प्रीति रीति की नीति और आत्मा का संकेत

 

संसार में एक व्यक्ति मुमुक्षु है एक मुमूर्षु है। मुमुक्षु वह है जो मुक्त की इच्छा लेकर चलता है, मोक्षाभिलाषी है और जो संसार के सारे बंधनों को काटकर ईश्वर के प्रति प्रीति पैदा करने का प्रयास करता रहता है। मुमूर्षु वह है जो मृत्यु की इच्छा करता रहता है, मृत्यु का चिंतन करता रहता है, मृत्यु के भय से भयभीत रहता है कि मृत्यु आएगी और मुझे खा जाएगी । इससे पहले कि मृत्यु आए मुझे अपने बेटे के लिए यह कर देना चाहिए, बेटी के लिए वह कर देना चाहिए और पत्नी के लिए इतना पैसा बैंक में डाल देना चाहिए ?

 

वह मृत्यु से डरता हुआ मृत्यु से पहले की तैयारी करता रहता है कि मैं बहुत कुछ कमा लूं, बहुत कुछ जोड़ लूं अपनी सात पीढ़ियों के लिए धन इकट्ठा कर जाऊं। ऐसा आदमी बहुत कुछ करता है परंतु अन्त में इसके हाथ कुछ नहीं आता । जैसा आया था वैसा ही जाता है। हां, अपने पाप कर्मों की कमाई अवश्य साथ लेकर जाता है।
मुमुक्षु मोक्ष की आशा करता है, मुक्ति की साधना करता है ,प्राण की साधना करता है, प्राण की साधना करते – करते मोक्ष के चिंतन को बढ़ाते- बढ़ाते मोक्षाभिलाषी होते -होते वह मोक्ष को प्राप्त होता है।
बहुत बड़ी पूंजी लेकर वह संसार से जाता है। इतनी बड़ी पूंजी कि जो करोड़ों वर्ष तक खर्च करने के उपरांत भी खर्च नहीं हो पाती। यह अव्यय पूंजी है। इस पूंजी के कमाने और साथ रखने में कितना आनंद है ,यह वही जानता है – जिसके पास यह पूंजी होती है ?और जो मृत्यु का चिंतन करता है वह मुमूर्षु मृत्यु को प्राप्त होता है ।
बड़े आश्चर्य की बात है कि ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यो: – अर्थात जो जन्मा है उसकी मृत्यु अटल है ,निश्चित है – को समझकर भी मुमूर्षु यह नहीं समझ पाता कि तू जो कुछ भी कर रहा है वह सब उचित नहीं है । वह उस वचन का उल्लंघन है, भंग है, जो वह इस संसार में आते समय परमपिता परमेश्वर को देकर आया था कि इस बार मनुष्य योनि में जाकर शुभ कर्म करूंगा और शुभ कर्मों की बड़ी पूंजी लेकर आपकी चरण शरण में लौटूंगा।
ऐसा अज्ञानी मानव जोड़ने -जोड़ने की इच्छा में लगा रहता है। वह सोचता रहता है कि मृत्यु आ जाएगी ? उसके बाद क्या होगा ? जितना ही वह इस चिंतन को करता जाता है उतना ही वह और भी अधिक जोड़ने जोड़ने की इच्छा को पालता जाता है। वह कीचड़ में फंसता जाता है । दलदल में धंसता जाता है और मुमुक्षु अपने चिंतन के माध्यम से इस कीचड़ से बाहर निकलता जाता है, ऊपर उठता जाता है और अंत में दोनों अपनी -अपनी गति को प्राप्त हो जाते हैं।
संसार में रहते हुए मुमुक्षु की इच्छा हो जाती है कि वह संसार के प्रति दूरी बना कर रहे। वह ‘छोड़ने छोड़ने’ की प्रवृत्ति का अभ्यासी हो जाता है। इसलिए जब मृत्यु समय आता है तो वह बड़े आराम से अपने प्राणों को बाहर निकाल देता है । जबकि मुमूर्षु को अंतिम क्षणों में अत्यंत पीड़ा होती है । उसका कारण केवल एक है कि वह कभी प्राणाभ्यासी नहीं बन पाया। वह सदा प्राणानुष्ठान से बचने का प्रयास करता रहा। जबकि मुमुक्षु प्राणाभ्यासी बनकर प्राणानुष्ठान करके आत्मज्ञान को प्राप्त कर गया। वह समझ गया कि मेरे आत्मा के समान आत्मा का वास सभी जीवधारियों में है, इसलिए वह हिंसा व क्रोध से अपने आपको बचा कर चलने में सफल हो गया । यही कारण रहा कि वह क्रोधज और कामज दोषों से मुक्ति पा गया । जबकि
मुमूर्षु इनमें फंसा रह गया , धंसा रह गया, खड़ा रह गया और मुमुक्षु कहीं आगे निकल गया, इतना आगे कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
मुमूर्षु सारे जीवन दूसरों के दोषों को देखता रहा। उन पर उंगली उठाता रहा। परछिद्रान्वेषी होते होते वह स्वयं दोषों से भर गया । अपनी सारी सकारात्मक ऊर्जा, सोच और चिंतन को उसने परदोष छिद्रान्वेषण में समाप्त कर दिया। जबकि मुमुक्षु सारे जीवन अपने दोषों को देखता रहा और उनका निवारण करने में अपनी प्राण शक्ति का , सारी ऊर्जा का प्रयोग करता रहा। बस इस छोटे से अंतर ने दोनों को बदल कर रख दिया। एक व्यक्ति दूसरे की गलतियां खोजता व देखता रहा और दूसरा जिंदगी की झलकियां खोजता व देखता रहा। एक जीवन की घुमावदार घाटियों में फंसकर भटक कर रह गया, लेकिन दूसरा इनको पार कर गया। जिसने प्राण को त्राण का साधन बना लिया वह कल्याण मार्ग को पाकर मुमुक्षु बनकर आगे बढ़ गया और जो प्राण को न समझ सका और न ही प्राण को त्राण का साधन बना सका, वह इन घुमावदार घाटियों में धोखा खा गया, और इन्हीं में गिरकर अपने जीवन का अंत कर गया।
मुमुक्षु ईश्वर से प्रीति की रीति को निभाने का अभ्यासी हो गया और उसे नीति युक्त व्यवहार करना आ गया। प्रीति, रीति और नीति तीनों को समझने वाला आगे बढ़ा और जो प्रीति की रीति को निभा नहीं सका व अनीतियों में फंसा रह गया, इसलिए सबका प्रीति भाजन नहीं बन सका , वह न तो आत्मकल्याण कर सका और न ही संसार का कल्याण कर सका।
आत्मा का हमारे लिए संकेत है कि प्रीति – रीति की इस नीति को समय रहते समझ जाओ! इसी में आनंद है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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