डॉ. जीतराम भट्ट
कुछ लोगों का कहना है कि संस्कृत केवल पूजा-पाठ की ही भाषा है। किन्तु यह सत्य नहीं है। संस्कृत-साहित्य के केवल पॉच प्रतिशत में धर्म की चर्चा है। बाकी में तो दर्शन, न्याय, विज्ञान, व्याकरण, साहित्य आदि विषयों का प्रतिपादन हुआ है। संस्कृत पूर्ण रूप से समृद्ध भाषा है। ग्रीक और लेटिन दोनों प्राचीन भाषाओं की पुस्तकें एकत्र की जायें तो संस्कृत-साहित्य की तुलना नहीं कर सकती। संस्कृत का वैदिक साहित्य ज्ञान-विज्ञान का खजाना है। ललित कलाओं का मौलिक ज्ञान भी संस्कृत की पुस्तकों से प्राप्त हुआ है। संस्कृत-साहित्य की खोज ने ही तुलनात्मक भाषा-विज्ञान को जन्म दिया। संस्कृत के अध्ययन से भाषा-शास्त्र को पहचान मिली। अध्यात्म और दर्शन तो मूल रूप से संस्कृत भाषा की ही देन हैं।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम जब ग्रीस गये, तब वहाँ के माननीय राष्ट्रपति कार्लोस पाम्पाडलीस ने उनका स्वागत संस्कृत भाषा में ‘राष्ट्रपतिमहाभागा: सुस्वागतम् यवनदेशेÓ कह कर किया था।
सेंट स्टीफन कॉलेज के प्रिन्सिपल एक बार विदेश-यात्रा पर थे, उन्हें वहाँ के बुद्धिजीवियों ने संस्कृत में गीता के श्लोक सुनाने के लिए कहा, किन्तु उन्हें वह कंठस्थ नहीं थे। बाद में जब वह गीता पढ़ कर दोबारा वहाँ गये तो उन्होंने गीता के श्लोक सुनाए।
प्रतिष्ठित पत्रकार शहीद लाला जगतनारायण रूस गये। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि ‘वे वहाँ एक पुस्तकालय देखने भी गये। वहाँ द्वार पर संस्कृत भाषा में स्वागत और परिचय हुआ। रशियन संस्कृत में पूछते थे और हम अंग्रेजी में उत्तर देते थे। हमें बड़ी शर्म महसूस हुई। ये सभी प्रसंग हमें याद दिलाते हैं कि भारत की पहचान संस्कृत भाषा और उसके साहित्य से है। विदेशों में भारत के विषय में बातचीत होती है तो वेद, गीता, गंगा, पतंजलि, आर्यभट्ट, कालिदास आदि के बारे में उनकी जिज्ञासा होती है।
विश्व की ज्ञात भाषाओं में संस्कृत सबसे पुरानी है। भारत की सभी भाषाएं संस्कृत से ही निकली हैं। भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त फारसी, लैटिन, अंग्रेजी, श्रीलंका की भाषा, नेपाली, अफ्रीका के मूल निवासियों की भाषा, इण्डोनेशिया, मलेशिया एवं सिंगापुर की भाषाओं पर भी संस्कृत का प्रभाव है। उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी भाग मैक्सिको और पनामा राज्य की सीमा पर एक प्रान्त में संस्कृत से मिलती-जुलती भाषा बोली जाती है। इसलिए भाषा-विशेषज्ञों ने उनकी भाषा का नाम ब्रोन-संस्कृत और उन लोगों का नाम ह्वाइट-इण्डियन रखा। बाली द्वीप में संस्कृत मातृभाषा रही है। इससे सिद्ध होता है कि समस्त विश्व में संस्कृत का साम्राज्य था। आक्रमणों के कारण बाद में वह भारत तक ही सिमट कर रह गयी। और, भारत पर भी ई.पू. दूसरी शती से लगातार हुए आक्रमणों, युद्धों, विदेशी शासनों के कारण वह हाशिए पर चली गयी।
संस्कृत साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए विद्वानों ने उसे धार्मिक संस्कारों, कर्मकाण्ड आदि में अनिवार्य और कठोर अनुशासन के साथ जोड़ा। शास्त्रों को पढऩे के लिए कडे नियम बनाये गये, ताकि आक्रान्ताओं और शासकों तक बात पहँँुचाने वालों से बचा जा सके।
सैकड़ों -हजारों वर्षों तक जो भाषा विदेशी आक्रमण-कारियों का दंश झेल चुकी हो। स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद उसकी तुलना अंग्रेजी से होने लगी और प्रश्न उठाये जाने लगे कि यदि संस्कृत में ज्ञान-विज्ञान है तो भारत में विज्ञान पश्चिम से क्यों आयातित हो रहा है? संस्कृत के आधार पर विज्ञान के आविष्कार क्यों नहीं हो रहे हैं? संस्कृत-शास्त्रों के द्वारा केवल पूजा-पाठ ही क्यों होती है? स्वतन्त्रता से पहले भारत की मजबूरी थी कि भारत को अंग्रेजों के ही ज्ञान-विज्ञान का अनुकरण करना था। संस्कृत-शास्त्रों पर आधारित ज्ञान-विज्ञान पर शोध और आविष्कार तो आजादी के बाद होना था। किन्तु शोध और आविष्कार कहां से होते? संस्कृत को केवल एक भाषा मान कर उसे अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जोड़ दिया गया। इसलिए वर्तमान शिक्षा-पद्धति के कारण भारत में विज्ञान, तकनीक, गणित पढऩे वाले संस्कृत नहीं जानते और संस्कृत पढऩे वाले विज्ञान आदि विषयों को नहीं जानते हैं।
सन् 1783 में अंग्रेजों के शासन में कलकत्ता उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बन कर सर विलियम्स जोन्स भारत आये। वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े थे। उन्होंने ग्रीक, लैटिन, परसियन, अरबी, हिब्रू आदि भाषाओं का अध्ययन किया था। यहां आ कर उन्हें संस्कृत के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने बंगाली ब्राह्मण रामलोयन कवि भूषण से संस्कृत को सीखा और संस्कृत में दक्षता प्राप्त की। फिर उन्होंने ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम को पढ़ा और अध्ययन के मध्य में ही उन्होंने अपने पिताजी को पत्र लिखा कि ‘मैं दो हजार वर्ष पुराने एक संस्कृत नाटक को पढ़ रहा हूं, इसकी रचना हमारे महान लेखक शेक्सपीयर के इतने समीप है कि लगता है कि शेक्सपीयर ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् का अध्ययन तो नहीं किया था? बाद में उन्होंने शाकुन्तलम् का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। संस्कृत में अन्य पुस्तकें भी लिखीं। बाद में मैक्समूलर ने सेक्रेड बुक ऑफ ईस्ट नामक पुस्तक में संस्कृत और इसके साहित्य की बड़ी प्रशंसा की। जिससे समस्त यूरोप में संस्कृत-ज्ञान के लिए नई दृष्टि विकसित हुई। सन् 1845 में जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने सर्वप्रथम हितोपदेश कथा-संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात् भारतीय ज्ञान-विज्ञान से बहुत प्रभावित हुए और सन् 1846 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सम्पर्क कर ब्रह्मो समाज में सम्मिलित हो कर संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया। बाद में उन्होंने ऋग्वेद का जर्मन भाषा और अंग्रेजी में अनुवाद किया। मैक्समूलर ने चाल्र्स डार्विन की जीव-उत्पत्ति की थ्योरी को नहीं स्वीकारा, अपितु भारतीय विचारधारा के आधार पर सृष्टि के रहस्य को माना। मैक्समूलर के अनुवाद के बाद यूरोपवासियों में तो वेदों के प्रति जिज्ञासा बढ़ी। किन्तु,भारत में अंग्रेजी शासन ने संस्कृत को पनपने नहीं दिया।
यह हास्यास्पद है कि संस्कृत को आधुनिक भाषा नहीं माना जाता है और न ही इसे विकास की भाषा माना जाता रहा है। भारत में संस्कृत को पूजा-पाठ की भाषा या कठिन भाषा बताने का एक फैशन सा चल पड़ा है, जिसके कारण युगों-युगों से ऋषियों के द्वारा किये गये त्याग, तप, स्वाध्याय, अनुसन्धान से भारतीय समाज आज भी वंचित है। अत: मैं पाठकों से निवेदन करता हूं कि संस्कृत-ज्ञान-विज्ञान के विषय में सही जानकारी प्राप्त करें और भारत की इस प्राचीन धरोहर को उपेक्षित होने से बचायें।
इनके अतिरिक्त भी अनेक तथ्य हैं, जो संस्कृत की वैज्ञानिकता को प्रमाणित करते हैं। भारतीय भाषाओं के विकास के लिए संस्कृत का आधार आवश्यक है, क्योंकि सभी भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली संस्कृत की सहायता से ही विकसित की जा सकती है। भारतीय संविधान की धारा 343, धारा 348(2) तथा 351 का सारांश यह है कि ‘देवनागरी लिपि में लिखी मूलत: संस्कृत में अपनी पारिभाषिक शब्दावली को लेने वाली हिन्दी भारत की राजभाषा है। इसी प्रकार अन्य भारतीय भाषाओं के लिए संस्कृत की अनिवार्यता समझी जा सकती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि संस्कृत पढऩे से गणित, विज्ञान, प्रौद्योगिकी की शिक्षा में आसानी होती है। इसकी वर्णमाला पूरी तरह से वैज्ञानिक होने के कारण उच्चारणसे गले और मॅुंह की पूरी मांसपेशियों की कसरत करवाती है। इससे स्मरण-शक्ति भी बढ़ती है। विदेशों में स्पीच थैरेपी के लिए संस्कृत प्रयोग होने लगा है। वर्तमान में भारतीय शिक्षा-तन्त्र में संस्कृत का अध्ययन केवल भाषा के रूप में होता है और उसके लिए भी योग्य छात्र आगे नहीं आते। संस्कृत के विषय में फैलाये गये मिथ्या भ्रम के कारण विज्ञान और तकनीकी विषयों के छात्र इसको नहीं पढ़ते हैं, जिससे संस्कृत-शास्त्रों में स्थित ज्ञान-विज्ञान के लिए छात्रों में कोई रुचि पैदा नहीं होती है। कुछ लोग अभी भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं। वे संस्कृत को केवल ब्राह्मणों या हिन्दुओं की भाषा के रूप में प्रचारित करने पर आमादा हैं। उन्हें शायद ज्ञात नहीं है कि छटीं शताब्दी में शाह खुसरो नौशे खां ने पंचतन्त्र का फारसी में अनुवाद किया था। रहीम खानखाना स्वयं संस्कृत के विद्वान् थे और मूल संस्कृत में अनेक रचनाएं कीं। सन् 1420-70 में कश्मीर का शासक जैनुल आबदीन संस्कृत बोलता था और संस्कृत ग्रन्थों को पढ़ता था।
‘लेखपद्धतिÓ नामक ग्रन्थ के अनुसार गुजरात का प्राचीन सुल्तान बहुत समय तक राजभाषा के रूप में संस्कृत का ही व्यवहार करता था। भारतवर्ष में अनेक ऐसी मुस्लिम कब्रें भी मिली हैं, जिन पर संस्कृत में शिलालेख उत्कीर्ण हैं। अब्दुल रहमान नामक प्रसिद्ध साहित्यकार संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश का मर्मज्ञ विद्वान् था। सम्राट अकबर संस्कृत के महत्त्व को समझते थे और संस्कृत-विद्वानों को विशेष आदर देते थे। अबुल फजल के भाई फैजी संस्कृत के बहुत अच्छे विद्वान् थे। उन्होंने हिन्दी तथा संस्कृत की सम्मिश्रित भाषा में रहीमकाव्य की रचना की तथा खेटकौतुकम नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना भी की। शाहजहां ने भी संस्कृत की वैज्ञानिकता को स्वीकार किया था। राजकुमार दाराशिकोह संस्कृत का पारंगत विद्वान् था, जिसकी प्रेरणा से उपनिषदों, भगवद्गीता, योगवाशिष्ठ आदि का अनुवाद फारसी में हुआ। मुस्लिम राजपरिवार की विदुषी महिलाएं भी संस्कृत के महत्त्व को समझती थी। शाहजहाँ की बेगम रूपराशि विद्वान् मुनीश्वर, नित्यानन्द और वंशीधर की रचनाओं से अत्यन्त प्रभावित होती थी।
भारत के कई विद्यालयों और महाविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाने वाले ब्राह्मणों और हिन्दुओं से इतर मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन शिक्षक-शिक्षिकाएं भी हैं। गुजरात के सन्तरामपुर में आट्र्स एण्ड कामर्स कालेज में संस्कृत पढ़ाने वाले अध्यापक मुसलमान हैं। इसी कालेज की छात्रा यास्मीन बानो ने सन् 2013 में स्नातक में संस्कृत विषय से सर्वोच्च अंक प्राप्त कर कहा था कि ‘मैं इसी भाषा से मास्टर डिग्री करूगी, क्योंकि मुझे बचपन से ही संस्कृत पढऩे का शौक था, इसलिए मैंने यह भाषा चुनी। यह समृद्ध भाषा है इसलिए संस्कृत पढऩे से भी अच्छी नौकरी मिल सकती है।Ó वर्तमान में पुणे से श्री गुलाम दस्तगीर जो अपने नाम के आगे पण्डित उपाधि का प्रयोग करते हैं, वे कहते हैं कि संस्कृत पढऩे-पढ़ाने के लिए यदि मुझे पूर संसार से भी लडऩा पड़े तो भी मैं इस भाषा को ही चुनूंगा। पं0गुलाम दस्तगीर संस्कृत में एक मैगजीन भी निकालते हैं। इसी प्रकार मो. इजराइल खान थे, जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। जाकिर हुसैन कालेज के मो.मारूफ उर रहमान, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के मो.हनीफ शास्त्री आदि मुस्लिम विद्वानों के अतिरिक्त प्रो.हांग बांसग, डॉ,जॉर्ज कार्डोना, थाईलैण्ड की राजकुमारी सिरिन्थोर्न, चाल्र्स विल्किन्स, जार्ज फासटन फॉन बोएथलिंक, डॉ.थीबो, प्रो. कीलर्सन, जेम्स बैलेन्टाइन, डॉ. बॉय, अलब्रख्ते बेबर, डॉ. आइगोर सेरे ब्राइकोन, प्रो. एलेक्स वेमेन, डॉ. ह्वूलर, ब्रेसोएक, प्रो. डब्ल्यू रूबेन, इमर्सन, हेनरी डेविड थारो, वाल्ट ह्विटमन, वारेन हेंस्टिंग्ज आदि ने बिना किसी आग्रह या मजबूरी के संस्कृत भाषा का अध्ययन किया और इसके साहित्य के प्रचार-प्रसार में प्रवृत्त हुए।
भारत में भी सभी वर्णों और वर्गों के छात्र संस्कृत पढ़ते हैं और ब्राह्मणों के अलावा भी अनेक संस्कृत के विद्वान उच्च पदों पर आरूढ़ हुए हैं। किन्तु संस्कृत के विरोधियों द्वारा इसप्रकार के भ्रम शासन-प्रशासन में फिर भी फैलाए जाते हैं। गत दिनों संसद-भवन में हुए शपथ-समारोह में संस्कृत में शपथ लेने वाले सांसदों की अधिक संख्या को देख कर बौखलाए हुए इस प्रकार के लोगों ने अखबारों और मीडिया में इसी प्रकार के वक्तव्य प्रकाशित किये। यह विडम्बना है कि भारत में ही इस प्रकार की संकीर्ण सोच है, जबकि विदेशी बुद्धिजीवी संस्कृत का महत्त्व समझ कर इसके उपयोग पर बल दे रहे हैं। इसलिए हालैण्ड, इटली, डेनमार्क, स्वीडन, जर्मनी, फ्र ांस, इंग्लैण्ड, अमेरिका, जापान, रूस, इण्डोनेशिया, श्रीलंका आदि देशों में संस्कृत-शास्त्रों पर वैज्ञानिक दृष्टि से शोध-अनुसन्धान प्रारम्भ हो चुके हैं। भारत में अभी भी संस्कृत-शिक्षा गुलामी की मानसिकता का शिकार है।
संस्कृत के लिए जैसी सोच पराधीन भारत में थी, वैसी ही आज भी है। इसे केवल वर्ग विशेष और कर्म विशेष तक सीमित करके इसमें स्थित ज्ञान-विज्ञान से देश को वंचित रखा जा रहा है, जिससे संस्कृत-शिक्षा को हेय और उपेक्षित दृष्टि से देखा जाता है। अत: भारत की इस सबसे महत्त्वपूर्ण धरोहर को बचाने के लिए हमें लॉर्ड मैकाले की शिक्षानीति के प्रभाव से बाहर आ कर कुछ नया करना होगा।
(लेखक निदेशक है- डॉ. गो.गि.ला.शा. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान में)