ओ३म्
=========
सभी प्राणी योनियों में मनुष्य सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। मनुष्य ज्ञान अर्जित कर सकता है परन्तु अन्य प्राणी, पशु व पक्षी आदि, ज्ञान प्राप्त कर उसके विश्लेषण द्वारा वह लाभ प्राप्त नहीं कर सकते जो कि मनुष्य करता है। इसलिये मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी माना जाता है। मनुष्य संसार में आया है तो इसका कोई प्रयोजन अवश्य होगा? यह प्रयोजन जानना मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है।
धर्म शब्द व इसके अर्थ पर विचार करते हैं। धर्म वह गुण, कर्म व स्वभाव होते हैं जो मनुष्य के धारण योग्य हों। धारण करने योग्य वह गुण हैं जो मनुष्य को पतन से बचाकर उन्नति के पथ पर आरूढ़ करें और विद्या प्राप्त करवाकर उसके द्वारा उसे दुःख से मुक्त कर इस जन्म की तुलना में भविष्यकाल में अधिक उत्तम मनुष्य जन्म व मुक्ति दिला सके। वेदों में आत्मा की उन्नति के मार्ग व उपाय बताये गये हैं। मनुष्य को क्या धारण करना है, इसका उत्तर है कि मनुष्य को सत्य धर्म को धारण करना है। सत्य धर्म वह है जो मनुष्य का अज्ञान वा अविद्या दूर कर उसे ईश्वर, जीवात्मा, धर्म, मोक्ष के ज्ञान सहित मनुष्य के उत्तम कर्तव्यों का मार्ग बताये। वेद तथा ऋषियों के अनेक ग्रन्थों उपनिषद एवं दर्शन सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों के अध्ययन से ईश्वर को जाना जा सकता है। आर्यसमाज का दूसरा नियम सूत्ररूप में ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव का चित्रण करता है। इस नियम में कहा गया है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ जीवात्मा के सत्य एवं तर्कसंगत स्वरूप पर विचार करें तो यह सत्य, चेतन, निराकार, अल्पज्ञ, सीमित शक्ति से युक्त, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर, अविनाशी, एकदेशी, ईश्वर से व्याप्य आदि गुणों वाला है। ईश्वर से आत्मा का सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक तथा उपास्य-उपासक का है। ईश्वर हमारा माता, पिता, बन्धु, सखा, मित्र, आचार्य, राजा व न्यायाधीश, जन्म-मृत्यु का देने वाला, कर्म-फल दाता, सन्मार्ग का प्रेरक एवं दुःख-निवारक आदि हैं। अतः हमें ईश्वर के स्वरूप व गुणों को जानकर उनका चिन्तन, मनन, ध्यान, धारण, आचरण, प्रचार करने सहित उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है। ऐसा करने से मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा का सद्ज्ञान प्राप्त करने सहित साक्षात्कार भी कर सकते है। मनुष्य शुभ-कर्मों को करने सहित उपासना पर जितना अधिक ध्यान देगा, उसे उतना ही अधिक लाभ होगा।
संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं परन्तु ईश्वर का सत्य व यथार्थ ज्ञान वेद, वैदिक साहित्य एवं वैदिक धर्म में ही उपलब्ध है। उपासना के लिये भी ऋषि पतंजलि का योगदर्शन एवं ऋषि दयानन्द रचित संन्ध्या व देवयज्ञ की पद्धति सर्वोत्तम हैं। ईश्वर की उपासना के साधन व उपाय करने से मनुष्य को जीवन में अनेक लाभ होते हैं। इससे साधक मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है, शरीर स्वस्थ रहता है तथा देश व समाज भी उससे लाभान्वित होते हैं। उपासना की सर्वोत्तम पद्धति वैदिक पद्धति ही है। वेद ईश्वर की वाणी है, उसका उच्चारण करने से व उनके अर्थों के ज्ञान व पाठ करने से ईश्वर से निकटता सम्पादित होती है। अन्य मतों में ऐसा नहीं होता। वेदेतर किसी मत में ईश्वर के सत्यस्वरूप का उतना विशद वर्णन व ज्ञान उपलब्ध नहीं होता जितना वेद व ऋषियों सहित आर्य विद्वानों के अनेक ग्रन्थों से होता है। हम समझते हैं कि ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा उसके गुण, कर्म व स्वभाव का लगभग पूर्ण वा पर्याप्त ज्ञान वैदिक धर्म को जानने व पालन करने से हो जाता है। देवयज्ञ अग्निहोत्र की लाभकारी विधि का ज्ञान केवल वेदानुयायियों को ही है। उसका क्रियात्मक आचरण भी मुख्यतः आर्य वैदिक धर्मी ही विश्व में करते हैं। इससे जो लाभ होता है वह यज्ञ करने से यज्ञकर्ताओं को ही होता है। अन्य मत-मतान्तरों के लोग इससे सर्वथा अनभिज्ञ एवं वंचित हैं। ऋषियों ने शास्त्रों में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म की संज्ञा दी है। यह भी कहा है कि सुख व स्वर्ग की कामना की पूर्ति के लिये यज्ञ ही सबसे मुख्य उपाय है। ऋषियों का विधान है कि सभी मनुष्यों को अपने जीवन की उन्नति के लिये प्रतिदिन प्रातः व सायं गोघृत व साकल्य की न्यूनतम 16 आहुतियां यज्ञाग्नि में देनी चाहिये। ऐसा करके वह पापमुक्त होता है। हमारे निमित्त अर्थात् खान-पान व रहन-सहन से जितना वायु, जल व पर्यावरण का प्रदुषण होता है उतनी ही मात्रा में हमें पाप लगता है। यह पाप यज्ञ करने से ही दूर होता है। वैदिक पद्धति से अग्निहोत्र-यज्ञ वर्तमान समय में केवल ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज के अनुयायी ही करते हैं। इसलिये आर्यों का भविष्य व भावी जीवन यज्ञ के परिणाम से सुखदायक होकर दुःखों से रहित होता है। इन कारणों से वैदिक धर्म ही सभी मत-मतान्तरों की तुलना में श्रेष्ठ व आचरणीय है। हमें वेदों की आत्मा व भावना के अनुरूप आचरण व व्यवहार करना चाहिये। ऐसा करने से हमें इसका लाभ प्राप्त होगा।
वैदिक धर्म में सत्य व्यवहार पर विशेष बल दिया जाता है। अनेक मत ऐसे हैं जहां के मताचार्य सत्य का व्यवहार नहीं करते। वहां दूसरे मतों के प्रति छल व कपट का व्यवहार किया जाता है। अनेक मतों में पशुओं का मांस खाने की प्रेरणा मिलती है व उनके अधिकांश अनुयायी ऐसा करते भी हैं। वैदिक धर्म मांसाहार, अण्डो का सेवन, धूम्रपान, व किसी भी प्रकार के सामिष भोजन का निषेध करता है। वैदिक धर्म में यहां तक विधान है कि हमें अपनी पवित्र कमाई वा साधनों से भोजन प्राप्त करना चाहिये। किसी के प्रति शोषण एवं अन्याय करने का भी वैदिक धर्म में निषेध है। अन्य मतों में दूसरे मत के लोगों व इतर प्राणियों को पीड़ित व कष्ट देने सहित अनेक प्रकार की हानि पहुंचाने तक का विधान है। कुछ मत ऐसे भी हैं जो छद्म व्यवहार कर लोभ व भय से मतान्तरण वा धर्मान्तरण करते हैं। वैदिक मत असत्य मतों के मानने वालों को सत्य का प्रचार कर उनकी शुद्धि करने का विधान करता है। ऐसे अनेक कारण बतायें जा सकते हैं जिससे वैदिक धर्म ही संसार का उत्तम धर्म सिद्ध होता है। वैदिक धर्म को अपनाने से पुनर्जन्म में उन्नति होती है। कुछ मत ऐसे भी हैं जो अज्ञान के कारण पुनर्जन्म को नहीं मानते हैं। अतः ज्ञानी व विवेकी व्यक्ति को वेदाध्ययन करने सहित सत्यार्थप्रकाश का गम्भीरता से अध्ययन कर सत्य को स्वीकार और असत्य का त्याग करना चाहिये। इससे उसे जन्म-जन्मान्तरों में लाभ होगा। हम ईश्वरीय व्यवस्था से दुःखों से बच सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य