प्राचीन भारत था चीन के लिए स्वर्ग के समान
अनिरुद्ध जोशी
चीन का इतिहास बहुत ही प्राचीन है लेकिन चीन कभी भी प्राचीन काल में उतना समृद्ध नहीं रहा जितना की भारत रहा है। चीन ने भारत से बहुत कुछ सीखा। चीन ने भारत से ज्ञान, धर्म, और संस्कृति के सूत्रों को ग्रहण किया तो भारत ने भी चीन के वस्त्र, कागज, खानपान और परंपरा को अपनाया। आओ जानते हैं चीन के इतिहास और संस्कृति के कुछ सूत्र।
प्राचीन चीन का भूगोल : चीन के इतिहास को समझने के लिए सबसे पहले यह समझना होगा की चीन का भौगोलिक क्षेत्र क्या था, क्योंकि वर्तमान में हम जिसे चीन कहते हैं असल में उसमें तिब्बत, ताईवान, मंगोलिया और तुर्कमेनिस्तान के कई हिस्से शामिल है। प्राचीन काल में चीन से भारत के किसी भी क्षेत्र की सीमा नहीं लगती थी। प्राचीन काल में भारतीय संदर्भों के अनुसार चीन को हरिवर्ष कहा जाता था जो जम्बूद्वीप के 9 प्रमुख देश में से एक था। वर्तमान में जम्बूद्वीप के 9 देश थे उसमें से 3 थे- हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष। उक्त तीनों देशों को मिलाकर आज इस स्थान को चीन कहा जा सकता है। हालांकि कुछ हिस्से इसके नेपाल, तिब्बत में हैं।
मात्र 500 से 700 ईसापूर्व ही चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष का एक क्षेत्र माना जाता था। कई जगह पर इसे कामरूप के नाम से भी इंगित किया गया है। महाभारत के सभापर्व में भारतवर्ष के प्राग्यज्योतिष (पुर) प्रांत का उल्लेख मिलता है। हालांकि कुछ विद्वानों के अनुसार प्राग्यज्योतिष आजकल के असम (पूर्वात्तर के सभी 8 प्रांत) को कहा जाता था। इन प्रांतों के क्षेत्र में चीन का भी बहुत कुछ हिस्सा शामिल था।
रामायण बालकांड (30/6) में प्राग्यज्योतिष की स्थापना का उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में इस प्रांत का दूसरा नाम कामरूप (किंपुरुष) मिलता है। स्पष्ट है कि रामायण काल से महाभारत कालपर्यंत असम से चीन के सिचुआन प्रांत तक के क्षेत्र प्राग्यज्योतिष ही रहा होगा, जिसे कामरूप भी कहा गया। कालांतर में इसका नाम बदल गया।
कालांतर में महाचीन ही चीन हो गया और प्राग्यज्योतिषपुर कामरूप होकर रह गया। यह कामरूप भी अब कई देशों में विभक्त हो गया। कामरूप से लगा ‘चीन’ शब्द लुप्त हो गया और महाचीन में लगा ‘महा’ शब्द हट गया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग और अलबरूनी के समय तक कभी कामरूप को चीन और प्राचीन चीन को महाचीन कहा जाता था। अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य ने भी ‘चीन’ शब्द का प्रयोग कामरूप के लिए ही किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कामरूप या प्राग्यज्योतिष प्रांत प्राचीनकाल में असम से बर्मा, सिंगापुर, कम्बोडिया, चीन, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा तक फैला हुआ था। अर्थात यह एक अलग ही क्षेत्र था जिसमें वर्तमान चीन का लगभग आधा क्षेत्र आता है।
चीन का भारत से पौराणिक संबंध : इस विशाल प्रांत के प्रवास पर एक बार श्रीकृष्ण भी गए थे। यह उस समय की घटना है, जब उनकी अनुपस्थिति में शिशुपाल ने द्वारिका को जला डाला था। महाभारत के सभापर्व (68/15) में वे स्वयं कहते हैं- कि ‘हमारे प्राग्यज्योतिष पुर के प्रवास के काल में हमारी बुआ के पुत्र शिशुपाल ने द्वारिका को जलाया था।’
पौराणिक उल्लेख के अनुसार दोनों देशों के व्यापारिक और सांसकृतिक संबंध प्राचीन काल से ही रहे हैं। उस दौर में चीन के रेशम का उद्योग पूरे विश्व में प्रसिद्ध था। चीन के कारण ही शिल्क रूट का निर्माण हुआ था। चीन का कागज और रेशमी कपड़ा भारत में बहुत बिकता था। महाभारत के सभापर्व में कीटज तथा पट्टज कपड़े का चीन के संबंध में उल्लेख मिलता है। यह भी कहा जाता है कि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अनेक निवासी (शक, तुषार, कंक, रोमश आदि) भेंट स्वरूप रेशमी वस्त्र लाए थे।
महाभारत के सभा पर्व में ही चीनियों का शकों के साथ उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार महाभारत के भीष्मपर्व में भी विजातीयों की नामसूची में चीन के निवासियों का भी उल्लेख मिलता है।
चीन और बौद्ध धर्म : चीन का भारत के बौद्ध धर्म से बहुत ही प्राचीन नाता रहा है। कहना चाहिए कि बौद्ध धर्म का सबसे ज्यादा प्रचार प्रसार चीन ने ही किया है। चीन ने बौद्ध धर्म को एक नया चायनीज रूप दिया है। चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश तो भगवान बुद्ध के काल में ही हो चला था लेकिन चीन के हान वंश के सम्राट मिगंती के समय में (65 ई.) में इसका व्यापक प्रचार हुआ। कहते हैं कि उसने अपने स्वप्न में गौतम बुद्ध के दर्शन किए और इसके बाद उसने भारत में अपने दूतों को भेजकर भारत से बौद्ध भिक्षुओं और बौद्ध ग्रंथों को लाने के लिए भेजा। इसके लिए भारत के भिक्षु धर्मरक्ष और काश्यपमातंग अपने साथ अनेक ग्रंथ और बुद्ध मूर्तियों को लेकर चीन पहुंचे और इस तरह वहां पर बौद्ध धर्म की स्थापना हुई।
इसके बाद चौथी शताब्दी में फ़ाह्यान और छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में युवानच्वांग ने भारत भ्रमण करके के बाद बौद्ध धर्म को अच्छे से समझकर हजारों ग्रंथों को लेकर वे यहां से गए और व्यापक रूप से चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार हुआ। यह भी कहा जाता है कि ह्वेनसांग ने जब भारत की यात्रा की थी तो वे महाबलीपुरम में आए थे और यहीं रहकर उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में जानकारियां जुटाई थीं। उस काल में चीन के बौद्ध, भारत को अपनी पुण्यभूमि और संसार का महानतम सांस्कृतिक केंद्र मानते थे। उनके लिए उस काल में भारत उनके लिए मक्का और मदीना की तरह होता था। कभी चीन के लिए भारत स्वर्ग से भी बढ़कर था लेकिन जबसे चीन में कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता संभाली तब से चीन के लोगों को भारत से काट दिया गया।
बोधी धर्मन और चीन : बोधी धर्मन या बोधिधर्म एक बौद्ध भिक्षु थे। बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत के पल्लव राज्य के कांचीपुरम के राज परिवार में हुआ था। वे कांचीपुरम के राजा सुगंध के तीसरे पुत्र थे। छोटी आयु में ही उन्होंने राज्य छोड़ दिया और भिक्षुक बन गए। 22 साल की उम्र में उन्होंने संबोधि (मोक्ष की पहली अवस्था) को प्राप्त किया। बोधिधर्म के माध्यम से ही चीन, जापान और कोरिया में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ था। 520-526 ईस्वीं में चीन जाकर उन्होंने चीन में ध्यान संप्रदाय की नींव रखी थी जिसे च्यान या झेन कहते हैं। कहते हैं कि उन्होंने ही चीन को मार्शल आर्ट और कुंग फू की शिक्षा दी थी जिसे भारत में कलारिप्पयतु, कलारीपयट्टू या कालारिपयट्टू कहा जाता है। बोधी धर्म आयुर्वेद के जानकार थे। उन्होंने ही उस समय चीन के लोगों को महामारी से बचाया था। बोधी धर्मन ने ही चाय नामक पौधे की खोज करके चीन को चाय का काड़ा बनाकर पिलाना सिखाया था।
भारतीय गुरुओं में अट्ठाइसवें गुरु थे बोधिधरम। बौद्ध धर्म के ज्ञान को भगवान बुद्ध ने महाकश्यप से कहा। महाकश्यप ने आनंद से और इस तरह यह ज्ञान चलकर आगे बोधिधर्म तक आया। बोधिधर्म उक्त ज्ञान व गुरु शिष्य परंपरा के अट्ठाइसवें गुरु थे। उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-ति एक बोधिधर्म से प्रेरित थे। बू-ति के निमन्त्रण पर बोधिधर्म की उनसे नान-किंग में भेंट हुई। यहीं पर नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान का प्रचार-प्रसार किया। बोधिधर्म के प्रथम शिष्य और उत्तराधिकारी का नाम शैन-क्कंग था, जिसे शिष्य बनने के बाद उन्होंने हुई-के नाम दिया। पहले वह कन्फ्यूशस मत का अनुयायी था और उसके लगभग 500 शिष्य थे। बोधिधर्म की कीर्ति सुनकर वह उनका शिष्य बनने के लिए आया था।
चीन के राजा : चीनी यात्री ह्वेनसांग (629 ई.) के अनुसार इस कामरूप प्रांत में उसके काल से पूर्व कामरूप पर एक ही कुल-वंश के 1,000 राजाओं का लंबे काल तक शासन रहा है। यदि एक राजा को औसतन 25 वर्ष भी शासन के लिए दिया जाए तो 25,000 वर्ष तक एक ही कुल के शासकों ने कामरूप पर शासन किया। अंग्रेज इतिहासकारों ने कभी कामरूप क्षेत्र के 25,000 वर्षीय इतिहास को खोजने का कष्ट नहीं किया।
माना जाता है कि मंगोल, तातार और चीनी लोग चंद्रवंशी हैं। इनमें से तातार के लोग अपने को अय का वंशज कहते हैं, यह अय पुरुरवा का पुत्र आयु था। (पुरुरवा प्राचीनकाल में चंद्रवंशियों का पूर्वज है जिसके कुल में ही कुरु और कुरु से कौरव हुए)। इस आयु के वंश में ही सम्राट यदु हुए थे और उनका पौत्र हय था। चीनी लोग इसी हय को हयु कहते हैं और अपना पूर्वज मानते हैं।
एक दूसरी मान्यता के अनुसार चीन वालों के पास ‘यू’ की उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है कि एक तारे (तातार) का समागम यू की माता के साथ हो गया। इसी से यू हुआ। यह बुद्घ और इला के समागम जैसा ही किस्सा है। इस प्रकार तातारों का अय, चीनियों का यू और पौराणिकों का आयु एक ही व्यक्ति है। इन तीनों का आदिपुरुष चंद्रमा था और ये चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं।
चीन के राजवंश : चीन के दो हजार वर्ष लम्बे पुराने सामंती इतिहास में क्रमशः पश्चिम हान राजवंश का वुन च्येन स्वर्ण युग था। इस दौरान चीन ने बहुत तरक्की की। इस राजवंश के हान वु ती का शासन काल के बाद थांग राजवंश का जन्क्वुन और खाईयुन्न का शासन भी बेहतर रहा। इसके बाद मिन राजवंश के यङ श्वान और छिंग राजवंश के खांग यङ का युग भी स्वर्ण युग कहा गया। इसमें खाईयुन्न व खांग यङ छ्यान युग सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। इसके बाद पश्चिमी चाओ राजवंश भी बहुत प्रसिद्ध हुआ।
संदर्भ : कर्नल टॉड की पुस्तक ‘राजस्थान का इतिहास’ और पं. रघुनंदन शर्मा की पुस्तक ‘वैदिक संपत्ति’ और ‘हिन्दी-विश्वकोश’, महाभारत सभापर्व आदि से।
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