स्पेन से 1964 में फादर एम डायज गैर्रिस रोमन कैथोलिक चर्च के एक षणयंत्र के तहत भारत आये । वो स्वामी नारायन मंदिर में एक पर्यटक के रूप में छ: महीना और फिर वहीं किराये के कच्चे मकान में 5 साल रुके । उद्देश्य था उत्तरी गुजरात की आदिवासी एवं अन्य जनजातियों का अध्ययन
कर उनके धर्मांतरण की योजना बनाना और इन्हें कच्चे माल की तरह चर्च के सामने परोसना । मुख्यतः दो जातियां – बेडियां और ठाकुर चर्च के निशाने पर थीं । चर्च ने कच्चे माल से सम्बन्धित सांस्कृतिक , सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक और मनोवैज्ञानिक आंकडे इतनी कुशलता से एकत्रित किये कि इसके सामने योजना आयोग भी पीछे रह गया ।
गुजरात में गरबा ओर नवरात्र का विशेष महत्व है। लेकिन ईसाइयत के दस निर्देशों में पहला ही निर्देश इसका निषेध करता है । अत: हिन्दू से ईसाई बने नयी पीढी के गुजराती , जब इन आठ दिनों अन्य गुजराती गरबा उत्सव मनाते थे तो , उदासी अनुभव करते थे । क्योंकि अपने पूर्वजों के जमाने से वो ये उत्सव मनाते चले आये हैं ।चर्च की चिन्ता इस पीढी को सम्भालने की था । बस ये पीढी सम्भल जाये तो अगली पीढी गरबा, नवरात्र और अपने पुरखों के समस्त संस्कारों से स्वत: दूर रहेगी । उसे इस उत्सव से कोई भावनात्मक लगाव नही होगा । और दूर देश रोम में बैठा पोप उसकी जन्म से लेकर मौत तक के हर पल का मालिक होगा । फादर गैर्रिस ने इसके लिये एक कुटिल योजना बनायी और इसको नाम दिया ऊंटेश्वरी माता की डेहरी और इसका महंत बनाया गुजरात में जन्मे 400 वर्ष पूर्व ईसाई बने परिवार के फादर टोनी को।
विदेश से आर्थिक सहायता प्राप्त कर मेहसाना के कादी कस्बे के बुदासान गांव के पहाडी क्षेत्र की 107 एकड जमीन पर एक डेहरी देवता का चबूतरा बनाया और प्रचारित किया कि ये डेहरी जगमाता ऊंटेश्वरी देवी की है जो आदिवासियों की जीविका के साधन ऊंटो की रक्षा करती है। और इस तरह मदर मेरी बना दी गयी ईशुपंथियों और ऊंट पालकों की कुल माता ।
ये डेहरी बाहर से एक मंदिर के स्वरुप में बनाई गयी लेकिन अंदर से चर्च थी जहाँ मरियम की तस्वीर लगा दी ताकि लोग इन्हें जग माता समझें। बाहर क्रौस और ओम का ध्वज भी लगा दिया जो नये बने ईसाइयों और हिन्दुओं दोनों को आकर्षित करे । यहाँ नवरात्र और गरबा उत्सव भी शुरू कर दिया और लाखों की भीड जुटनी शुरु हो गयी । ऐसा नहीं है कि यह खेल ईसाइयत ने पहली बार यहीं खेला हो। कांन्सटैन्टाइन के रोम विजय के साथ ही यह खेल इटालियन , रोमन और यूनानी देवी उपासकों के ईसाई बनाने के साथ ही शुरु हो गया था । क्योंकि इन्हें भी मेहसाना के ईसाइयों की तरह देवी उपासना का अभाव उदास करता था । हिन्दुस्तान में ऊंटेश्वरी माता की तरह अनेक माताओं का प्रयोग कैथोलिक चर्च सफलता पूर्वक गोवा , महाराष्ट्र , तमिलनाडु , बंगाल में पहले भी कर चुका था । फादर टोनी को इसका महंत बनाना कैथोलिक चर्च को भारी पडा ।क्योंकि वो इस बात से क्षुब्ध थे कि जीसस की मूल शिक्षाओं को दरकिनार करते हुये कैथोलिक चर्च समाज सेवा के नाम पर विदेशी धन से मात्र धर्मांतरण के कार्य में ही लगा था।
ननो के साथ पादरियों द्वारा दुराचार और विरोध करने पर रहस्यमय ढंग से उनकी हत्या इस व्यवस्था में आम बात थी। चर्च भी इन्ही अपराधियों के बचाव में खडा हो जाता था । मीडिया तो बिकाऊ है ही , राजसत्ता भी डालर और अपने पुत्रों को पश्चिमी देशों में मुफ्त में पढाने के लालच में इनका साथ देने का अपराध करने लगी थी । जब वीसा अवधि समाप्त होने पर फादर गैर्रिस को तत्काल देश छोडने को कहा गया तो गुजरात के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने इंदिरा गांधी को सिफारसी पत्र लिख कर इसकी वीसा अवधि बढवा दी ।
सिस्टर सुसान्ना के साथ पादरी का दुराचार और विरोध करने पर हत्या , सिस्टर अभया की रहस्यमय मौत से लेकर सिस्टर जेस्मी और मेरी चांडी की कहानी भी रोंगटे खडे कर देने वाली है । जिस पादरी ने चर्च की दलित ईसाइयों के प्रति भेदभाव की नीति का विरोध किया या विदेशी चंदे के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठाई उसका निर्दयता से दमन कर दिया गया । उसे नजरबन्द कर चर्च के खुद के मानसिक रोग अस्पताल में जबरदस्ती भरती करवा कर चर्च से बाहर कर दिया गया । चूंकि चर्च के नियमो के अनुसार किसी का खून नही बहाया जा सकता इसलिए विष देकर इनकी हत्या करने की योजना पर कार्य किया गया । कैथोलिक चर्च में समलैंगिकता आम बात है और इसके शिकार कैथोलिक चर्च व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर बैठे आल्टर बायस अथवा वेदी सेवक होते हैं । खुद फादर टोनी से जब लेखक ने मजाक में पूछा कि जब वो वेदी सेवक थे तो क्या कभी किसी पादरी ने उन्हें अपने कमरे में अकेले बुलाया । तब हंसते हुये उन्होंने जवाब दिया , ” क्यों मजाक करते हो ? मैं जैसा काला कलूटा अभी हूँ , तब भी था । जबकि मैं आल्टर बौयज टीम में था । पूरोहितों को तो गोरे गोरे , गोल मटोल लडके ही भाते थे। वे ही उन्हें मास के बाद अपने कमरे में चाकलेट देने बुलाते थे।
फादर ऐन्थानी फर्नान्डीस उर्फ फादर टोनी राष्ट्रवादी , स्वतंत्र चिंतक , ईमानदार और अपनी हिन्दू विरासत को मानने वाले गुजराती कैथोलिक ईसाई थे। वर्षों धर्मान्तरण कार्य में लगे रहने के दौरान जब उन्होंने कैथोलिक चर्च की समाज सेवा के नाम पर कुटिलता और धोखाधडी से धर्म परिवर्तन कराये जाने की साजिश को नजदीक से देखा तो वो चर्च के खिलाफ उठ खडे हुये । धर्मपरिवर्तन की जगह वो गरीबी हटाओ की राह पर चलने की बात करने लगे ।
लाखों आदिवासी हिन्दुओं को मतांतरित करने के बाद फादर टोनी की उपयोगिता चर्च के लिये समाप्त हो गयी ।फिर इनके दमन का एक लम्बा सिलसिला योजनाबध्द तरीके से चलाया गया जिसमें इन्हें विष देकर मारने की भी साजिश सम्मिलित थी । फादर अकेले पड गये लेकिन अपनी आवाज नही बन्द की । 17 अप्रैल 2001ईस्वी को वाराणसी के एक मंदिर में वो विधिवत दीक्षित होकर शंकर देव बन गये ।उन्होंने कहा – ” ऐसा आनन्द जीवन में कभी नही मिला । हिन्दू बनने के बाद ऐसा लगा जैसे समाज से सम्बन्ध फिर जुड गया है । लगता है अब सच्चा भारतवासी बन गया हूँ ।मेरी व्यक्तिगत धारणा है कि हमारे पूर्वज हिन्दू थे । दूसरे बचपन से ही मेरे मित्रों में अधिकांश हिन्दू थे । गांव की चौपाल पर बैठकर उनके साथ मैं नरसी मेहता के भजन सुनता और गाता था ।मैने बहुत अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि यदि भगवान का अनुभव करना है , बंधन से मुक्त होना है तो हिन्दू धर्म उत्तम है । इस देश में हिन्दू समाज ही अन्य समाज से श्रेष्ठ है। कैथोलिक ईसाई समाज को हिन्दुस्तान में पोप का ही आदेश मानने को विवश किया जाता है हिन्दू समाज में यह दोहरी मानसिकता नही है । मैं 1965 से हिन्दू (सनातन धर्म ) , बौध्द , जैनमत के तमाम साहित्य और दर्शन का अध्ययन कर रहा हूँ । अंग्रेजी में मैने वेद , उपनिषद के अतिरिक्त आधुनिक महापुरुषों के बारे में काफी पढा है । लेकिन अब एक बार फिर से सबको संस्कृत भाषा में पढना चाहता हूँ ।ईसाई समाज में ऐसे बहुत लोग हैँ जो घुटन महसूस कर रहे हैं। ईसाई समाज से जुडकर बाहर निकलना काफी कठिन है ।बिशप लोग पूरे माफिया की तरह हैं। जो भी सरकार आएगी ये उसी से हाथ मिला लेते हैं ।शासन , पुलिस इनकी मुट्ठी में है। मीडिया के अधिकांश लोग इनके आगे हाथ जोडे खडे रहते हैं । इन्हें खरीदने के लिये इनके अपने आयोग और फंडिंग तक होती है। यदि कोई बाहर निकलना चाहेगा तो उसे जान से मारने तक की धमकी ये बडी आसानी से दे देते हैं । इनके बंद कमरों में गवाहों को ढूँढना असंम्भव है और कानून को तो गवाह चाहिये ।
और हुआ वही जिसकी आशंका थी । दो महीने के भीतर ही शंकरदेव अकेले पड गये । ना घर के रहे ना घाट के । खाने और रहने को भी मोहताज हो गये । चर्च तो पीछे पडा था ही । वाराणसी में उन्हे विष दिया गया । बच गये पर स्वास्थ्य जवाब दे गया । शीघ्र ही उन्हें वाराणसी में गम्भीर ह्रिदयाघात हुआ लेकिन धनाभाव के कारण इलाज ना करवा सके और शीघ्र ही उनका वाराणसी में ही देहान्त हो गया । कोई भी हिन्दू संघठन , व्यक्तिगत मित्रों को छोडकर , उनकी अन्तिम यात्रा में भी मदद को नही आया । उनका अंतिम संस्कार गुजरात में ईसाई विधि के साथ सम्पन्न हुआ । कैथोलिक चर्च ने खुद को इससे अलग रखा। शंकर देव बन जाने और फिर उपेक्षित होने पर भी ईसाई मत में दुबारा ना जाकर वो निरंतर कैथोलिक चर्च के खिलाफ और गरीब ईसाइयों के हित में संघर्षरत रहे । शायद यही अकेला एक अवसर था जब लेखक ने ये मान लिया कि वो पुन: ईसाई बन गये । सच्चाई इसके विपरीत थी । उनका दोबारा बापतिस्मा नही हुआ ।
हिन्दुओं ने अवसर गंवा दिया । वरना शंकर देव वो अकेले इंसान होते जो हिन्दुओं का सक्रिय और समुचित सहयोग मिलने पर ऊंटेश्वरी माता के समस्त ईशूपंथी को ना केवल वापस ले आते बल्कि पूरे देश में इसका सकारात्मक प्रभाव छोडते । शंकर देव ने ये भी आशंका जताई थी कि हिन्दू बन जाने के बाद कहीं उनकी जाति का निर्धारण बपतिस्मा रिकार्ड को देखकर ना किया जाये । उनकी जीवनी ये भी उजागर करती है कि जाति प्रथा जैसे कलंक के कारण ही हिन्दुओं का धर्मांतरण होता चला आया है और अगर कोई वापस आ जाये तो यही प्रथा उसे चैन से टिकने नही देती ।
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