चक्रवर्ती सम्राट कनिष्क गुर्जर वंश से थे।
कुषाण (कसाना) राजवंश 25 ई. से 380 ई. तक यह न केवल गुर्जर जाति का बल्कि भारतीय इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण राजवंश है। इस वंश के कई सम्राट हुए हैं लेकिन यदि अकेले कनिष्क सम्राट की ही बात करें तो उनका साम्राज्य दक्षिणी चीन और रूस से लेकर वर्तमान उत्तरी भारत तक पर उसका अखंड राज्य था। उसकी राजधानी पेशावर थी उसके कई प्रांत पाल थे जिनमें मथुरा एक महत्वपूर्ण था उसके काल के सिक्के, अभिलेख, शिलालेख पूरे मध्य एशिया और भारत में मिलते हैं। उसके समय में गणित, विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई। इस कुषाण वंश में सम्राट कुजुल कदाफिस, सम्राट विम कदाफिस, कनिष्क, क्षत्रप, वसिष्क, सम्राट हुविष्क, वासुदेव प्रथम का नाम उल्लेखनीय हैं। कुषाण वंश से गुर्जरों के अनेक क्षत्रपों के नाम पर अनेक वंश और गौत्र विकसित हुए।
पंडित बालकृष्ण गौड़ लिखते हैं –
यारकन्द, तिब्बत ब्रह्मा स्याम, समस्त थे भारत भूमि धाम।
कनिष्क ने राज्य किया इक छत्र, बढ़ाकर इक्ष्वाकु का नाम।।
– राजपाल सिंह कसाना, अखिल भारतीय गुर्जर महासभा इतिहास के आईने में, पृष्ठ संख्या 4
कस्सी आर्यों से प्रादुर्भूत गुर्जर जाति का कुषाण वंश अपने उत्कर्ष काल प्रथम शती में मध्य एशिया से लेकर समस्त उत्तरी भारत तक के विशाल भू भाग का अधिपति बन गया था। कुषाणों की नागर आदि शाखाएं राजनैतिक शक्ति बन चुकी थी। रूसी इतिहासकारों ने भी इस तथ्य को बेहिचक स्वीकार किया है कि दक्षिणी रूस से लेकर उत्तरी भारत तक का समस्त क्षेत्र कुषाणों के आधीन था और मौर्य वंश के भग्नावशेषों पर कुषाण गुर्जरों के साम्राज्य की आधारशिला स्थापित हुई थी। इस वीर कर्मा जाति ने प्रथम शती से लेकर ग्यारहवीं शती तक भारतीय धर्म तथा संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन किया।
– डॉ दयाराम वर्मा, परीक्षितगढ़ का गुर्जर राजवंश पुस्तक के प्राक्कथन में
- कुषाण गुर्जर की शाखा है।
Bombay Gazetter Vol. IX Part I Page 491
कसाने अपने कुशन साम्राज्य काल में भारत और भारत के बाहर सुदूर मध्य एशिया के उपनिवेशों तक मे पाए जाते हैं। पेशावर के आसपास, कश्मीर, पंजाब, देहली, राजपुताना, मालवा, मध्य भारत, मध्यप्रदेश बरार तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे हुए हैं। इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान महामहोपाध्याय राय बहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों द्वारा तथा एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका दिन यह पता चलता है कि यू-ची अथवा कुषाण पूर्णतया आर्य एवं आर्य सभ्यता से ओतप्रोत थे। उनकी राजनैतिक परिस्थिति और सामाजिक दृष्टिकोण से भारतीय आर्य जाति के राजन्य (क्षत्रिय) गुर्जर समूह में मिलना स्वाभाविक था, जिनका स्त्रोत यू – ची – कुशन पवित्र चेची गौत्र तथा वंश के रूप में गुर्जरों में विद्यमान हैं। इन आर्य कुशन यूची लोगों ने ऋषिक तुषार नाम से भी इतिहास में प्रसिद्धि पाई है। गुर्जरों के वर्तमान कुशन कसाने वंश से भी यही स्पष्ट होता हैं।
– यतीन्द्रकुमार वर्मा, गुर्जर इतिहास, पृष्ठ संख्य 166
गुर्जरों का कसाना नामक गौत्र महान कुषान सम्राटों का वंश है क्योंकि कसाना या कुशान गौत्र गुर्जरों के अतिरिक्त भारत में अन्य किसी जाति में नहीं है।
– रतनलाल वर्मा, भारतीय संस्कृति के रक्षक, पृष्ठ संख्या 13
कनिष्क केवल कुषाण वंश का ही नहीं अपितु गुर्जर जाति का सर्वश्रेष्ठ सम्राट हुआ है। वह महान साम्राज्य का स्वामी था। कुषाण वंश का वैभव उसके समय में चर्मोत्कर्ष पर था। फलतः यह समय गुर्जरों के महान अभियानों का समय था। गर्व के साथ कहा जा सकता है कि कनिष्क गुर्जर जाति का महान सम्राट था। उसे महिमामण्डित करने वाला अद्वितीय सम्राट था।
– डॉ दयाराम वर्मा, परीक्षितगढ़ का गुर्जर राजवंश, पृष्ठ संख्या 39
कुषाण वंश गुर्जर जाति का ज्ञात प्राचीनतम वंश है जो अब तक कुषाण कसाना गोत्र के रूप में सुरक्षित विख्यात है। अनेक इतिहासविदों ने इस वंश को विदेशी तथा आर्येत्तर सिद्ध करने का प्रयास किया है किन्तु अब भारत तथा रूस के पुरात्वविदों तथा इतिहासकारों ने सिद्ध कर दिया है कि शक आर्य एवं उसका प्रमुख वंश कुषाण भी आर्यों के क्षत्रिय वर्ण से संबंधित है। अति प्राचीन काल में आर्यों के विस्तार एवं प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने की दृष्टि से वैवस्वत मनु के वंशज शक द्वीप गए थे। इसी कारण वे शक कहलाए। सम्पूर्ण मध्य एशिया एवं सोवियत रूस के दक्षिणी प्रदेश शक आर्यों की विचरण भूमि रहे हैं। शकों का उल्लेख प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। रूस तथा यूरोपीय पुरात्वविदों को प्राचीन टीलों तथा नगरों के उत्खनन से जो तथ्य प्राप्त हुए हैं तथा राहुल सांस्कृत्यायन एवं वेद प्रताप वैदिक प्रभृति भारतीय इतिहासकारों के शोध कार्यों से यह स्पष्ट हो गया है कि सम्पूर्ण मध्य एशिया ईरान आदि शक आर्यों की विचरण भूमि रहे हैं। इसी कारण वहां पुरातत्व वेत्ताओं को भारतीय धर्म एवं संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए है। शक आर्यों के क्षत्रिय वर्ण के गुसुर आदि 18 वंश थे। गुसरों से संबंधित यू-ची (चेची) थे जिनसे कुषाण यानी कसाना गोत्र विकसित हुआ है। कुषाणों के अभिलेखों में गुषेण व गुषन आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती है। जनरल कनिंघम ने कुषाणों को गुर्जर बताया है। बम्बई गजेटियर में उन्हें गुर्जर लिखा है। कुषाण वंश न केवल गुर्जर जाति का अपितु अपने समय के संसार के चार महान साम्राज्यों में से एक था। अतः यह वंश गुर्जर जाति के वैभव एवं शौर्य को व्यंजित करने वाला वंश है। इस वंश के सम्राटों ने भारतीय धर्म तथा संस्कृति की पताका को विदेशों में भी पहराया था। यही कारण है कि चीन तथा तिब्बत में आज तक भी बौद्ध धर्म की प्रधानता है। गांधार कला तथा मथुरा कला की शैलियां कुषाण साम्राज्य की देन है जिन पर आज सभी जातियों को गर्व है। शक संवत का चलाने वाला कुषाण वंशीय सम्राट कनिष्क था। जब गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ तो कुषाण साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया और वे राजस्थान व गुजरात के प्रदेशों में छोटी छोटी रियासतों के स्वामी बने रहे। इस काल मे गुर्जरों के गोत्रों का तेजी से विकास हुआ। गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात पुनः गुर्जर शक्ति का विकास हुआ तथा हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात प्रतिहार, पंवार, चौहान, चौलुक्य आदि गुर्जर राजवंशों का उदय हुआ।
– डॉ दयाराम वर्मा, परीक्षितगढ़ का गुर्जर राजवंश, पृष्ठ संख्या 47 व 48
भट्टारक मैत्रीक वंश के गुर्जरों ने (कुषाण गुर्जरों की शाखा का या उनका वंशज था) बल्लभी को अपनी राजधानी बनाया इसी प्रकार दछा चावड़ा नामक राजा ने अपनी राजधानी भडौच तथा पुलकेशी गुर्जर सम्राट ने अपनी राजधानी बादामी (बम्बई के निकट) को बनाया।
– डॉ वेदपाल सिंह, गुर्जर और उनका इतिहास में योगदान, पृष्ठ संख्या 130
गुर्जर राजाओं के शासन काल में साहित्य की अत्यंत मात्रा में वृद्धि हुई। सर्वप्रथम हम रघुवंशी कुषाण साम्राज्य का निरूपण करेंगे। जिसकी राज्य अवधि 25 ई से 425 ई तक थी। यह बहुत बड़ा साम्राज्य था। जिसकी राजधानी पेशावर तथा मथुरा थी। इस शासन काल में समय समय पर अनेक राजाओं ने विद्या का प्रचुर मात्रा में प्रचार किया। अनेक विद्वान तथा कवि हुए जिन्होंने साहित्य की नाना विधाओं का प्रणय किया।
– डॉ हरिसिंह शास्त्री, गुर्जर और उनका इतिहास में योगदान, पृष्ठ संख्या 166, 167
कुषाण गुर्जर वंशीय थे।
– डॉ जय सिंह, गुर्जर और उनका इतिहास में योगदान, पृष्ठ संख्या 209 से 220
कुषाण वंश जिसमें अनेक प्रतापी सम्राट हुए सूर्यवंशी गुर्जरों का ही एक वंश था व है। कुछ इतिहासकारों की यह धारणा कि कुषाण विदेशी थे पूर्णतः गलत है। बल्कि भारतीय क्षेत्र से ही मध्य एशिया आदि की ओर गए थे तथा बाद में हूणों के आक्रमणों के कारण उन्हें वापिस भारतीय प्रदेश की ओर लौटना पड़ा। कई लोग उनको घुमन्तु व असभ्य कहने का दुस्साहस भी करते हैं जो सर्वथा गलत है। यह कैसे सम्भव है कि जिस वंश के शासन में सोने चांदी के सिक्के प्रचलित रहे हो, जिसके शासन में विद्या, कला कौशल व व्यापार की सर्वाधिक उन्नति हुई हो, जिसके पास सुदृढ व अनुशासित सेना हो तथा जिसका विशाल राज्य बंगाल से कैस्पियन सागर तथा सुदूर मध्य एशिया से लेकर गुजरात व सुदूर दक्षिण तक फैला हो, उसके शासक असभ्य व घुमन्तु कैसे हो सकते हैं?
– डॉ जय सिंह, गुर्जर और उनका इतिहास में योगदान, पृष्ठ संख्या 219
कुषाण गुर्जर है।
– जी. सरवर चौहान, Origin, Rise And Growth Of Gujjars A Brief Account Of History, पृष्ठ संख्या 43 से 63
कुश वंशी कसाने कनिष्क को अपना पूर्वज कहते हैं और अपने को कुशन भी कहते हैं। कुशवंशी सूर्यवंश के क्षत्रियों की संतान किसी समय मध्य एशिया और चीन तक पहुंच गई थी। मध्य एशिया में हुलमन्द पर गुर्जिस्तान, गूजर खासी की प्रसिद्धि उन्हीं के नाम पर है और वे यहाँ पाए जाते हैं। चीन मिश्र ईरान तिब्बत गिलगित मध्य एशिया की कैस्पियन समुद्र की जातियों में गुजर पाए जाते हैं।
– यतीन्द्रकुमार वर्मा, गुर्जर इतिहास, पृष्ठ संख्या 87 (साभार – गुर्जरों का विभिन्न क्षेत्रों में प्रदान)
ईरान के पूर्व का क्षेत्र (वर्तमान अफगानिस्तान) ओल्ड टेस्टामैन्ट में कुश के नाम से लिखा है। मध्य एशिया के लोग इसे हिन्दू कुश कहते थे। जब कनिष्क गद्दी पर बैठा तो उसे कुषाण कहा गया। जनरल कनिंघम ने गुर्जर तथा कुषाणों को एक ही बताया है। कुषाण गुर्जर जाति का ही एक गोत्र है जो रामचन्द्र के छोटे पुत्र कुश से अपनी उत्पत्ति मानता। कुश वंशी कुषाण, कुशान या कसाना साम्राज्य का संस्थापक कुजुल था जिसने 25 ई. में सम्राट पद धारण कर शासन किया था। चीनी लेखकों के अनुसार उसकी मृत्यु 50 ई में 80 वर्ष की आयु में हुई थी। सम्राट कुजुल देव का साम्राज्य वर्तमान अफगानिस्तान, कश्मीर, पंजाब तथा मध्य एशिया तक फैला हुआ था। सम्राट कुजुल देव की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र विम कुशान साम्राज्य का शासक बना। सम्राट विम के बाद सम्राट कनिष्क ने 78 ई. से 120 ई. तक शासन किया उसने कुशान साम्राज्य का विस्तार किया।
– प्रोफेसर सत्येन्द्र पाल आर्य, एशिया महाद्वीप में गुर्जर, पृष्ठ संख्या 5
गुर्जर जाति के प्रारंभिक राजवंशों में चेची, कुषाण, खटाना, हूण तथा नागवंश विशेष उल्लेखनीय है।
– मनीषा डी. पवार, एशिया महाद्वीप में गुर्जर, पृष्ठ संख्या 8
बहुत पुराने राजकुल जैसे अम्ब, कुषाण, लावा, ठक, पोसवाल, यादव, परमार, चुलुक, योधेय (जोहिया) तथा प्रतिहार गुर्जर जाति के ही संगठक अवयव है।
– अमर सिंह कसाना, एशिया महाद्वीप में गुर्जर, पृष्ठ संख्या 30
प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति का फैलाव था। यदि आप कुषाण काल के सिक्कों को देखे तो उनपर सम्राट कनिष्क का हवन करते हुए चित्र है। यह सब इसी बात का द्योतक है। कुषाण शासकों के शासन की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) तथा दक्षिण की राजधानी मथुरा थी। सन 25 ई से 425 ई तक का कुषाण काल तो अति उत्तम रहा है। महर्षि चरक आदि जैसे वैद्य, कपिल, कणाद जैसे वैज्ञानिक इन्हीं कुषाण गुर्जर शासकों के शासनकाल में हुए है। व्यापार, विज्ञान, कला, कौशल की बहुत उन्नति इन्हीं कुषाण गुर्जर शासकों के समय में हुई।
– डॉ जय सिंह गुर्जर, एशिया महाद्वीप में गुर्जर, पृष्ठ संख्या 35
थे जो भारत मां के लाल, रघुकुल रीति गए है पाल।
कुश के वंशज महान कनिष्क, निर्मित कर साम्राज्य विशाल।
ईराक और जार्जिया, गांधार, पर्शिया और हिमालय पार।
वैदिक आर्य उदभव भूमि, सीमा बनी थी चीन दीवार।
यारकन्द, तिब्बत, ब्रह्मा, स्याम, समस्त ये भारत भूमि धाम।
कनिष्क ने राज्य किया इकक्षत्र, बढ़ाकर इक्ष्वाकु का नाम।।
– पंडित बालकृष्ण गौड़, एशिया महाद्वीप में गुर्जर, पृष्ठ संख्या 63
कुशानवंशीय कनिष्क ने कई यज्ञ किए, देव मंदिर निर्माण करवाये तथा बौद्ध – हिन्दू धर्म का अनुयायी बनकर अनेक विद्वानों का संरक्षण किया था। उसके राज्य में बौद्ध चरित और सौन्दरानन्द नमक काव्यों के रचयिता अश्वघोष, शून्यवाद के प्रवर्तक और प्रकाण्ड दार्शनिक नागार्जुन पाश्र्व और वसुमित्र आदि शोभा पाते थे। आयुर्वेद का प्रसिद्ध चरक कनिष्क के आश्रय में रहा है। भवन निर्माण कला, धर्म साहित्य और शास्त्रों के ज्ञान का देववाणी (संस्कृत) में समन्वय करने वाला कनिष्क एवं उसके वंशज तुरुष्क (तुर्क) नहीं हो सकते। कनिष्क के उत्तराधिकारी वासिष्क और हुविष्क थे, जिनमें से हुविष्क राजगद्दी पर बैठा था। वासुदेव इस वंश का अंतिम सम्राट था जिसके विषय में इतिहासज्ञ जैन लिखते है कुषाण वंश का राजा वासुदेव (152 ई से 176 ई) के सिक्के मिले है, वह शिव का उपासक था, लेकिन नाम से कृष्ण का उपासक लगता है। इतिहासकार उसे भागवत (भागवतधर्म) का अनुयायी मानते है।
एम. एस. जैन, प्रारंभिक इतिहास, पृष्ठ संख्या 173
– फतहलाल गुर्जर, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रहरी गुर्जर प्रतिहार, पृष्ठ संख्या 81 व 82
कुषाण वंश
चौ खुर्शीद भाटी, गुर्जरों का सम्पूर्ण इतिहास, पृष्ठ संख्या 215 से 222
महान सम्राट कनिष्क कुषाण गुर्जर वंश के है।
– प्रिंसिपल गणपति सिंह जी, गुर्जर वीर वीरांगनाएं, पृष्ठ संख्या 8 से 15
कुषाण गुर्जर थे। कुषाणों के रबातक अभिलेख में गुर्जर शब्द का उल्लेख भी यही सिद्ध करता है कि कुषाण गुर्जर थे। स्पष्ट है कि इक्ष्वाकु वंश क्षत्रिय गुर्जर है, चाहे कुषाण हो, चाहे लौर हो, लेवा हो, चाहे खारी हो, कड़वा हो, नाग हो, और चन्द्रवंशी क्षत्रिय भी गुर्जर गुर्जर है, चाहे कुषाण हो, चाहे जांगल हो, चाहे पांडव हो, चाहे चेची हो, गुरूतर हो, गुर्व: हो, गुरूजन हो। इन सब कुलों का नाम गुर्जर है। मध्य एशिया के इतिहास में इतिहासकारों ने कुषाणों को गुर्जर लिखा है तो भारतीय इतिहास में भारतीय इतिहासकारों द्वारा कुषाणों को गुर्जर लिखा जाना कोई नयी बात नहीं है। वर्तमान में भी कुछ भारतीय लेखकों को कुषाणों को गुर्जर लिखने में अच्छा नहीं लगता है। लेकिन क्या करे उनकी मजबूरी है, भारतीय इतिहास में कुषाणों का उल्लेख तो करना ही पड़ता है अन्यथा उस काल में अराजकता का जन्म हो जाएगा। भारतीय लेखकों को कुषाणों को गुर्जर लिखने का गर्व होना चाहिए, जिन भारतीय कुलों ने मध्य एशिया में राज किया था।
– डॉ केआर गुर्जर, वृहद कुणबे की सामाजिक यात्रा इतिहासकारों का दृष्टिकोण, पृष्ठ संख्या 175
आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया नामक विभाग के अध्यक्ष सर एलेक्जेंडर कनिंघम ने कुषाणों को गुर्जर लिखा है।
– आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया, वॉल्यूम 2, पृष्ठ संख्या 61
ऐतिहासिक तोर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर कौम का प्रतिनिधित्व करता हैं। यह साम्राज्य भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि उन सभी देशो में फैला हुआ था जहाँ आज गुर्जर रहते हैं। कुषाण साम्राज्य की एक राजधानी मथुरा, भारत में तथा दूसरी पेशावर, पाकिस्तान में थी। तक्षशिला और बेग्राम,अफगानिस्तान में इसकी अन्य राजधानी थी। मशहूर पुरात्वेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं। उनके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का वर्तमान प्रतिनिधि हैं। कनिष्क के साम्राज्य का एक अंतराष्ट्रीय महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें अकादमिक रूचि रखते हैं। प्राचीन काल का अंतराष्ट्रीय व्यापर मार्ग जिसे रेशम मार्ग कहा जाता था कुषाणों के नियंत्रण में था गुर्जरों के पूर्वजों अर्थात कुषाण परिसंघ के लोगो ने अपने साम्राज्य में एक सार्वदेशिक संस्कृति का पोषण किया। कुषाण साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इससे अधिक उपयुक्त हो। यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क ने अपने राज्य रोहण के अवसर पर 78 ईस्वी में शकसंवत प्रारम्भ किया। शक संवत प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को आरम्भ होता हैं, अतः 22 मार्च कनिष्क के राज्य रोहण की तिथि हैं। दक्षिणी एशिया विशेष रूप से गुर्जरों के के प्राचीन इतिहास में यह एक मात्र तिथि हैं जिसे अंतराष्ट्रीय रूप से मान्य पूरी दुनिया में प्रचलितजूलियन कलेंडर के हिसाब से निश्चित किया जा सकता हैं। अतः अन्य पंचांगों पर आधारित तिथियों की विपरीत यह भारत, पाकिस्तान अफगानिस्तान अथवा अन्य जगह जहा भी गुर्जर निवास करते हैं यह एक ही रहेगी।
– डॉ. सुशील भाटी, असिस्टेंट प्रोफेसर इतिहास विभाग
कुषाण गुर्जर है।
– डॉ केआर गुर्जर, गुर्जर क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 59
जो बहादुर गुर्जर सम्राट हुए उनका कुछ परिचय देना यहाँ आवश्यक हो जाता है। महान सम्राट कनिष्क कुषाण, जैनेन्द्र यशोधर्मा, गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट्ट, गुर्जर सम्राट मिहिरभोज, सम्राट महिपाल, भोज परमार, महाराजा गुर्जरेश्वर, महाराजा भीमदेव प्रथम सोलंकी, महाराजा कर्णदेव, प्रथम गुजरी महारानी मीनल देवी व जयसिंह सिद्धराज, गुजरी महारानी नायिका देवी। उपरोक्त सम्राट व साम्राज्ञीयों ने वीर वीरांगनाओं ने भारत पर राज्य किया।
– चौधरी प्रताप सिंह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, गुर्जर गाथा, पृष्ठ संख्या 3
वैदिक आर्यों की ही संतान थे गुर्जर सम्राट कनिष्क और उनके वंशज। कई इतिहासकारों ने ऐसा माना है कि गुर्जर शासकों का धर्म मिहिर अर्थात सूर्य था । जिन लोगों ने अपनी ऐसी धारणा व्यक्त की है उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि मिहिर या सूर्य कोई धर्म नहीं होता , अपितु यह एक देवता है । क्योंकि यह संसार को प्रकाश प्रदान करता है । हम पूर्व में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत में क्षत्रियों का एक ही सूर्यवंश प्राचीन काल से चला आ रहा था , इसलिए आर्यों की क्षत्रिय परम्परा के लोग जहाँ – जहाँ भी रहे या विश्व में जहाँ – जहाँ भी गए वहीं – वहीं वे सूर्योपासना करना नहीं भूले । सूर्योपासना का अभिप्राय है – :तमसो मा ज्योतिर्गमय ‘ – की पवित्र भावना को साथ रखकर और उसी को अपना आदर्श बनाकर संसार के उपकार और कल्याण के लिए कार्य करना । कुछ कालोपरान्त यह परंपरा रूढ़िगत हो गई और लोग जड़ता में फंस गए । अतः हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मिहिर कोई धर्म नहीं है । धर्म तो मनुष्य का केवल मानवता है और मानवता को क्योंकि वैदिक धर्म ही उत्तमता से प्रदान कर सकता है इसलिए सबका मूल वैदिक धर्म ही है ।
गुर्जरों के महान शासकों में कनिष्क का नाम भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। कनिष्क प्रथम या कनिष्क महान के नाम से विख्यात कुषाण राजवंश का एक महान शासक हुआ है। उसने अपने महान कार्यों , उत्तम कार्य शैली और जनहितकारी नीतियों के कारण भारत के ही नहीं बल्कि एशिया के महानतम शासकों में अपना स्थान सुरक्षित किया ।
उसके शासनकाल का अवलोकन करने से हमें पता चलता है कि वह भारतीय इतिहास में अपनी विजय , धार्मिक प्रवृत्ति ,साहित्य तथा कला का अनन्य प्रेमी होने के कारण अपने जीवन में महान यश को प्राप्त हुआ। उसने अपनी कार्यशैली और राजनीति को भारतीय संस्कारों के अनुसार ढालकर चलाने का सराहनीय प्रयास किया । यह तभी संभव होता है जब कोई शासक राजनीति के सूक्ष्म संस्कारों को अंगीकार करने की इच्छा शक्ति रखता है । निश्चित रूप से कनिष्क ने भारत की प्राचीन राजनीतिक संस्कार शैली को अपना कर यह सिद्ध किया कि वह उसके सूक्ष्म संस्कारों से हृदय से प्रभावित था और जनकल्याण के लिए भारतीय वैदिक राजनीतिक संस्कारों को ही उचित मानता था। जिन विद्वानों ने कनिष्क को आज के शासकों की भांति ‘धर्मनिरपेक्ष’ बताते हुए कई धर्मों का सम्मान करने वाला मानकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उसने उन सबका सम्मान किया इसलिए वह किसी एक धर्म के प्रति बंधा हुआ नहीं था , उन्हें यह पता होना चाहिए कि सभी सम्प्रदायों का सम्मान वही शासक कर सकता है जो मौलिक वैदिक सिद्धांतों और राजनीतिक कार्यशैली को अपना कर चलने में विश्वास रखता हो। यद्यपि कनिष्क के समय तक आते-आते मूर्ति पूजा और पाखंडवाद का राजनीति में भी प्रवेश हो चुका था । जिसका प्रभाव उसकी कार्यशैली पर पड़ना भी निश्चित था ,परंतु यहाँ पर हम इस बात पर चिन्तन न करके केवल इतना बताने का प्रयास कर रहे हैं कि कनिष्क ने भारतीय राजनीतिक सिद्धांतों और जनहितकारी नीतियों सम्बन्धी भारत के महान ऋषियों के चिन्तन को अपनाकर चलना ही उचित समझा था। कुषाण भी प्राचीन आर्यों की ही संतान थे – राहुल सांकृत्यायन जी ‘मध्य एशिया का इतिहास’- खंड – 1 ,पेज 159 , पर लिखते हैं कि यूची , कुषाण, तुखार , बुसुन , श्वेत हूण , आभीर , पार्थ , खश , सरमात आदि शकों की प्रमुख शाखाएं थीं । जबकि खंड 1 के पेज 138 पर वह यह भी लिखते हैं कि शकों की विचरण भूमि सप्तनद थी । जहाँ तुखारी प्राकृत भाषा और भारतीय लिपि की प्रधानता थी। अनेक पुराणों में शक गुर्जरों का विशद वर्णन हुआ है। ‘हरिवंश पुराण’ में उल्लेख है कि नरिष्यन्त के पुत्रों का नाम शक है । पंडित रघुनंदन शर्मा विभिन्न पुराणों एवं महाभारत से उद्धरण प्रस्तुत कर यह स्पष्ट करते हैं कि शक नरिष्यन्त के ही पुत्र थे। ‘वैदिक संपत्ति’ के खंड – 3 में पंडित रघुनंदन शर्मा जी हमें यह भी बताते हैं कि यह शक लोग राजा सगर से हारने पर जम्बूद्वीप छोड़कर चले गए थे । जहाँ जाकर वह बसे उस स्थान का नाम कालान्तर में शक द्वीप हो गया। राहुल सांकृत्यायन जी कहते हैं कि – ” ईसा पूर्व 7वीं – 8वीं शताब्दी से देखते हैं कि सारे मध्य एशिया में हिंद – यूरोपीय वंश की शक आर्य शाखा का ही प्राधान्य है । मध्य एशिया में उन्होंने मुण्डा द्रविड़ के प्राधान्य को नष्ट किया और स्वयं उनका स्थान लेकर आगे उत्तरापथ और सिक्यांग में शक और दक्षिणापथ में आर्य के रूप में अपने को प्रकट किया ।’ पंडित रघुनंदन शर्मा लिखते हैं कि – ”जहां से सारी मनुष्य जाति संसार में फैली है , उस मूल स्थान का पता हिंदुओं , पारसियों , यहूदियों और क्रिश्चियनों की धर्म पुस्तकों से इस प्रकार लगता है कि वह स्थान कहीं मध्य एशिया में था । इस प्रकार सच्चे आर्यों की प्रधान ईरानी शाखा ने हिमालय का इशारा किया है।” इस प्रकार इन विद्वानों के प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि शक , कुषाण आदि बाहरी जाति न होकर आर्यों की ही शाखा थीं। हमें यहाँ पर यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस समय की बात हम कर रहे हैं उस समय का भारतवर्ष आज के भारत वर्ष जितना नहीं था । ध्यान रहे कि 1857 की क्रांति के समय भी भारतवर्ष 83 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ था । उससे पहले तो इसका क्षेत्रफल और भी अधिक था । जबकि आज यह लगभग 32 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का ही देश है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि हिंदू कुश कभी हमारे देश की सीमा हुआ करती थी और उससे पहले जाएं तो और भी अधिक विस्तार भारतवर्ष का देखने को मिलता है।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ( खंड 2 , पृष्ठ 513 , लंदन ) के अनुसार मध्य एशिया का दक्षिणी भाग तिब्बत तक फैला हुआ था । तिब्बत व भारत की भौगोलिक व सांस्कृतिक अस्मिता निकटता सदियों से रही है। तिब्बतियों और भारतीयों के बीच आपसी व्यापार के लिए दोनों देशों की सीमाएं सदा खुली रही हैं तथा पारस्परिक अधिग्रहण भी रहा है। एक अन्य विद्वान बिलांची महोदय के अनुसार मध्य एशिया, आर्मीनिया , इरान , बैक्ट्रिया व सोगदियाना का क्षेत्र है। निश्चित ही यह क्षेत्र आर्यवर्त क्षेत्र में ही आते थे। इस प्रकार गुर्जरों को यदि मध्य एशिया से आने वाली जाति भी मान लिया जाए तो भी यह ‘मध्य एशिया’ जैसा शब्द आज के सन्दर्भ में ही लागू होता है । प्राचीन काल में क्योंकि मध्य एशिया भारत का ही एक अंग था , इसलिए वहाँ से आने वाले किसी भी व्यक्ति या जातीय समूह को विदेशी नहीं माना जा सकता। कुषाण वंश का प्रारंभिक काल – प्राचीन भारत के राजवंशों में कुषाण राजवंश का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । चीन के यूएझी लोगों के मूल से इतिहासकार इस राजवंश की उत्पत्ति पर अपनी सहमति व्यक्त करते हैं । यूएझी लोगों के इस कबीले के बारे में यूरोप के अनेकों इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि यह कबीला प्राचीन काल के भारत के आर्यों की ही एक शाखा थी। ऐसे इतिहासकारों में प्रोफेसर वीएस स्मिथ और कनिंघम का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है । जिनका मानना है कि यूएझी लोग उन्हीं आर्य कबीलों में से थे जो कि कई चरणों में भारत आये । कुषाण लोग अपने आरम्भिक काल में स्वयं को ‘कोसानो’ लिखते थे तथा ‘गुसुर’ कबीले के थे । ‘गुसुर’ शब्द ‘गुर्जर’ के कितना समानार्थक है ? यह तो नहीं कहा जा सकता , परंतु कुषाण लोगों ने जिस प्रकार भारत के गुर्जर समाज की सभी क्षत्रिय और सांस्कृतिक परम्पराओं को स्वीकार कर आत्मसात किया है उससे यह कहा जा सकता है कि ये लोग आर्यों की ही संतानें थे । जिन्हें आर्यों की संतान गुर्जरों के साथ मिलने में कोई कष्ट नहीं हुआ। स्पष्ट है कि ऐसा तभी सम्भव होता है जब दो समुदायों के मूल संस्कार एक जैसे ही होते हैं। इन मूल संस्कारों के निर्माण में जातीय संस्कार भी सम्मिलित होते हैं। इन्हीं संस्कारों से व्यक्ति या उसके समुदाय की मूल चेतना का निर्माण होता है । वह चेतना उसे उसी चेतना के साथ जोड़ती है जिसके गुण , कर्म , स्वभाव समान होते हैं। इस बात को हमें यूएझी लोगों और गुर्जर समाज के सन्दर्भ में गहराई से समझना चाहिए। राबातक के अभिलेखों से उपरोक्त मत की पुष्टि होती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि देर – सबेर इस कबीले ने अपने आपको गुर्जरों के कषाणा/कसाणा कबीले में आत्मसात कर लिया होगा। सम्राट कनिष्क ने अपना नाम पूर्णतया भारतीयकरण कर लिया था। कुछ विद्वान लेखकों का मानना है कि सम्राट कनिष्क ने अपनी राजकीय भाषा भी बैक्ट्रीयन आर्य भाषा कर ली । बैक्ट्रियन भाषा के बारे में हमारा मानना है कि यह भाषा अपने आप में भाषा न होकर एक बोली मात्र थी । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अनेकों भाषाओं के मतिभ्रम में न फंसकर हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि मूल रूप में संपूर्ण भूमण्डल की एक ही भाषा थी । जिसे आर्यभाषा संस्कृत कहा जाता है । सम्पूर्ण भूमण्डल के निवासी एक अर्थात आर्य , उनका धर्म शास्त्र वेद एक और उनकी जाति (अर्थात मानव ) भी एक थी । ऐसे में स्वभाविक है कि उनकी भाषा भी एक ही रही होगी । इस भाषा से बिगड़ – बिगड़ कर जो नवीन भाषाएं बनीं वे भाषा न होकर बोलियां थीं । जैसा कि हम आज भी देखते हैं। 1947 में देश के स्वतंत्र होने के समय भारतवर्ष में भी 1652 कथित भाषाएं थीं । वस्तुतः यह 1652 भाषाएं न होकर आंचलिक या क्षेत्रीय बोलियां थीं । जो आज भी देश में ज्यों की त्यों मिलती हैं । हमारे लिए समस्या उस समय उठ खड़ी होती है जब हम प्राचीन काल से ही भाषाओं का स्वतंत्र अस्तित्व खोजने लगते हैं । वास्तव में प्राचीन काल से ही मनुष्य की अनेकों भाषाएं होने का यह सारा गुड़ गोबर पश्चिमी विद्वानों ने किया है । जिससे विश्व की एक संस्कृति , एक धर्म और एक भाषा की ओर लोगों का ध्यान न जाए और आर्य संस्कृति या वैदिक संस्कृति की प्रधानता या प्रमुखता लोगों की दृष्टि में न आए। भाषा के बारे में समझने योग्य तथ्य – यह तो माना जा सकता है कि देश ,काल , परिस्थिति के अनुसार बैक्ट्रियन या किसी भी भाषा / बोली की अपनी लिपि या थोड़े बहुत शब्द अलग हो सकते हैं , परंतु आम बोलचाल में ही यह अन्तर दिखाई देता होगा। विद्वान लोग तो वैसे ही संस्कृत को परस्पर समझते होंगे जैसे आज अनेकों बोलियों को बोलने वाले लोग भी हिंदी को बड़ी सहजता से समझ लेते हैं और पढ़ भी लेते हैं। निश्चित रूप से बैक्ट्रियन और संस्कृत में कोई विशेष अन्तर नहीं था । इसलिए किसी भी काल्पनिक भाषाई समस्या पर हमें कुषाणों और तत्कालीन भारतीय लोगों के बीच संवादात्मक दूरी का आभास नहीं करना चाहिए। इसके स्थान पर यह समझना चाहिए कि यह सब एक ही परिवार के लोग थे , एक ही भाषा , एक ही धर्म और एक ही संस्कृति को मानने वाले लोग थे। भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार थोड़ा बहुत भूषा में और दूर – दूर बसे होने के कारण कुछ भाषा में परिवर्तन आना स्वाभाविक था , परन्तु यह सब भी सांस्कृतिक मूल्यों को मिटाने वाला नहीं होता। हमें ध्यान रखना चाहिए कि सांस्कृतिक मूल्यों की निकटता से ही लोग परस्पर एक दूसरे को अपना मानने के भाव से बंधे रहते हैं। कुषाणों की मुख्य बोलचाल की भाषा ( वास्तव में बोली ) गुर्जरी/गांधारी थी । अत: यहाँ एक प्रमाण और मिल जाता है कि वे कषाणा समुदाय में सम्मिलित हुए और इस प्रकार आर्य संस्कृति में कुषाण अपने आपको आत्मसात करके आर्य्यावर्त्त में शासन करने लगे। अफगानिस्तान के इतिहासकारों के अनुसार वो कोसाना(गुज्जर) कबीले से सम्बंध रखते हैं।
हमें एक बात यह भी ध्यान रखनी चाहिए कि जब कोई विदेशी आक्रामक भारत में तुर्क और मुगलों के रूप में या अंग्रेजों के रूप में आया तो यहाँ की जनता ने भी उन्हें कभी अपना शासक स्वीकार नहीं किया। यही कारण रहा कि तुर्कों , मुगलों और अंग्रेजों के शासनकाल में उनके विरुद्ध यहाँ की जनता सदैव आक्रामक और विद्रोही बनी रही। इसका एक ही कारण था कि यह विदेशी आक्रमणकारी शासक भारत की जनता के साथ प्रेमपूर्ण बर्ताव नहीं करते थे और उसके मौलिक अधिकारों का हनन करने वाले थे। दूसरे इन सबके धर्म और संस्कृति भी अलग थे। जिन्हें यहाँ के लोगों ने स्वीकार करना अपनी हत्या के समान समझा। जबकि कुषाण जब भारत में कथित रूप से आए तो उनके विरुद्ध यहाँ की जनता के किसी विद्रोह की सूचना हमें नहीं मिलती। स्पष्ट है कि यहां की जनता ने उन्हें अपना मानकर स्वीकार किया। भारत के लोगों के द्वारा उन्हें अपना मानने का एक कारण यह था कि वे लोग मूल रूप से भारतीय धर्म व संस्कृति से प्यार करने वाले थे और यहां के लोगों को अपना मानने वाले थे। इसके अतिरिक्त हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी विदेशी शासक अपनी राजधानी वहीं पर बनाता है जहां पर वह उसे सबसे अधिक सुरक्षित समझता है । यदि कुषाण वंश के शासकों ने अपनी राजधानी पेशावर (पुरुषपुर ) बनाई तो निश्चय ही यह तभी संभव हुआ होगा जब उन्होंने इस स्थान को अपने लिए सबसे अधिक उपयुक्त और सुरक्षित समझा होगा अर्थात यह भी समझ लिया होगा कि भारत के लोग उनका विरोध नहीं करेंगे। यूएची लोगों का प्रारंभिक काल – यूएची लोगों का सामना ह्युगनु कबीलों से होता रहता था । ह्युगनु एक बलशाली कबीला था । जिसने अपने बल से यूएझी लोगों को इनके क्षेत्र से मार भगाने में सफलता प्राप्त की। बताया जाता है कि ह्युगनु के राजा ने ह्यूची के राजा की हत्या कर दी। ह्यूची राजा की रानी के नेतृत्व में ह्यूची या यूएझी लोग वहाँ से पश्चिम दिशा में अपने लिए सुरक्षित स्थान या देश खोजने के उद्देश्य से निकल पड़े। उस समय संपूर्ण संसार संक्रमण काल से गुजर रहा था। यह वह समय था जब आर्यों के विशाल साम्राज्य का पतन हो चुका था और वह इधर – उधर या तो बिखरे पड़े थे या फिर सिमटकर तत्कालीन भारतवर्ष की सीमाओं तक रह गए थे। संक्रमण के उस काल में कभी आर्यों के शासन के अधीन रही खाली पड़ी भूमि पर लोग कब्जा करने के लिए भागते थे। इस प्रसंग में हमें ध्यान रखना चाहिए कि अंग्रेजों और उनसे पूर्व मुगलों के काल में भारत के लोगों ने भी बड़ी मात्रा में मुगलों के जजिया कर और अंग्रेजों के भी मालगुजारी आदि के कठोर कानूनों के चलते अपनी जमीन को जोतना बोना छोड़ दिया था । उनके द्वारा छोड़ी गई वह भूमि सरकारी भूमि हो गई । आजादी के बाद देश के बहुत से स्थानों पर देश की सरकारों ने खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लोगों को इस जमीन को फिर से उपजाऊ करने के लिए पट्टे पर देना आरम्भ किया। इतना ही नहीं कितने ही स्थानों पर जिन किसानों ने जमीन को तोड़ लिया अर्थात जोत बो करके अपने खेत में मिला लिया , उस जमीन को सरकार की ओर से उन्हीं की मान लिया गया। कहने का अभिप्राय है कि जैसे उस सरकारी जमीन को अपनी जोत में मिलाने की आपाधापी आजादी के समय के एकदम बाद हमारे देश के किसानों में मची थी , वैसी ही आर्यों के द्वारा छोड़ी गई भूमि , क्षेत्र , प्रांत या प्रदेश को असामाजिक तत्व या कबीले वैध या अवैध रूप से कब्जाने के कार्य में लगे हुए थे ।
संक्रमण के इसी काल में यूएझी लोग भी अपने मूल स्थान से भगा दिए गए । तब वह संक्रमण के उस काल में अपने लिए भूमि खोजने हेतु दूसरे स्थान की खोज में चले। रास्ते में ईली नदी के तट पर इनका सामना व्ह्सुन नामक कबीलों से हुआ। व्ह्सुन इनके भारी संख्याबल के सामने टिक न सके और परास्त हुए। ह्यूची लोगों ने उनके उपर अपना अधिकार कर लिया। यहाँ से ह्यूची दो भागों में बंट गये, ह्यूची का जो भाग यहाँ रुक गया वो लघु ह्यूची कहलाया और जो भाग यहाँ से और पश्चिम दिशा में बढा वो महान ह्यूची कहलाया। महान ह्यूची का सामना शकों से भी हुआ। शकों को इन्होंने परास्त कर दिया और वे नये निवासों की खोज में उत्तर के दर्रों से भारत आ गये। ह्यूची पश्चिम दिशा में चलते हुए अकसास नदी की घाटी में पहुँचे और वहां के शान्तिप्रिय निवासियों पर अपना अधिकार कर लिया। सम्भवतः इनका अधिकार बैक्ट्रिया पर भी रहा होगा। इस क्ष्रेत्र में वे लगभग 10 वर्ष ई0पू0 तक शान्ति से रहे। चीनी लेखक फान-ये ने लिखा है कि यहाँ पर महान ह्यूची 5 शाखाओं में विभक्त हो गये। जिनके नाम ह्यू मी , चांगमी , हीथुन , कुवेई-च्वांग तथा काऊफू थे। इस विभाजन के लगभग 100 वर्ष पश्चात कुई-च्वांग ने क्यु-तिसी-क्यो के नेतृत्व में अन्य चार शाखाओं पर विजय प्राप्त की और उन्हें अपने अधीन कर लिया। क्यु-तिसी-क्यो को राजा बना दिया गया। क्यु-तिसी-क्यो ने लगभग 80 वर्ष तक शासन किया। उसके पश्चात उसके पुत्र येन-काओ-ट्चेन ने शासन सम्भाला। उसने भारतीय प्रान्त तक्षशिला पर विजय प्राप्त की। चीनी साहित्य में ऐसा विवरण मिलता है कि, येन-काओ-ट्चेन ने ह्येन-चाओ (चीनी भाषा में जिसका अभिप्राय है – बड़ी नदी के किनारे का प्रदेश जो सम्भवतः तक्षशिला ही रहा होगा)। यहां से कुई-शुआंग की क्षमता बहुत बढ़ गयी और कालान्तर में उन्हें कुषाण कहा गया। कुवेई-च्वांग से कुवेईशांग बना और कुवेईशांग से कुषाण शब्द प्रचलित हुआ। इतिहासकारों ने सिक्कों व शिलालेखों का मिलान करने पर यह भी सिद्ध किया कि चीनियों ने जिस कबीले या उपजाति को अपनी भाषा में कुवेईच्वांग लिखा है वह कुषाण अथवा कुशान और उसका नेता या प्रथम सम्राट कुजुलकदफिस था।
– डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक – उगता भारत
वैदिक परंपरा का संवाहक गुर्जर सम्राट कनिष्क महान – भारत सहित मध्य एशिया एवं यूरोप के कुछ देशों तक अपना सामाजिक एवं राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने वाला गुर्जर समुदाय महान सम्राट कनिष्क पर गर्व अनुभूति करता है भारत में ‘शक संवत’ (78 ई.) का प्रारम्भ करने वाले कुषाण सम्राट कनिष्ट की गणना भारत ही नहीं एशिया के महानतम शासकों में की जाती है। इसका साम्राज्य मध्य एशिया के आधुनिक उज़्बेकिस्तान तजाकिस्तान, चीन के आधुनिक सिक्यांग एवं कांसू प्रान्त से लेकर अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और समस्त उत्तर भारत में बिहार एवं उड़ीसा तक फैला था। कनिष्क ने देवपुत्र शाहने शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘बैक्ट्रिया’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान एवं दक्षिणी उज़्बेकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी संस्कृति का एक केन्द्र था। कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य रूप से मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। दुनिया भर के इतिहासकारों ने उत्खनन में प्राप्त पुरातत्व सामग्री एवं अन्य ऐतिहासिक स्रोत के आधार पर गुर्जर सम्राट कनिष्क के विराट व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए विश्व के महान साम्राज्य अधिपति के रूप में गुणगान किया है गुर्जर सम्राट कनिष्क कुषाण का इतिहास जानने के लिए ऐतिहासिक सामग्री की कमी नहीं है उसके बहुत से सिक्के उपलब्ध हैं और ऐसे अनेक उत्कीर्ण लेख भी मिले हैं जिनका कनिष्क के साथ बहुत गहरा संबंध है इसके अतिरिक्त बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है सम्राट कनिष्क महान यज्ञ प्रेमी तथा सूर्य का उपासक रहा है सूर्य जिसे वैदिक रचनाओं में परम तेजस्वी की संज्ञा दी गई है तथा गायत्री महामंत्र में जिसमें सूर्य की महिमा का व्यापक वर्णन किया गया है उसी वैदिक परंपरा का निर्वहन करते हुए सम्राट कनिष्क ने न केवल सूर्य उपासक के रूप में बल्कि अपने सिक्कों सूर्य का प्रतीक अंकित किया साथ ही स्वयं ने मिहिर जो कि सूर्य का पर्यायवाची है की उपाधि धारण की गुर्जर सम्राट कनिष्क कला संस्कृति तथा वैदिक परंपराओं का महान संवाहक थे, सम्राट कनिष्क ने विशाल साम्राज्य के सृजन के साथ साथ वैदिक परंपराओं को आत्मसात करते हुए आर्य गौरव की स्थापना की सम्राट कनिष्क कुषाण वंशीय थे जिसे वर्तमान कसाना के गोत्र के रूप में जाना जाता है तथा ऐतिहासिक दस्तावेज के अनुसार चीनी भाषा में यूची जाति से उनका रक्त संबंध था जिसका चीनी से हिंदी अनुवाद गुर्जर होता है। मानवीय नस्ल केशोद परख शोध परक तथ्यों के आधार पर गुर्जर समुदाय के लोग नाक नक्श एवं दहेज बनावट को देखते हुए आर्य नस्ल सबसे सटीक सिद्ध हुए हैं ऐसे में अपने आर्य रक्त की परंपराओं का निर्वहन करते हुए गुर्जर सम्राट कनिष्क ने म्यूजिक परंपरा एवं सूर्य उपासना आदि वैदिक मान्यताओं को आत्मसात किया तथा उत्कीर्ण देखो लेखों एवं सिक्कों पर भी यज्ञ में आहुति देते हुए वह सूर्य के चित्र के साथ सिक्कों को जारी किया गया
कुषाण प्राचीन भारत के राजवंशों में से एक था। कुछ इतिहासकार इस वंश को चीन से आए युएची लोगों के मूल का मानते हैं। युरोपियन इतिहासकारों नें युएझी/यूची कबीले को प्राचीन आर्य से जुड़ा बताया है,प्रो वी एस स्मिथ एवं ए कनिंघम इन्हें आर्यों से जोड़ते हुए बताते हैं कि ये उन्हीं आर्य कबीलों में से हैं जो कि कई दौर में भारत आये अत: कुषाण शुरुआती दौर में कोसानो लिखते थे तथा गुसुर कबीले के थे जैसा कि राबातक के अभिलेखों में है अतः इन कबीले ने अपने आप को गुर्जरों के कषाणा/कसाणा कबीले में आत्मसात कर लिया होगा। इसी वजह से सम्राट कनिष्क ने अपना नाम और राजकीय भाषा भी बैक्ट्रीयन आर्य भाषा कर ली, कुषाणों की मुख्य बोलचाल की भाषा गुर्जरी/गांधारी थी अत: यहां एक मजबूत प्रमाण और मिल जाता है कि वो कषाणा समुदाय में सम्मिलित हुए और इस तरह पूरी तरह आर्य संस्कृति में कुषाण अपने आप को आत्मसात करके आर्य्यावर्त्त में शासन करने लगे। अफगानिस्तान के इतिहासकारों के अनुसार वो कोसाना(गुज्जर) कबीले से सम्बंध रखते हैं। गुर्जर सम्राट कनिष्क के विदेशी परंपरा के साथ जोड़ने वाले पाश्चात्य इतिहासकारों ने कुषाण वंश को आर्य वंश में जोड़ते हुए इसके गुर्जरों के कसाना वंश में समायोजित करने सत्यता यह है कि कुषाण वंश विशुद्ध रूप से आर्य गुर्जर वंश था जो वर्तमान में कसाना गोत्र के रूप में स्थापित है, गुर्जर सम्राट कनिष्क कुषाण शासनकाल- 127 ई. से 140-51 ई. लगभग कुषाण वंश का प्रमुख सम्राट् था। गुर्जर सम्राट कनिष्क कुषाण भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। गुर्जर सम्राट के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी मुद्राओं पर यूनानी, ईरानी, हिन्दू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है । ‘एकंसद् विप्रा बहुधा वदंति’ की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक स्वरूप दिया। कनिष्क के बहुत से सिक्के वर्तमान समय में उपलब्ध होते हैं। इन पर यवन (ग्रीक), जरथुस्त्री (ईरानी) और भारतीय सभी तरह के देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ अंकित हैं। ईरान के अग्नि (आतश), चन्द्र (माह) और सूर्य (मिहिर), ग्रीक देवता हेलिय, प्राचीन एलम की देवी नाना, भारत के शिव, स्कन्द वायु और बुद्ध – ये सब देवता उसके सिक्कों पर नाम या चित्र के द्वारा विद्यमान हैं। इससे यह सूचित है, कि कनिष्क सब धर्मों का समान आदर करता था, और सबके देवी-देवताओं को सम्मान की दृष्टि से देखता था। इसका यह कारण भी हो सकता है, कि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। इस प्रकार सम्राट कनिष्क अपनी आर्य नस्ल एवं वैदिक मर्यादाओं से आच्छादित था तथा उसने भारत के पहले सूर्य मंदिर निर्माण की बात हो बड़े-बड़े महायज्ञ आयोजन की बात हो भारत ईरानी आर्य भाषा को आत्मसात करने की बात हो अपने सिक्कों पर यज्ञ में आहुति देते हुए एवं सूर्य के चित्र अंकित करने की बात हो अथवा स्थापत्य कला एवं सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की बात हो प्रत्येक क्षेत्र में गुर्जर सम्राट कनिष्क महान का वैदिक मर्यादा से ओतप्रोत चरित्र दृष्टिगोचर होता है।
– डॉ यतीन्द्र कटारिया गुर्जर
पूर्व सदस्य राजभाषा सलाहकार समिति श्रम एवं रोजगार मंत्रालय भारत सरकार
रामचन्द्र के पुत्र कुश का कुशाण वंश महान।
सम्राट कुचुल से कनिक तक योद्धा कीर्तिमान।
चीन से काला सागर अल्ताई से नर्वदा।
संघों के बाद भी विस्तार करते रहे सदा।
पहली सदी काठियावाड़ में अनेकों मन्दिर बनवाए।
तुझको छोड़कर भारत का इतिहास लिखा ना जाए।
सम्राट कनिष्क के पुत्र हुए सम्राट हुविष्क महान।
माहेश्वर देवपुत्र शाहानुशाही कहलाए दानी कर्ण समान।
कुषाण वंश के आखरी सम्राट वासुदेव।
विघटन फिर शुरू हुआ लड़ते रहे सदैव।
– भाई तेलूराम, गुर्जर आज तक, पृष्ठ संख्या 13
कुशान वंश गुर्जर है।
– भाई तेलूराम, गुर्जर आज तक, पृष्ठ संख्या 19 से 21
यह स्पष्ट है कि कुषाण महाराजा दशरथ के पौत्र कुश के वंशज होने के कारण गुर्जर वंशीय है।
– प्रोफेसर मनुदेव शास्त्री, गुर्जर साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 23
अभिलेखों को देखने से इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुंचा जा सकता है कि इतिहास प्रसिद्ध कुषाण वंश निश्चय ही गुर्जरों का प्राचीन वंश है जो आज भी कसाना या कुषाण के रूप में विद्यमान हैं।
– डॉ दयाराम वर्मा, गुर्जर साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 33
इतिहास अतितग्रसता नहीं है, बल्कि इतिहास का अध्ययन हमारे अंदर इतिहास बोध और चेतना उत्पन्न करता है। प्राचीन काल में अपने अन्य भारतीय भाई बहनों की तरह गुर्जरों ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में अनुपम योगदान किया है। गुर्जरों के पूर्वजों ने प्राचीन भारत में तीन साम्राज्यों का निर्माण किया – कुषाण साम्राज्य तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य। भारतीय राष्ट्रीय संवत – शक संवत के प्रवर्तक सम्राट कनिष्क (78 – 101 ई), शिवभक्त सम्राट मिहिरकुल हूण (502 – 542 ई) तथा आदि वराह सम्राट मिहिरभोज (836 – 885 ई) क्रमशः इनके प्रतिनिधि आइकन है। गुर्जरों में इतिहास चेतना उत्पन्न करने हेतु उनके द्वारा इनके इतिहास का अध्ययन करना तथा इनकी ऐतिहासिक विरासत को आत्मसात करना आवश्यक है।
– डॉ सुशील भाटी मेरठ, गुर्जर वीर गाथा भाग प्रथम, पृष्ठ संख्या 11
कुश के वंशज कुषाण जो बाद में कसाना गौत्र में परिवर्तित हो गए।
– यशवंत सिंह मण्डलोइ, गुर्जर और राजपूतों का गौरवशाली इतिहास, पृष्ठ संख्या 9
भगवान राम के पुत्र कुश के राज्य को कुश प्रदेश कहते थे। कुश के वंश का प्रसार उत्तर तथा उत्तर पूर्व की ओर हुआ। कश्मीर का नाम कुश के कारण पड़ा। लव के वंश का विस्तार पश्चिम की ओर हुआ। लव के नाम से लाहौर शहर का नाम पड़ा। कुश प्रदेश को वर्तमान में चेचन्या के नाम से जानते हैं। वहां के निवासियों को चीनी लोग युहेची या चेची कहते थे। जिसका अर्थ ‘बहुत शक्तिशाली’ होता है। यही चेची कुषाण है जो सूर्यवंशी कुश के वंशज है। अतः कसाना, चेची और कुषाण गुर्जर सूर्यवंशी है। कुषाण वंश का प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क था। जिसकी राजधानी कश्मीर थी।
– यशवंत सिंह मण्डलोइ, गुर्जर और राजपूतों का गौरवशाली इतिहास, पृष्ठ संख्या 15
कुषाण गुर्जर साम्राज्य (46 ई से 276 ई) या 230 वर्ष।
– यशवंत सिंह मण्डलोइ, गुर्जर और राजपूतों का गौरवशाली इतिहास, पृष्ठ संख्या 41
कुषाण गुर्जर राजाओं का शासन उत्तर में मध्य एशिया से दक्षिण में विद्याचल तक फैला हुआ था। कुषाण गुर्जर बड़ी शक्तिशाली और शासन करने वाली परिश्रमी कौम रही हैं। देशी विदेशी इतिहास लेखकों ने कुषाणों और गुर्जरों को अलग अलग तथा विदेश आक्रमणकारी सिद्ध करने में यद्यपि कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु जब भारतीय इतिहासकारों में शोध की आंधी बही तब उनके सम्मुख भी कई प्रश्न खड़े होने लगे। नई खोजों व तथ्यपूर्ण तर्कों ने ऐसे लेखकों और इतिहासकारों के मनसूबों पर पानी फेर दिया। उन्होंने तर्क वितर्क कर ऐसे प्रमाण खोज निकाले जिनके निष्कर्ष कुषाणों को गुर्जर मानने पर उन्हें विवश करने लगे। भारतीय इतिहासकारों ने ऐसे प्रमाण भी खोज निकाले जिनसे ज्ञात हुआ कि कुषाण आर्य भी थे और गुर्जर भी। हूणों के बारे मे भी यही निष्कर्ष इन लोगों के सामने आये कि वे भी भारत मूल के थे और गुर्जर ही थे।
– दुर्गाप्रसाद माथुर, गुर्जर जाति का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ संख्या 36 व 37
वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित है कि हूण, चोला, पह्लव, कुषाण तथा शक सब गुज्जर ही थे और आज भी गुज्जरों में हूण, कुषाण , कसाने आदि गौत्र मिलते है।
– डॉ मस्तराम कपूर, गुज्जर स्वाभिमान, पृष्ठ संख्या 4
ईरान के पूर्व का क्षेत्र वर्तमान अफगानिस्तान ओल्ड टेस्टामैन्ट में कुश के नाम से लिखा है। मध्य एशिया के लोग इसे हिन्दू कुश कहते थे। जब कनिष्क गद्दी पर बैठा उसे कुषाण कहा गया। जनरल कनिंघम ने गुर्जर तथा कुषाणों को एक बताया है देखिए ओर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट भाग 2, पृष्ठ 61 पर। इस नाम का गुर्जरों में एक गोत्र भी है। कुषाण अपने आप को लव के छोटे भाई राजा कुश की संतान बताते हैं। लव ने लाहौर बसाया तथा कुश ने कसूर। कुश इसी क्षेत्र में बस गया तथा मर गया। इसलिए उसके नाम से यह क्षेत्र प्रसिद्ध हैं। उसके पिता श्री रामचन्द्र जी यहाँ आए थे। इसलिए अपने पिता की स्मृति में कुश ने एक चबूतरा बनाया। पत्थर पर श्री रामचंद्र जी का पूजा का चबूतरा आज भी स्वात घाटी में विद्यमान है। (देखिए स्वात द्वारा एस ए खान पृष्ठ 61)।
– राणा अली हसन चौहान, गुर्जरों का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ संख्या 31 व 32
गुर्जर जाति के कुषाण वंश के शासकों ने केवल अपने प्रथम सम्राट इक्ष्वाकु की शौर्यपूर्ण गाथाओ को द्वीप द्वीपान्तर तक पहुंचाया था, अपितु हिन्दू संस्कृति सभ्यता को भी चार चांद लगाए थे। मध्य एशियाई देशों में पुरातत्वविदों को वहाँ के प्राचीन टीलों से जो पुरातात्विक सामग्री मिल रही है उससे इसकी पुष्टि होती है। गुर्जर जाति के इस प्रसिद्ध वंश का अधिकांश इतिहासकार विशद वर्णन तो करते हैं किंतु इस वंश की गुर्जर जाति से सापेक्ष स्थिति के विषय में प्रायः मौन रहे हैं। सर्व प्रथम जनरल कनिंघम ने स्पष्ट किया था कि कुषाण लोग गुर्जर थे। बम्बई गजेटियर में भी इस वंश को स्पष्टत: गुर्जर कहा गया है। डॉ. वेदप्रताप वैदिक, पदम् श्री डॉ श्याम सिंह शशि, बाबू रतनलाल वर्मा, डॉ जयसिंह गुर्जर और राणा अली हसन चौहान ने भी कुषाण वंश को गुर्जर जाति का अभिन्न अंग स्वीकार किया है।
– डॉ दयाराम वर्मा, गुर्जर जाति का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ संख्या 78 व 79
वेदों की रक्षा कुषाणों से आरंभ हुई और वेदों को पूर्ण प्रतिष्ठित किया नागभट्ट ने। कुषाण निःसन्देह गुर्जर है और मूलतः आर्य ही है।
– डॉ दीनबंधु पाण्डे, गुर्जर गौरव मासिक पत्रिका, फरवरी 2001 का अंक
प्रोफेसर आर. के. शर्मा (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय) ने द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय गुर्जर इतिहास सम्मेलन कुरुक्षेत्र में दिनांक 18 नवंबर 2001 को अंतिम सत्र की अध्यक्षता करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में गुर्जर और कुषाणों को अभिन्न बताते हुए कहा कि “कनिष्क गुर्जर राजवंश का वरिष्ठतम सेनानायक था। उसकी राजधानी पुरुषपुर थी। गुर्जर विस्तृत क्षेत्र में व्याप्त थे। कनिष्क के पास गज, अश्व व ऊंट सेनाएं थीं। कनिष्क ने गुर्जर समाज को शक्ति दी। वह निसन्देह गुर्जर था। गुर्जर सदैव भारत के रक्षक और प्रहरी रहे है।
– प्रोफेसर आर के शर्मा, गुर्जर गौरव मासिक पत्रिका, फरवरी 2001 का अंक
सूर्यवंशी राजा रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंश का फैलाव उत्तर तथा उत्तर पूर्व की ओर हुआ तथा जम्बूद्वीप क्षेत्र से बाहर शकद्वीप तक फैला जबकि चन्द्रवंशी कुश जम्बूद्वीप में ही दक्षिण को फैले। इसके अतिरिक्त सम्राट कुजुल के सिक्कों पर ‘महरइस रयरयसदेवपुत्रम’, ‘महरजस महतस कुषाण’, ‘कुजुल-कुश महरयस राजतिरजस यवगुस ध्रमठीदस’ उसकी उपाधियां लिखी है। इसमें कुजुल के साथ कुश शब्द कुषाण के स्थान पर यह दर्शाता है कि कुजुल कुशवंशी था, जिसने अपने पूर्वज का नाम अपने सिक्कों पर लिखवाया। अतः हम उपरोक्त प्रमाणो व अन्य अनेक उपलब्ध प्रमाणों (नगरों, पहाड़ों, नदियों आदि के नामों) से यह कह सकते हैं कि ऐतिहासिक नाम कुषाण सूर्यवंशी राजा कुश के वंशजों का पड़ा। जिसमें क्षेत्रीय हिसाब से थोड़ा बहुत भाषायी प्रभाव आया। अब इस निष्कर्ष को निकालने के बाद कि कुषाण सूर्यवंशी राम के पुत्र कुश के वंशज है यह बात सहज ही समझ मे आ जाती है कि कुषाण सम्राट गुर्जर थे।
– डॉ जयसिंह, ‘गुर्जर और उनका इतिहास में योगदान’ में प्रकाशित शोधपत्र “कुषाण गुर्जर वंशीय थे” पृष्ठ संख्या 217
गुर्जर जाति के कुषाण वंश (कसाने) का पहला प्रमुख सम्राट कनिष्क था, जिसकी केंद्रीय राजधानी पेशावर (पुरुषपुर) थी। मथुरा उसकी प्रादेशिक राजधानी थी। वह सन 78 ई में गद्दी पर बैठा था। उसने समस्त उत्तरी भारत, मध्य एशिया व ईरान आदि देशों को विजय करके एक महान कुषाण साम्राज्य की स्थापना की थी। उसने चीन को हराकर मंगोलिया तक के देश अपने कब्जे में कर लिए थे।
– श्री प्रिंसिपल गणपति सिंह का लेख ‘साम्राज्य की संस्थापक गुर्जर जाति’ जो तृतीय गुर्जर इतिहास सम्मेलन की स्मारिका के पृष्ठ संख्या 14 पर प्रकाशित हुआ था।
वस्तुतः गुर्जर एक कौम नहीं, एक समूची संस्कृति का नाम है, जो 220 ई. पू. से लेकर 13वीं शताब्दी तक उत्तर पश्चिमी भारत और मध्य एशिया में फलती फूलती रही। इस सम्पूर्ण काल में वह कभी हूणों के रूप में कभी कुषाणों के रूप में और कभी प्रतिहारों के रूप में राजनैतिक मंच पर आरूढ़ रही है।
– डॉ मान सिंह वर्मा, राजा नैन सिंह नामक स्मारिका में प्रकाशित शुभकामना संदेश
कुषाण गुर्जर क्षत्रियों की एक शाखा है।
– डॉ केआर गुर्जर, गुर्जर क्षत्रिय उत्पत्ति एवं साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 76
कुषाण गुर्जर साम्राज्य (46 ई. से 385 ई.)
– डॉ केआर गुर्जर, गुर्जर क्षत्रिय उत्पत्ति एवं साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 162 से 184
रामायण काल से बनी पृथक पहचान श्रेष्ठतम जाति की।
महिमा अभिलेखों, वर्णित गुर्जर वीरों की ख्याति की।
राम कृष्ण लक्ष्मण लवकुश के वंशज ये रहते निर्भय।
जिनके अद्वितीय सम्राटों में गणना है कनिष्क महान की।
जिसके आधीन रही धरती अफगान चीन ईरान की।
पेशावर प्रमुख राजधानी मथुरा भारतीय प्रदेशों की।
दो सौ वर्षों तक शानदार पहचान कुशान नरेशों की।।
– नारायण सिंह पटेल, गुर्जर नव सन्देश, संवत 2067, पृष्ठ संख्या 4
गुरुत्तर गुरु सभ्यता और संस्कृति के पोषक गुर्जर सम्राट कनिष्क महान। गुरुत्तर गुरु गुर्जर शकार्य सभ्यता और संस्कृति के गौरव कुषाण साम्राज्य के अंतर्गत सम्राट कनिष्क के शासनकाल को कहा जा सकता है। सम्राट कनिष्क का साम्राज्य 78 ईस्वी से 101 ईसवी के लगभग रहा। सम्राट कनिष्क को वैदिक संस्कृति एवं सौर धर्म का रक्षक अथवा पोषक कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। कुषाण सूर्यवंशी गुर्जर परंपरा में माने जाते हैं। भारत वर्ष के इतिहास में मौर्य युग की भांति कुषाण काल की सभ्यता और संस्कृति की उन्नति के पीछे भी एक विशाल साम्राज्य द्वारा प्रदत्त सुविधाएं थी, जिन के अभाव में समृद्ध संस्कृति की विशेष उन्नति संभव न थी। मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात कुषाण साम्राज्य ही इतना विशाल था जिसके अंतर्गत न केवल संपूर्ण उत्तरी भारत अपितु इसके बाहर के भी पर्याप्त भूभाग मध्य एशिया तक के सम्मिलित थे। सम्राट कनिष्क के शासन काल में भारत का विदेशों के साथ में घनिष्ठ संपर्क स्थापित हुआ। इस दृष्टि से कुषाण काल भारतीय संस्कृति के इतिहास में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। सांस्कृतिक दृष्टि से कुषाण युग में कई नवीन तत्वों का उदय हुआ जिनका बाद में भारतीय संस्कृति में काफी महत्वपूर्ण स्थान हो गया। सम्राट कनिष्क के शासन काल में यज्ञ संस्कृति एवं सौर धर्म का पुनरुत्थान हुआ। कनिष्क ने”देव”उपाधि धारण की। कनिष्क के शासनकाल में महायान को बौद्ध धर्म के रुप में मान्यता प्रदान की गई।मध्य और पूर्वी एशिया में बौद्ध धर्म के साथ साथ भारतीय संस्कृति का प्रचार होने लगा। कुषाण युग की आर्थिक व्यवस्था ने सभ्यता की उन्नति को प्रोत्साहन दिया।यह युग साहित्यिक रचनाओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण युग था। कनिष्क विद्वानों का आश्रय दाता था।अश्वघोंष इस समयावधि में साहित्य प्रगति का नेता था। नागार्जुन ने दर्शन ग्रंथों की रचना का कार्य किया।चरक को कनिष्क का राज वैद्यराज कहा जाता है। उसने चिकित्सा शास्त्र की रचना की। कनिष्क के शासन में गांधार कला की प्रगति हुई। गांधार और मथुरा कनिष्क के समय के प्रमुख कला केंद्र थे। मथुरा की सभी कलाकृतियों का लाल पत्थर में निर्माण हुआ। मथुरा कला का भरहुत और सांची की कलाओं के साथ निकट संबंध है सांचीक् और भरूहुत की कलाकृतियों में एक प्रकार की सूक्ष्म प्रतीकात्मकता का आभास मिलता है जिसका मथुरा की कला में अभाव है। कनिष्क के शासन काल में सूर्य की आदम कद प्रतिमाओं एवं अनेक सूर्य मंदिरों का निर्माण हुआ। कनिष्क का प्रभावी राज्य क्षेत्र कश्मीर भी रहा है। कनिष्क की राजधानी पेशावर और मथुरा रही है।
– डॉ मोहनलाल वर्मा, संपादक – देव चेतना
सम्राट कनिष्क महान 78 ई. से 120 ई.(कुषाण साम्राज्य) – गुर्जर मनुपुत्र इक्ष्वाकु के वंशज है। इक्ष्वाकु की राजधानी कौशल (अयोध्या) थी।यह क्षेत्र आर्यावर्त कहलाता था जो भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान का क्षेत्र पड़ता था।आर्यावर्त का विस्तार करते हुए इक्ष्वाकु पुत्र यहां से पलायन कर उत्तर की ओर गए।यह क्षेत्र शकदीप कहलाया और इक्ष्वाकु वंशज ऋषिक कहलाए ।चीनी भाषी लोगों ने इन्हे यू ची कहा,यू ची से बात में चेची शब्द बना। शकदीप के ऋषिकों की बड़ी खांप खटाना, कुषाण, श्वेत हूण कहलाए। शकदीप के आर्यों की 14 खापें हुई, चेची से कुषाण शाखा बनी जो सबसे शक्तिशाली थी।शेष शाखाएं श्वेत हूण,शक,खटाना(खोटान) राज्य हुए। 1. महाभारत में विवरण मिलता है कि राजसूय यज्ञ के समय अर्जुन अश्वमेघ लेकर शकदीप गया था तथा शकदीप के ऋषिको, कुषानो से युद्ध किया था। 2. डा. श्याम सिंह शशि ने कुषाणो को कुश की संतान माना है। 3. साईक्लोपीडिया ब्रटानिका के खंड 2_ 3 के पृष्ठ संख्या 639 में कुषाणो को गुर्जर लिखा है। 4.अलबरूनी की पुस्तक लंदन में के अनुसार कुशानो की 60 पीढ़ियों ने काबुल पर शासन किया। 5.ब्रह्म सिद्धांत पुस्तक में कनिष्क का वंशक्रम महाभारत के युधिष्ठिर तक दर्शाया गया है तथा कनिष्क से पहले की पीढियां भी ब्रह्म सिद्धांत पुस्तक में दर्ज है। 6.तारीख ए गुर्जर पुस्तक के लेखक राणा अली हसन चौहान ने पृष्ठ संख्या 435 में भी उपरोक्त लिखा है। 7.चरक संहिता के रचयिता ऋषि चरक कनिष्क कुषाण का दरबारी मंत्री था। 8. कुषाणो (सम्राट कनिष्क )के संबंध में टोकियो इंपिरिल यूनिवर्सिटी के प्रो. श्री हाजिमें नकामपुरा जो संस्कृत,पाली व इतिहास के विद्वान थे। उनको भारत के राष्ट्रपति डा. राधाकृष्ण ने विद्या वाचस्पति की मानस उपाधि दी थी।उन्होंने पुस्तक वे ऑफ थिंकिंक ईस्टर्न पीपल के पृष्ठ संख्या 170 से 171 में कनिष्क को कसाना गुर्जर लिखा है। कुषाण साम्राज्य की पीढियां – 1.कुजुल कदाफिश 25 ई. 50 ई. तक। राजधानी पुरुषपुर(पेशावर) थी। 2. विम कदाफीश (कदाफिश द्वितीय) 50 ई. से 78 ई. तक रहा। सोने के सिक्कों का प्रचलन किया। 3.कनिष्क महान ने 78 ई.से 120 ई तक शासन किया ,यह विश्व के 4 साम्राज्यो चीन, कुषाण, पर्शिया,रोम में से एक था। इनकी राजधानी पेशावर तथा ब्रांच मथुरा थी।चरक इनका मंत्री व राजवेद्य था।वर्तमान शक संवत कनिष्क महान ने 78 ई. से चलाया था। 4.सम्राट हुविषक 120 ई. से 152 ई. तक (कनिष्क का पुत्र)। 5. वासुदेव प्रथम 152 ई. से 186 ई. तक। इनके बाद कुषाण साम्राज्य बंट गया तथा 425 ई. तक रहा।उसके बाद कुषाणो के मंत्री लालिया शाही ब्राह्मण ने सत्ता पर कब्जा कर लिया।
– शैतान सिंह गुर्जर, राष्ट्रीय महासचिव – गुर्जर इतिहास साहित्य एव भाषा शोध संस्थान