वैदिक संपत्ति में द्रविड़ और आर्य के बारे में
वैदिक संपत्ति
गतांक से आगे…
(1) इस तैत्तिरीय कृष्ण यजुर्वेद के विषय में नए और पुराने सभी विद्वानों ने कहा है कि यह मलिन बुद्धि से रचा गया है,इसलिए यह द्रविड़ो का ही रचा हुआ है।वेदभाष्यकार महीधर कहते हैं कि ‘तानि यजूषि बुद्धिमालिन्यात्कृष्णानि’ अर्थात बुद्धिमालिन्य से कृष्ण यजुर्वेद की उत्पत्ति हुई है।इसी तरह स्वामी विद्यारण्य कहते हैं कि
‘बुुद्धिमालिन्यहेतुत्वात् तद्यजु:कृष्णमीर्यते’ अर्थात बुद्धि की मलिनता से वह यजु ‘कृष्ण’ कहा गया है।
यही सम्मती प्राचीन भाष्यकर द्विवेदाग्ड की भी है।वह भी कहते हैं कि ‘शुक्लानि यजूंषि शुद्वानि यद्वा ब्राह्यणेन’ अर्थात शुक्र यजुर्वेद शुद्ध है ,परंतु ब्रह्मांणमिश्रित मंत्रों के कारण कृष्णवेद अशुद्ध है।आर्यविद्यासुधाकर में भट्ट यज्ञेश्वर कहते हैं कि ‘ यज्ञकर्मानुष्ठानमार्गस्य दुज्ञेर्यत्वात् कृष्णत्वमिति’ अर्थात यज्ञकर्म के अनुष्ठान मार्ग में दुज्ञर्येता उत्पन्न होने से ही उसको कृष्णत्व प्राप्त हुआ है।पंडित सत्यव्रत सामश्रमी निरूक्तालोचन में लिखते हैं कि गुरु मुख से पढ़ी हुई और त्याग की हुई, अथवा तैत्तिरीयसंज्ञक आन्ध्रादिकों द्वारा ग्रहण की हुई चरकाध्वयुसंहिता,जो मंत्र ब्राह्मणों का मिश्रण करके यज्ञसाधना के योग्य बनाई गई है,वान्त की तरह मिश्रित होने से कृष्णवेद कही गई है।इन सब प्रमाणों से प्रतीत होता है कि तैत्तिरीयसंहिता मंत्र ब्राह्मणों का मिश्रण करके आंध्रादिकों के द्वारा तैयार की गई है।इसलिए आदि में इसके रावणरचित होने में अधिक संदेह नहीं रहता।
(2) ऊपर जितने प्रमाण दिए गए हैं सब से यह प्रतीत होता है कि, इस वेद में मंत्रभाग और ब्राह्मणभाग का मिश्रण है, परंतु प्राचीन संहिताओं के ब्राह्मण अलग हैं ,मिश्रित नहीं ।ऋग्वेद का ऐतरेय, यजुर्वेद का शतपथ, साम का ताण्डय और छान्दोग्य तथा अथर्व का गोपथब्राह्मण अलग-अलग है।परंतु तैत्तिरीय में यह बात नहीं है।इसकी संहिता के मंत्रभाग में ब्राह्मणभाग और ब्राह्मणभाग में मंत्रभाग मिला हुआ है। यही कारण है कि अब तक यह निर्णय नहीं हुआ कि तैत्तिरीय साहित्य में कौन सा मंत्रभाग है और कौन सा ब्राह्मणभाग है। जितने तैत्तिरीय शाखा के मानने वाले ब्राह्मण हैं और अपने वेद का ज्ञान रखते हैं, उतने ही प्रकार की बातें करते हैं। कोई किसी अंश को मंत्र कहता है और कोई किसी भाग को ब्राह्मण कहता है।यही कारण है कि उस वेद की मंत्र संख्या का पता नहीं है। मंत्रसंख्यासंबंधी उनका प्रसिद्ध श्लोक यह है –
अष्टादशसहस्त्राणि मंत्रब्राह्मणयो:सह।
यजूषि यत्र पठयन्ते स यजुर्वेद उच्यते॥
अर्थात मंत्रब्राह्मण के साथ जहां 18000 यजु पढ़े जाते हैं ,वही यजुर्वेद कहलाता है। इसमें मंत्र ब्राह्मण की संख्या संयुक्त संख्या 18000 बताई गई है और समस्त संख्या यजुर्वेद ही कहीं गई है। परंतु कहीं भी आज तक किसीने यजुर्वेद को ब्राह्मण नहीं कहा और ने ब्राह्मण को ही यजुर्वेद का है। इसलिए उक्त संख्या शुद्ध यजुर्वेद की नहीं है।शुद्व यजुवेद की मंत्र संख्या इस संख्या से बहुत कम है। यजुर्वेद की मंत्र संख्या के लिए स्पष्ट लिखा है कि –
‘ द्वे सहस्त्रे शतन्यूनं मन्त्रे वाजसनेयके’
अर्थात यजुर्वेद के उन्नीस सौ मंत्रों का दृष्टा वाजसनेय ऋषि है इस तरह से शुद्ध यजुर्वेद की समस्त मंत्र संख्या केवल उन्नीस सौ है। कहां सौ कम 2000 और कहां 18000 ठिकाना?कुछ ठिकाना है, कितना बड़ा मिश्रण किया गया है ? इन दोनों संख्याओं के मिलान से ही ज्ञात होता है कि कृष्ण यजुर्वेद रावणदि द्रविडो का ही बनाया हुआ है, इसमें संदेह नहीं।
(3) वैदिकों की सनातन मर्यादा के अनुसार यज्ञ करने के लिए 4 विद्वानों की आवश्यकता होती है। यह चारों विद्वान एक-एक वेद के ज्ञाता होते हैं। इसी मर्यादा के अनुसार पूर्व काल में जब राजा हरिश्चंद्र ने यज्ञ किया था, उस समय उनके यज्ञ में विश्वामित्र ,जमदग्नि,अगस्त्य और वशिष्ठ आदि चार ही ऋषि क्रम से चारों पदों पर नियुक्त हुए थे ।इस तरह जब धर्मराज युधिष्ठिर ने यज्ञ किया था तो उसमें भी याज्ञवल्क्य ,वासिष्ठ,ब्रह्मदेव और व्यास आदि चार ही ऋषि चारों कार्यों पर नियुक्त हुए थे।परंतु इस सनातन वैदिक मर्यादा के विरुद्ध तैत्तिरीय साहित्य में उक्त चार कार्यकर्ताओं के स्थान में केवल एक चरक नामक आचार्य ही की योजना बतलाई गई है,यह कितनी बड़ी अनार्यता है ?
क्रमश: