लेखक:- रामेश्वर प्रसाद मिश्र पंकज
सुशासन पर विचार करने से पूर्व इसके आधार और स्वरूप के विषय में भारतीय ज्ञानपरंपरा, राजनीति की परंपरा को तथा इतिहास के तथ्यों को जान लेना चाहिए। इसमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि विश्व में केवल भारत ही एकमात्र ऐसा राष्ट्र है, जहां प्राचीन काल से ही राजनीतिशास्त्र के अनेक ग्रंथ रचे गए है। विश्व में और कहीं इतना प्राचीन राज्यशास्त्र नहीं है। जिस सर्व सम्मानित महान ग्रंथ में सर्वाधिक विस्तार से राज्यशास्त्र का प्रतिपादन हुआ है, उस महाभारत को आधार बनाकर बात शुरू करते हैं।
महाभारत में स्पष्ट कहा है कि वेद और धर्म की रक्षा के लिए शासन है और शासन का औचित्य भी केवल इसलिए है कि वह ज्ञान परंपराओं और धर्म की रक्षा करें अर्थात् सनातन धर्म की रक्षा करें। शान्ति पर्व मे अध्याय 59 मे महाराज युधिष्ठिर के पूछने पर पितामह भीष्म बतलाते हैं कि ब्रह्मा जी ने वेद और धर्म की प्रतिष्ठा और रक्षा के लिए ही राजशास्त्र रचा है। जो शासक धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा और वृद्धि स्वयं भगवान विष्णु करते हैं।
भारत की वर्तमान स्थिति यह है कि वर्तमान भारतीय राज्य यूरो ईसाई विचार और वर्गयुद्ध वादी कम्यूनिस्ट विचार का संकर है। यह राज्य को समाज का प्रतिनिधि नहीं मानता, उद्धारक मानता है और सनातन धर्म को घोर अंधकार मान कर इस से भारतीय समाज का उद्धार करने और उसे रूपांतरित करने के लिए संकल्पित है।
अंग्रेजों की रानी ने एक नवम्बर 1858 को आधे भारत मे हिन्दू राजाओं और मुस्लिम नवाबों एवं सिक्ख शासकों की संधि और सहयोग के साथ जब इंग्लैंड का शासन शुरू किया तो घोषणा की कि ”आज से मेरा भतीजा ब्रिटिश भारत का पहला वायसराय होगा और हम भारतीय राजाओं के राज्य क्षेत्र मे किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा उनके उत्तराधिकार नियमों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और अपने क्षेत्र में प्रजा के सभी धर्म पंथों को समान संरक्षण देंगे। ” यह इंग्लैंड से उल्टा था क्योंकि इंग्लैंड मे केवल प्रोटेस्टंट ईसाइयत को शासन का संरक्षण प्राप्त था और आज भी उसे ही संरक्षण प्राप्त है। इसीलिए ब्रिटिश हिस्सेवाले भारत में भी 1947 तक हिन्दू शास्त्रों के अंश विद्यालयों में पढ़ाये जाते रहे। शेष हिस्से में हिन्दू राज्यों मे तो राजधर्म ही आदर्श मान्य था यद्यपि उस पर सब चल नहीं रहे थे।
नेहरू जी के समूह ने सोवियत संघ से प्रेरणा लेकर राज्य को समाज का एकमात्र स्वामी बना दिया और शिक्षा, संचार, व्यापार, विद्याएँ, शिल्प आदि सब मे राज्य ही निर्णायक और निर्धारक बन गया। इन सब क्षेत्रों मे उच्च सरकारी अफसर ही सर्वोच्च विद्वान माने जाने लगे। पर वे बेचारे तो केवल नागरिक प्रशासन मे दक्ष थे अत: उन्होने प्रधान मंत्री आदि के मौखिक निर्देशों और संकेतों के आधार पर शिक्षा और संचार के स्वरूप तय करने शुरू कर दिये और अपनी अक्षमता छिपाने के लिए सोवियत संघ और पश्चिमी यूरोप के राज्यों और विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लेने लगे। वही स्थिति अब तक जारी है। शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु के बाद जाने क्यों इन्दिरा जी सोवियत नेताओं की कठपुतली बन गईं और शिक्षा तथा संचार के शीर्ष पदों पर केवल कम्यूनिस्ट लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ा दी गयी। साथ ही, वोट की दृष्टि से भारतीय विद्वानों को भी कुछ कुछ दिया जाता रहा। उस दौर में कोटा परमिट लाईसेंस का पाप तंत्र शिखर पर जा पहुंचा। राशन, चीनी मिट्टी का तेल आदि के लिए करोड़ों लोग सारा दिन लाइन मे खड़े बिताने लगे।
सोवियत संघ के ढहने के बाद शासकों ने अमेरिका से दोस्ती बढ़ायी और राजीव जी ने उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की घोषणा अमेरिका के निर्देश पर की जो शिकंजे मे कसे समाज को राहत देने वाली घोषणा सिद्ध हुयी। अब स्थिति यह है कि अगर कोई शासन वेद और धर्म की रक्षा नहीं करता तो वह भारतीय दृष्टि से कुशासन है और वह एक समूह के द्वारा संचालित दबंग तंत्र मात्र है। यह स्वरूप स्पष्ट होना चाहिए। आधारभूत तत्व को ध्यान मे रखंल बिना फिर किसी टुकड़े को लेकर तुलनात्मक विचार करना ऐसे ही है जैसे कि सूअर और मनुष्य के बीच में यह तुलना करने लगना कि दोनों की आंखें हैं, दोनों के मुंह है, दोनों के नाक है या दोनों के त्वचा है, इसलिए सुअर भी मनुष्य ही है और मनुष्य भी सुअर ही है। सर्वप्रथम यह स्मरण रखना आवश्यक है कि भारत में शासन का अभी का जो ढांचा है वह भारत के परंपरागत शास्त्रों की किसी भी कसौटी पर प्रतिनिधि मूलक शासन नहीं है अपितु वह अधर्मपरायण शासन है।
इस मूलभूत बात को स्मरण रखे बिना आगे कोई चिंतन असंभव है। यह कैसे हैं? इस पर विचार करते हैं। इस शासन में सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार प्राप्त है जिसका अर्थ है कि वह अपने प्रतिनिधि चुनने को स्वतंत्र है परंतु इसमें मनुष्य के विषय में एक विचित्र धारणा निहित है कि मानो मनुष्य जन्म से ही ज्ञानी होता है या वयस्क हो जाने पर ज्ञानी हो जाता है और पूर्ण स्वतंत्र हो जाता है।
परंतु भारतीय शास्त्र भी और आधुनिक यूरो अमेरिकी शास्त्र, विशेषत: दर्शन और मनोविज्ञान तथा शिक्षा शास्त्र, स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति के मन और बुद्धि पर उसके द्वारा देखी सुनी पढ़ी हुई बातें या विचार ही निर्णायक प्रभाव डालते हैं और इसलिए कोई भी मनुष्य सामान्यत: उन्ही विचारों का गायन और वादन यानी अनुमोदन करने लगता है जो विचार उसने घर बाहर और संचार माध्यमों तथा शिक्षा केंद्रों के द्वारा देखें सुने पढ़े हैं।
अब इस विषय में भारत की वर्तमान स्थिति यह है (और इसका संविधान के मूल ढांचे से कोई भी संबंध नहीं है यह कांग्रेस शासन द्वारा बाद में लाया गया पाप तंत्र है ) कि भारत के वर्तमान राज्यकर्ता भारतीय समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक मे बांटते और देखते हैं और अल्पसंख्यकों के मजहब या पंथ की विशेष रक्षा करना राज्य ने अपना कर्तव्य घोषित कर रखा है तथा इसके लिए मुख्यत: बहुसंख्यक लोगों के द्वारा दिए गए टैक्स आदि से संचित राजकोष से उदारता पूर्वक वित्तीय अनुदान दिए जाते हैं कि जो अल्पसंख्यक हैं, वे अपने कुरान हदीस या बाइबल या अन्य पाठों को अच्छे से पढ़े और उनसे अपना मन बनाये परंतु जवाहरलाल नेहरू जी के समय से ही हिंदुओं को कहा गया कि तुम्हारे धर्म शास्त्र कोई ऐसे पाठ हैं जो आज निरर्थक और बासी हो चुके हैं और अब तुम्हें कोई ‘साइंटिफिक टेंपर’ विकसित करना है जिससे कि तुम अपने धर्म शास्त्रों का परित्याग कर सकोगे और शासन के लोगों की बातों को ही वैज्ञानिक मानोगे। इन बातों का प्रचार सरकारी शिक्षा विभाग और संचार माध्यम तथा नेता लोग करते हैं अत: वे वैज्ञानिक हैं। इस प्रकार भारत के बहुसंख्यक जनों को मूढ़ और अज्ञानी बनाने के लिए एक प्रचार अभियान राज्यकर्ताओं ने चला रखा है।
यह बात अलग है कि जैसा भारतीय शास्त्र कहते हैं कि बुद्धि स्वभावत: तत्वोन्मुखी होती है और इसलिए शासन के समस्त प्रयासों के बाद भी थोड़ा बहुत तो अपने धर्मशास्त्र हिन्दू भी पढ़ते ही रहे हैं। परंतु सर्वसामान्य हिंदुओं का मानस केवल भौतिक लालसाओं से भरा रहे, इसका पूरा प्रबंध शासन ने किया है और सामान्य हिंदू धर्म का कोई ज्ञान हिंदुओं को नहीं रहे तथा धर्म का विवेक न रहे, इस का प्रबंध शासकीय माध्यमों के द्वारा शिक्षा केंद्रों और संचार माध्यमों के द्वारा व्यापकता से किया गया।
वर्तमान शासन तंत्र नागरिकों के साथ भेदभाव करता है। वह अल्पसंख्यक नागरिकों को धर्म या मजहब या रिलिजन की शिक्षा देना अपना कर्तव्य मानता है और उसके लिए वह राजकोष से मजहब या रिलीजन की शिक्षा के लिए वित्तीय अनुदान प्रदान करना कर्तव्य मानता है। परंतु बहुसंख्यकों कों अर्थात सनातन धर्म के अनुयाई हिंदुओं को सनातन धर्म की शिक्षा देने की अनुमति ऐसे विद्यालयों में नहीं है, जहां शासन से अनुदान मिलता है अथवा जिन्हें शासन संचालित करता है।
इस प्रकार, भारत का राज्य दो प्रकार के नागरिक तैयार करता है। नागरिकों का एक वर्ग वह है जो अपने मजहब या रिलिजन के विषय मे व्यापक जानकारी रखता है और उसके प्रति आवेश और निष्ठा से संचालित रहता है और दूसरी ओर भारत के बहूसंख्यक सनातन धर्म हिंदू हैं जिन्हें सनातन धर्म का कोई भी ज्ञान विद्यालयों में नहीं दिया जाता और सनातन धर्म का ज्ञान शिक्षा के रूप में लेने पर ऐसे शिक्षाकेंद्रों को शासन वित्तपोषण नहीं देता। यह भयंकर पाप पूर्ण स्थिति लाने का महा पाप तो कांग्रेस की जवाहरलाल नेहरू वाली धारा ने ही किया परंतु सोवियत संघ के अनुसरण पर लाया गया यह भयावह ढांचा सर्वग्रासी था, इसलिए इसकी चपेट में सारा देश आ गया : बहुत थोड़े अपवादों को छोड़ कर।
परिणाम यह हुआ कि राज्य द्वारा नियंत्रित शिक्षा और संचार माध्यमों के प्रभाव से नए पढ़े-लिखे सभी हिन्दू लोग इस धर्मशून्य शासन के द्वारा पढ़ाई जा रही बातों को आधुनिक सत्य मान कर और उसे ही विश्व भर मे मान्य सत्य मान कर मुदित हो गए और उन्होंने मान लिया कि सारे संसार में राज्य ही एकमात्र सर्वाधिकारी तंत्र है और शिक्षा एवं संचार माध्यम ही नहीं, व्यापार उद्योग आदि में भी शासक और प्रशासक ही सर्वज्ञ होते और वे जो करें, उसी में राष्ट्र का कल्याण होता है। भले प्रत्यक्षत: उस सब से राष्ट्र का अकल्याण ही होता रहा है। भारत के अधिकांश औसत शिक्षित हिन्दू को तो यह भी नहीं पता कि ये मान्यताएँ और ये तंत्र, दोनों ही उस भयावह पाप पूर्ण राज्य के आधार थे जिसे सोवियत संघ के जाग्रत जनमामनस ने रौंद डाला है।
विशेष बात यह है कि वस्तुत: हिन्दू धर्म ही सच्चे अर्थों मे मानवीय है क्योंकि वह सभी मनुष्यों के द्वारा पालनीय सामान्य धर्म का निरूपण करता है। जबकि इस्लाम और ईसाइयत केवल अपने मजहब के पालन को श्रेष्ठ मानते हैं और अन्य लोगों को नरक मे जाने योग्य प्राणी मानते हैं। साथ ही, हिन्दू धर्म वस्तुत: उपासना के विविध रूपों को कर्म मानता है और धर्म तो वह सत्य, अहिंसा, अस्तेय, संयम, अधिक संग्रह न करना, पवित्रता, संतोष, स्वाध्याय, भक्ति, ज्ञान साधना, अर्थ एवं काम पुरुषार्थों के कोटि कोटि रूपों की साधना जो अन्यों के विनाश के बिना की जाए, इन्हे ही मानता है। हिन्दू दृष्टि मे धर्म ये सब हैं।
इस धर्म का संरक्षण और इस धर्म की प्रतिपादक विद्याओं का संरक्षण ही राजधर्म है। इसीलिए धर्मशास्त्रों के एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग की तरह राजधर्म के शास्त्र भारत मे अत्यंत प्राचीन काल से रचे जाते रहे। भारत का वर्तमान शासन न तो इन विद्याओं का संरक्षण करता और न ही सनातन धर्म का संरक्षण करता अत: इसे सुशासन नहीं, कुशासन ही कहा जाएगा।
भीष्म पितामह राजधर्मानुशासन पर्व मे 60 वें अध्याय में कहते हैं : भगवान श्री कृष्ण को तथा सभी ब्राह्मणों को एवं स्वयं धर्म को प्रणाम कर मैं सनातन धर्म का, शास्वत धर्म का कथन करता हूँ : अक्रोध, सत्य वचन, धन का सम्यक विभाजन (संविभाग), क्षमा भाव, पवित्रता, किसी से भी द्रोह नहीं करना, जिनका भरण पोषण करना अपना कृत्य एवं कर्तव्य है, उनका सम्यक भरण पोषण, कुटिल व्यवहार नहीं करना( ऋजुता) और अपनी ही पत्नी से संतति उत्पन्न करना, ये 9 सार्ववर्णिक और सार्वभौम धर्म हैं। अन्यत्र इन्हें ही सामान्य धर्म, मानव धर्म आदि भी कहा गया है। यह है सामान्य सनातन धर्म। यह प्रत्येक मनुष्य के लिए अनिवार्य है। इसे सुनिश्चित करना राजधर्म है। इसके लिए इनका उल्लंघन करने वालों को दंड देना राजधर्म है इसीलिए इसे ही दंडनीति भी कहते हैं।
भारतीय ज्ञान परंपरा वह कहीं भी नहीं कहती कि इष्ट और पूर्त कर्म तथा दान कर्म शासन के मुख्य काम हैं। ये सब तो समाज़ के ही काम हैं। जो यज्ञ के लिए दिया जाता है उसे इष्ट कहते हैं, इसमे सभी जीवों के लिए अंश भाग निकालना, अतिथि सत्कार और विद्या के पोषण के लिए दान सम्मिलित है। ये इष्ट कर्म हैं। जो कार्य समाज के अभाव की पूर्ति के लिए किया जाता है, उसे पूर्त कर्म कहते हैं जिनमें सार्वजनिक उद्यान आदि बनाना, मंदिर बनाना,धर्मशाला आदि का निर्माण, कुआं वापी तालाब जलाशयों आदि का निर्माण करना और दु:खियों की सेवा, भूखों को भोजन कराना तथा जिनके पास वस्त्र नहीं है उन्हें वस्त्र और जिनके पास आवास नहीं हैं, उन्हें आवास देना — यह सब कुछ करना और उनके लिए निरंतर दान देना भी समाज में पुण्य कर्म है और यही पूर्त कर्म है जो अभावों की पूर्ति करता रहता है। यह सभी काम परंपरा से समाज ही करता रहा है अर्थात समाज की विभिन्न स्तरों की इकाइयां यह काम संपादित करती रही हैं क्योंकि इस काम का कोई भी भार कभी भी राज्य पर भारत में नहीं डाला गया।
राज्य का मुख्य काम तो यह देखना है कि समाज के सभी अंग अपने अपने कर्तव्य का पालन करें और दूसरे के कर्तव्य में बाधा नहीं डालें और सर्वमान्य नियमों के अनुशासन में सभी रहे तथा किसी भी प्रकार के विदेशी हस्तक्षेप से और विदेशी आक्रमण से राज्य की रक्षा हो। यही काम भारत में राज्य के हैं और इसे ही राजधर्म कहा गया है और उनके लिए ही राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से की जा रही कमाई का एक अंश कर के रूप में लेने की व्यवस्था है जिससे कि राजकोष बनता है। उसके उपयोग करने का ही अधिकारी है राज्य। सर्व तेजोमय रहना, शासन करना, सब की रक्षा करना एवं अधर्म को दंडित करना राजधर्म है। जगत में सब अपना अपना भोग भोगें, दूसरे का भोग अंश न छीने, इसके लिए दंड भय आवश्यक है। (मनुस्मृति का कथन है दंडस्य हि भयात् सर्वं जगद् भोगाय कल्पते 7/22)।
दंड नीति दूषित हो तो समाज दूषित हो जाता है अत: राज्यकर्ता की वाणी तो मधुर और विनम्र होनी चाहिए परंतु हृदय तेजस्वी और तीक्ष्ण होना चाहिए। दुष्ट या शत्रु से किसी कारण विनम्र व्यवहार करना पड़े तो काम हो जाने पर उसे क्षत-विक्षत कर देना राजधर्म है जबकि सामान्य गृहस्थ के लिए यह छल हो सकता है। परंतु यह भी शास्त्रों में स्पष्ट कहा है कि शठता केवल शठ के साथ ही करनी है और वह भी राज्यकर्ता के द्वारा। शठे शाठ्यम समाचरेत – यह राजधर्म का एक अंग है और सामान्य व्यक्ति के लिए इसे वर्जित कहा गया है। राज्यकर्ता के लिए भी सामान्य रूप से ऋजु मार्ग पर, सरल और निश्छल मार्ग पर ही चलने का निर्देश शांति पर्व मे है। अपने साथ के और पड़ोस के साधारण लोगों को भी शठ कह कर अगर कोई व्यक्ति यूं ही दुष्टता करता है तो उस को दंडित करना भी राजधर्म है परंतु राज्य कर्ता को स्वधर्म संपादन के लिए एक सीमा तक छल और शठता की छूट है।
धर्मपालन, धर्म के अनुशासन में प्रजापालन और कंटक शोधन सर्वोपरि राजधर्म है। यही सर्वप्रथम राज धर्म है। इसके साथ ही विद्या, यज्ञ एवं दान का रक्षण, संवर्धन एवं व्यवस्था राजधर्म है। राज्य के शत्रु और विरोधियों को युद्ध, छल कपट, कूटनीति एवं नय के द्वारा हराना राजधर्म है। दुष्टों को दंड देना और न्याय करना राजधर्म है। राष्ट्र, राज्य, दुर्ग, कोश, मंत्रिगण और सैन्य बल सहित स्वयं प्रधान शासक- इन सात अंगों को राज्य के सप्तांग कहा गया है। सप्ताङ्गों का संरक्षण, संवर्धन, पोषण और समृद्धि राजधर्म है। भारत के वेद ग्रंथ, विद्याओं एवं धर्म परंपराओं का ज्ञान न्यायशास्त्र का ज्ञान, वार्ता शास्त्र का ज्ञान और दंड नीति का ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक राजधर्म है। मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को इन का ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिए, तभी वह भारतीय राजधर्म का पालन कर सकते हैं। विद्या से अर्जित अनुशासन के बिना दंड नीति की पात्रता नहीं आती। वार्ता की चिंता नहीं की जाएगी तो राष्ट्र नष्ट हो जाएगा और वार्ता का ज्ञान लोकजीवन तथा शास्त्रों के ज्ञान पर और परंपराओं के विस्तृत ज्ञान पर ही संभव है। यह वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में और महाभारत के शांति पर्व एवं सभा पर्व में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है। वार्ता का अर्थ है कृषि, वाणिज्य, व्यापार, शिल्प, पशुपालन, खानों का उपयोग और समस्त आर्थिक व्यवस्था। महाभारत, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र जो राजशास्त्र है, इनमे इन सब पर बल दिया गया है।
निष्पक्ष न्याय करना एवं अपराधी को दंड देना राज्य के प्रमुख कार्यों में से है। लोगों के विवादों को निपटाने की न्याय पूर्ण व्यवस्था राजधर्म है। मनु ने तो न्याय शासन को ही धर्म का पर्याय कहा है। वे कहते हैं कि जिस राज्य में निरपराधी दंडित हो और अपराधी छूट जाएं, उस राज्य के राज्यकर्ता पापी हैं और नरक में पड़ेंगे। रामायण और महाभारत दोनों में राजा से न्याय व्यवस्था सुनिश्चित करने कहा गया है।इसीलिए हमारे यहां व्यवहार पदों पर विस्तृत विचार होता रहा है। धर्म, व्यवहार चरित्र और राज्य शासन – ये किसी भी विवाद में अंतिम निर्णय के चार पद हैं। इसी प्रकार, अभियोग, उत्तर, परीक्षण किया एवं निर्णय – ये चार चरण न्याय प्रक्रिया के हैं। इन सब की व्यवस्था राजधर्म का अंग है। राजधर्म का पालन ही सुशासन है।
✍🏻भारतीय धरोहर
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