हमारे वर्तमान जन्म की तरह पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का होना भी सत्य है
ओ३म्
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हम मनुष्य हैं और लगभग 7 दशक पूर्व हमारा जन्म हुआ था। प्रश्न है कि जन्म से पूर्व हमारा अस्तित्व था या नहीं? यदि नहीं था तो फिर यह अभाव से भाव अर्थात् अस्तित्व न होने से हुआ कैसे? विज्ञान का सिद्धान्त है कि किसी भी पदार्थ का रूपान्तर तो किया जा सकता है परन्तु उसे पूर्णतः नष्ट अर्थात् उसका अभाव नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार जिस चीज का अभाव है अर्थात् जिसका अस्तित्व ही नहीं है, उस अभाव से भी कोई चेतन व जड़ पदार्थ बन नहीं सकता। भाव से भाव होता है और अभाव का अभाव रहता है। इस सिद्धान्त के आधार पर हमारा इस जन्म से पूर्व अस्तित्व व पुनर्जन्म सिद्ध होता है। हम यदि आज विद्यमान हैं, जन्म के समय व उसके बाद अब तक विद्यमान रहे हैं तो यह निश्चित होता है कि हमारा अस्तित्व हमारे जन्म से पूर्व भी था। यदि न होता तो फिर इस जन्म में वह माता के शरीर में कहां से व कैसे आता? आज विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है। उसने भौतिक पदार्थ को रूपान्तरित करके अनेकानेक नये व भिन्न-भिन्न भौतिक पदार्थ बनायें हैं।
एक पदार्थ में जो एक से अधिक तत्व जैसे पानी में हाइड्रोजन और आक्सीजन होती है, उन्हें पृथक करने में भी सफलता प्राप्त की है, परन्तु आज का आधुनिक विज्ञान भी किसी एक व एक से अधिक भौतिक पदार्थों से एक व अधिक आत्माओं को नहीं बना सका है। इससे आत्मा का स्वतन्त्र व अन्य पदार्थों से पृथक अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि जड़ पदार्थों से सर्वथा भिन्न चेतन आत्मा का पृथक व स्वतन्त्र अस्तित्व न होता तो हम अनुमान कर सकते हैं कि वैज्ञानिकों ने भौतिक पदार्थों से आत्मा को बना लिया होता और आत्मा के बनने के बाद उन्होंने मनुष्य आदि अनेक प्राणियों के शरीर भी प्रयोगशाला में, माता के गर्भ में नहीं, बना लिये होते। ऐसा नहीं हो सका अतः जीवात्मा एक अभौतिक व चेतन पदार्थ है जिसका अनादि काल से पृथक व स्वतन्त्र अस्तित्व है। जीवात्मा मनुष्य का हो या किसी भी प्राणी का, यह एक अविनाशी, अनादि, भाव अर्थात् सत्तावान, चेतन व एकदेशी पदार्थ सिद्ध होता है। इसी चेतन आत्मा का मनुष्य व अन्य प्राणियों के शरीरों में ईश्वर की व्यवस्था व कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार जन्म-मरण होता रहता है जिसके कुछ नियम व सिद्धान्त हैं, जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे।
मनुष्य शरीर चेतन जीवात्मा एवं जड़ पदार्थों से निर्मित युग्म को कह सकते हैं। जीवात्मा जन्म से पूर्व माता के गर्भ में आता है। मृत्यु पर्यन्त यह मनुष्य के शरीर में रहता है और मृत्यु के समय शरीर से निकल जाता है। शरीर से निकलने की प्रक्रिया ईश्वर से प्रेरित होती है। कोई भी जीवात्मा मरना अर्थात् अपने इस जीवन के शरीर को छोड़ना नहीं चाहता। एक अदृश्य सत्ता उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध शरीर से निकालती है और जीवात्मा सूक्ष्म शरीर सहित विवश होकर दृश्यमान भौतिक जड़ शरीर का त्याग कर चली जाती है और कुछ काल के बाद ईश्वरीय नियमों व व्यवस्था से पुनर्जन्म ग्रहण करती है। जीवात्मा का शरीर से निकलना ही मनुष्य व अन्य प्राणियों की मृत्यु कहलाती है। डाक्टर भी परीक्षा करने के बाद कहते हैं कि ‘ही इज नो मोर’ अर्थात् वह मनुष्य वा उसका आत्मा शरीर में नहीं रहा वा शरीर छोड़ कर चला गया है। ‘मर गया’ शब्द पर भी विचार करें तो इससे भी यह आभास होता प्रतीत होता है कि कोई शरीर छोड़ कर चला गया है। किसी के मरने पर ‘चल बसा’ भी कहा जाता है जिसका अर्थ यह होता है कि मृतक शरीर का आत्मा कहीं चला गया है और शरीर यहीं पर बसा व पड़ा है।
मनुष्य का जन्म माता के गर्भ से होता है जहां हिन्दी के 10 महीनों में उसका निर्माण होता है। माता के गर्भ को क्षेत्र या खेत की उपमा दी जाती है और पिता के शुक्राणुओं को बीज की संज्ञा दी जाती है। जिस प्रकार से किसान अपने खेत में बीज बोता है, उससे पौधे निकलते हैं, किसान खेत की निराई व गुड़ाई करता है जिसके परिणाम स्वरूप अथवा प्राकृतिक वा ईश्वरीय नियमों के अनुसार समय पर फसल पक कर तैयार हो जाती है। एक बीज से वटवृक्ष बन जाता है। बीज से पौधे, अन्न, ओषधि, वनस्पतियां तथा फल आदि उत्पन्न होते हैं। वृक्ष व वनस्पतियां केवल जड़ वा भौतिक पदार्थ नहीं होते अपितु इनमें एक बीज से लेकर पौधे के रूप में व उसके बाद भी वृद्धि देखी जाती है। इसके विपरीत जड़ पदार्थ जल, वायु, मिट्टी व पत्थर जैसे होते हैं उनमें किसी प्रकार की वृद्धि नहीं देखी जाती। अतः वृक्ष व वनस्पतियों में भी मनुष्य शरीर की भांति सुषुप्त अवस्था में चेतन जीवात्मा होना प्रतीत होता है। यदि बीज में जीवात्मा न होती तो फिर पौधों व वृक्षों में वृद्धि का सिद्धान्त काम न करता जैसा कि मनुष्य शरीर में जन्म से लेकर युवा व प्रौढावस्था तक होता है। यह वृक्ष व पौधे वायु, जल, सूर्य की ऊर्जा व प्रकाश सहित भूमि से भोजन ग्रहण करते हैं। मनुष्य भी अन्न, वनस्पतियों, फल व गोदुग्ध आदि से अपना भोजन ग्रहण करता है जो उसके शरीर की वृद्धि व स्थायीत्व का कारण होता है। इससे मनुष्य आदि प्राणियों सहित वृक्षों व वनस्पतियों में भी मनुष्य के समान चेतन जीवात्मा के होने का अनुमान व आभास होता है परन्तु वनस्पतियों आदि में जीवात्मा जाग्रत अवस्था में न होकर सुप्त अवस्था में होता है, यह प्रत्यक्ष दीखता है। वनस्पतियों के पास मनुष्यों के समान ज्ञानेन्द्रियां व कर्मेन्द्रियां भी नहीं होती हैं।
प्रायः यह प्रश्न किया जाता है कि यदि जीवात्मा शरीर से पृथक एक चेतन पदार्थ है और इसका पुनर्जन्म हुआ व होता है तो फिर इसे अपने पूर्वजन्म की बातें स्मरण क्यों नहीं रहती? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य के पूर्व जन्म के शरीर का मृत्यु को प्राप्त होने पर उसकी अन्त्येष्टि व दाह संस्कार आदि कर दिया जाता है। वह शरीर नये जन्म में साथ नहीं जाता। उसके पूर्वजन्म के मन, मस्तिष्क, बुद्धि व अन्तःकरण आदि शरीर के अवयव सभी यहीं छूट जाते हैं। दूसरी बात यह भी है कि हम इसी मनुष्य जन्म में प्रतिदिन पूर्व की बातों को भूलते रहते हैं। हमने प्रातः कब किससे क्या-क्या बातें की, क्या-क्या पदार्थ कब खाये, आज, कल व परसों कौन-कौन से वस्त्र पहने थे, उनका रंग कैसा था, हम विगत दो चार दिन में किन-किन से मिले और क्या-क्या बातें की आदि का हमें नाममात्र का ज्ञान रहता है। अधिकांश बातें हम भूल चुके होते हैं। हम किसी से बात कर रहें हों और वह व्यक्ति यदि दस मिनट बाद कहे कि आप अभी जो बोले हैं, उसे उसी रूप में शब्दों व वाक्यों को आगे पीछे किये व छोड़े बिना उसी भाव-भंगिमा में दोहरा दें, तो हम सभी शब्दों व वाक्यों को ज्यों का त्यों नहीं दोहरा सकते। इससे हमारे भूलने की प्रवृत्ति का ज्ञान होता है। जब हमें इस जन्म की दो चार दिन की बहुत सी बातों का ज्ञान नहीं रहता तो फिर यह कहना कि पिछले जन्म की बातें याद क्यों नहीं रहती, उचित प्रश्न नहीं है। यह भी सम्भव है कि हम पिछले जन्म में मनुष्य ही न रहे हों, पशु, पक्षी आदि किसी अन्य योनि में रहे हों, तो फिर कोई कैसे पिछले जन्म की बातों का किंचित भी ज्ञान रख सकता है। इसके विपरीत हमारे भीतर जन्म जन्मान्तरों के संस्कार रहते हैं। बच्चा रोना जानता है, मां का दूध पीना भी उसको आता है। वह सोते हुए हंसता है और कभी गम्भीर व उदास भी हो जाता है। यह सब पूर्व जन्मों के संस्कारों वा स्मृतियों के प्रभाव के कारण ही होता है। मां बच्चे को दूध पिलाते समय उसे दूघ खींचना नहीं सिखाती परन्तु बच्चा पहले से दूघ खींचना व पीना जानता है, इससे उसका पूर्वजन्म सिद्ध होता है। अब एक परिवार की चर्चा करते हैं। एक परिवार में जुड़वा बच्चे पैदा होते हैं। दोनों का लालन पालन समान रूप से किया जाता है परन्तु दोनों की ज्ञान प्राप्ति व विषयों को ग्रहण करने की क्षमता व शक्ति में अन्तर देखा जाता है। एक ही परिवार में एक बच्चा गणित में तेज होता है दूसरा कमजोर, एक को दाल पसन्द है और दूसरे को सब्जी, एक हसंमुख है और दूसरा उदास स्वभाव वाला, एक माता पिता का अज्ञाकारी होता है तो दूसरा अवज्ञा करता है, यह सब भी पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को सिद्ध करते हैं।
महाभारत के अंग प्रसिद्ध ग्रन्थ गीता में कहा गया है ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च’ अर्थात् जन्म लेने वाले मनुष्य व प्राणी की मृत्यु होना निश्चित है और इसी प्रकार मरे हुए प्राणी का पुनर्जन्म होना भी निश्चित अर्थात् ध्रुव सत्य है। हम लोग देखते हैं कि संसार में अनेक प्रकार के प्राणियों की योनियां हैं। इसका कारण क्या है? इसका कारण जीवात्मा के पूर्व जन्म के कर्म हुआ करते हैं। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने कहा है कि हमारे प्रारब्ध से हमारा नया जन्म, जाति, आयु और भोग अर्थात् सुख व दुःख निश्चित होते हैं। विवेचन व विश्लेषण करने पर यह बात सत्य सिद्ध होती है। प्रारब्ध पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के खाते को कहते हैं जिनका मृत्यु से पूर्व भोग नहीं किया जा सका। जाति का अर्थ यहां मनुष्य जाति, पशु जाति, पक्षी जाति व इतर योनियां हैं। यही कारण है कि वेदों में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का सत्यस्वरूप वर्णित व व्याख्यात है। इसके साथ मनुष्यों के कर्तव्य कर्मों का विधान भी वेदों में दिया गया है। इन कर्मों में ईश्वरोपासना के प्रयोजन व विधि पर भी प्रकाश पड़ता है। मनुष्यों को वायु, जल और पर्यावरण की शुद्धि, रोगों से बचाव व निवारण, सुख-शान्ति व परोपकार आदि के लिए अग्निहोत्र करना चाहिये। माता-पिता-आचार्य सहित वृद्ध जनों की सेवा सुश्रुषा करनी चाहिये, पशु-पक्षियों के प्रति दया व प्रेम का भाव रखने के साथ उनके भोजन आदि में भी सहयोग करना चाहिये और विद्वान अतिथियों की सेवा सत्कार का भी विधान वेदों में मिलता है। जीवन को ज्ञान व संस्कार सम्पन्न करने के लिए विद्याध्ययन सहित गृहस्थाश्रम वा विवाह आदि का विधान भी वेदों में प्राप्त होता है। परोपकार व दान की महिमा भी वेदों में गाई गई है। ऐसा करने पर हमारा यह जन्म व भावी पुनर्जन्म उन्नत होता है। हमारे प्राचीन ऋषि मुनि व वेदों के विद्वान सभी ज्ञानी व मनीषी थे। उन्होंने विश्लेषण, चिन्तन-मनन व वेद प्रमाणों की समीक्षा करने के बाद ही कर्मकाण्ड करने का विधान किया था। ऐसा करके ही हम उन्नति व धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होकर अपने जीवन को सफल कर सकते हैं। यह भी बता दें कि आत्मा सत्य, चेतन, निराकार, अल्पज्ञ, ज्ञान व कर्म के स्वभाव से युक्त, एकदेशी, अल्प शक्तियों से युक्त, ससीम, अनादि, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, विद्या व ज्ञान प्राप्ति सहित श्रेष्ठ कर्मों को करने पर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करती है। जीवात्मा के स्वरूप पर वैदिक साहित्य में उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। उनका अध्ययन करना चाहिये जिससे आत्मा का ज्ञान व विज्ञान हमें सुस्पष्ट रूप से विदित हो सके और हम अपने जीवन को सत्य मार्ग में चला कर जीवन के उद्देश्य आत्मा की उन्नति व मोक्ष प्राप्ति को सिद्ध व सफल कर सकें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य