था। इस विवरण से साफ होता है कि टॉवर के मध्य स्थित मंदिर में लेटे हुए विष्णु की मूर्ति को मोहम्मद गोरी और उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ने नष्ट कर दिया था। खम्भे को एक हिंदू राजा की पूर्व और पश्चिम में जीतों के सम्मानस्वरूप बनाया गया था।
टॉवर में सात तल थे जोकि एक सप्ताह को दर्शाते थे, लेकिन अब टॉवर में केवल पांच तल हैं। छठवें को गिरा दिया गया था और समीप के मैदान पर फिर से खड़ा कर दिया गया था। सातवें तल पर वास्तव में चार मुख वाले ब्रह्मा की मूर्ति है जो कि संसार का निर्माण करने से पहले अपने हाथों में वेदों को लिए थे।
ब्रह्मा की मूर्ति के ऊपर एक सफेद संगमरमर की छतरी या छत्र था जिसमें सोने के घंटे की आकृति खुदी हुई थी। इस टॉवर के शीर्ष तीन तलों को मूर्तिभंजक मुस्लिमों ने बर्बाद कर दिया जिन्हें ब्रह्मा की मूर्ति से घृणा थी। मुस्लिम हमलावरों ने नीचे के तल पर शैय्या पर आराम करते विष्णु की मूर्ति को भी नष्ट कर दिया।
लौह स्तम्भ को गरुड़ ध्वज या गरुड़ स्तम्भ कहा जाता था। यह विष्णु के मंदिर का प्रहरी स्तम्भ समझा जाता था। एक दिशा में 27 नक्षत्रों के मंदिरों का अंडाकार घिरा हुआ भाग था। लाल पत्थरों का एक विशाल, अलंकृत दरवाजा एक पवित्र क्षेत्र को जाता था जिसे नक्षत्रालय कहा जाता था। इसलिए परम्परागत रूप से मुख्य द्वार को आलय-द्वार के तौर पर जाना जाता है।
कनिंगघम जैसे इतिहासकार इस दरवाजे को फर्जी तरीके से सुल्तान अलाउद्दीन से जोड़ते हैं हालांकि स्वयं अलाउद्दीन की ओर से ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है।
सवाल यह है कि अलाउद्दीन के समय में यह स्थान पूरी तरह से चूर-चूर होते खंडहरों में बदल चुका था। ऐसी हालत में अलाउद्दीन को क्यों ऐसी जगह पर एक शानदार अलंकृत दरवाजा बनाने की सूझी होगी जो कि कहीं से कहीं तक नहीं पहुंचता था? इसे मुअज्जिन का टॉवर बताना भी सफेद झूठ है। कोई भी मुअज्जिन एक दिन के लिए भी 365 संकरी और घूमती हुई अंधेरी सीढि़यों पर चढ़ने-उतरने का साहस नहीं करेगा। ऐसे आदमी के निश्चित तौर पर गिरकर मर जाने की संभावना होगी।
समीपवर्ती तथाकथित कुव्वल-अल-इस्लाम मस्जिद का भी मेहराबदार द्वार भी गुजरात में पाए जाने वाले मंदिरों में पाए जाने वाले द्वारों से अलग नहीं है। इस इमारत की चित्रवल्लरी का स्वरूप भी विकृत करने की गवाही देता है और सिद्ध करता है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मंदिरों के पत्थरों का मस्जिदों को बनाने में उपयोग किया।
टॉवर का घेरा ठीक ठीक तरीके से 24 मोड़ देने से बना है और इसमें क्रमश: मोड़, वृत की आकृति और त्रिकोण की आकृतियां बारी-बारी से बदलती हैं। इससे यह पता चलता है कि 24 के अंक का सामाजिक महत्व था और परिसर में इसे प्रमुखता दी गई थी। इसमें प्रकाश आने के लिए 27 झिरी या छिद्र हैं। यदि इस बात को 27 नक्षत्र मंडपों के साथ विचार किया जाए तो इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि टॉवर खगोलीय प्रेक्षण स्तम्भ था।
टॉवर के निर्माण में बड़े-बड़े शिलाखंडों को एक साथ जोड़कर रखने के लिए इन्हें लोहे की पत्तियों से बांध दिया गया है। इसी तरह की पत्तियों को आगरे के किले को बनाने में इस्तेमाल किया गया है। मैंने (भटनागर) अपनी पुस्तक ‘ताज महल एक राजपूत महल था’ में किलों की उत्पत्ति के बारे में विस्तार से लिखा है और यह सिद्ध किया है कि यह मुस्लिमों के समय से पहले मौजूद था। इससे यह भी सिद्ध होता है कि बड़ी इमारतों में पत्थरों को जोड़े रखने के लिए लोहे की पत्तियों का प्रयोग करना एक हिंदू विधि थी। यही विधि तथाकथित दिल्ली की कुतुब मीनार में भी इस्तेमाल की गई है।
इसके साथ यह भी सिद्ध होता है कि कुतुब मीनार एक मुस्लिमों के भारत में आने से पहले की इमारत है। अगर 24 पंखुड़ी वाले कमल को इसके केन्द्र से ऊपर की ओर खींचा जाता है तो इस तरह का एक टॉवर बन जाएगा। और कमल का स्वरूप कभी भी मुस्लिम नहीं होता है।
(साभार : हिन्दू जागृति से)