आरक्षण को लेकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जगाई आशा की नई किरण
ललित गर्ग
भले ही आरक्षण की नीति सामाजिक उत्पीड़ित व आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की सहायता करने के तरीकों में एक है, ताकि वे लोग बाकी जनसंख्या के बराबर आ सकें। पर जाति के आधार पर आरक्षण का निर्णय कभी भी सभी के गले नहीं उतरा।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से सुर्खियों में है। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है और इस सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को नोटिस देकर पूछा है कि क्या सरकारी नौकरियों में आरक्षण पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देना सही है या नहीं? इसका फैसला करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट का गंभीर होना न केवल स्वागतयोग्य है बल्कि इससे प्रभावकारी एवं औचित्यपूर्ण स्थितियां सामने आने की संभावना है। यह मु्द्दा किसी प्रांत विशेष तक सीमित न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से जुड़ा ज्वलंत मुद्दा है, इसलिये सभी प्रांतों का पक्ष सुनना जरूरी है। इसलिये पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आरक्षण के प्रावधानों और इसकी बदलती जरूरतों पर विचार शुरू कर दिया है। विगत वर्षों में एकाधिक राज्य ऐसे हैं, जहां 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देने की कोशिश हुई और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। हमारे बीच जीवंत आदर्शों की ऐसी बहुत-सी ऊंची मीनारें खड़ी रही हैं, जिनमें जीवन की ऊंचाई एवं गहराई दोनों रही है, लेकिन राजनीति स्वार्थों एवं वोट बैंक ने इन राष्ट्रीय आदर्शों को ध्वस्त करते हुए देश को जोड़ने की बजाय तोड़ने का काम किया है।
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग लंबे समय से चलती आ रही है और 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने इस पर कानून भी बना दिया था और सरकारी नौकरियों तथा शिक्षा में मराठाओं को 16 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी लेकिन बाद में उच्च न्यायालय ने इसको कम करने का फैसला किया था और जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला आने तक इस पर रोक लगा दी है। अब इस मामले पर सुनवाई चल रही है और 15 मार्च से रोजाना सुनवाई होगी, उम्मीद है कि इस मसले पर जल्द ही ऐसा फैसला आएगा, जो राजनीतिक हितों से ज्यादा जनहितों से जुड़ा होगा, राष्ट्रीयता को सुदृढ़ता देगा।
पूरे देश में अभी यह भ्रम की स्थिति है कि क्या किसी राज्य को 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने की अनुमति दी जा सकती है? वर्ष 1992 के इंद्रा साहनी मामले में संविधान पीठ के फैसले के बाद यह परंपरा रही है कि 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। वैसे तो हमारी सरकारों को ही विधायिका के स्तर पर यह विचार कर लेना चाहिए था कि आरक्षण की सीमा क्या होनी चाहिए। यह दुर्भाग्य है कि आरक्षण राजनीति का तो विषय है, पर उसे लेकर वैधानिक गंभीरता बहुत नहीं रही है। वैधानिक गंभीरता होती, तो सांसद-विधायक आरक्षण की सीमा पर संवाद के लिए समय निकाल लेते और मामला सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंच पाता। अब यदि यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है तो इससे गरीब के अधिकारों के साथ-साथ श्रेष्ठता को प्रोत्साहन की संतुलित एवं न्यायपूर्ण व्यवस्था बन सकेगी।
आरक्षण पर सुनवाई के दौरान अदालत समग्र आकलन करेंगी, वह यह भी देखेगी कि विगत दशकों में आरक्षण को लागू करने के बाद कैसे सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए हैं। इसके लिए अदालत ने सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों से जवाब दाखिल करने को कहा है। वास्तव में, मराठा आरक्षण को लेकर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की संविधन पीठ ने सुनवाई के दौरान जो कदम उठाए हैं, उनका दूरगामी, प्रभावी और गहरा असर तय है। महाराष्ट्र सरकार मराठा वर्ग को विशेष आरक्षण देना चाहती है, जिस वजह से 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का उल्लंघन हो रहा है, अतः अदालत ने इस आरक्षण पर रोक लगा दी थी। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार की शिकायत और अन्य याचिकाओं ने गहराई से विमर्श की पृष्ठभूमि तैयार की है। इसमें कोई शक नहीं, अगर महाराष्ट्र के मामले में 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण को स्वीकृत किया गया, तो इसका असर सभी राज्यों पर पड़ेगा, अतः इसमें तमाम राज्यों की राय लेना एक सही फैसला है। सभी राज्यों को सुनकर एक रास्ता निकालना होगा, ताकि भविष्य में विवाद की स्थिति न बने। कई सवालों के हल होने की उम्मीद बढ़ गई है। क्या राज्यों को अपने स्तर पर आरक्षण देने का अधिकार है? क्या केंद्र सरकार के अधिकार में कटौती नहीं होगी? 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने से समाज के किसी वर्ग के साथ अन्याय तो नहीं होगा? आरक्षण का समानता के अधिकार से कैसे नया नाता बनेगा?
देश लम्बे समय तक आरक्षण से जूझता एवं जलता रहा है। जो वोट की राजनीति से जुड़े हुए थे, वे आरक्षण की नीति में बंटे हुए थे। विश्वनाथ प्रतापसिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में मण्डल आयोग की सिफारिशों को बिना आम सहमति के लागू करने की घोषणा कर पिछड़े वर्ग को जाति के आधार पर सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देकर जिस ”जिन्न” को बोतल से बाहर किया था उसने पूरे राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है। भले ही आरक्षण की नीति सामाजिक उत्पीड़ित व आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की सहायता करने के तरीकों में एक है, ताकि वे लोग बाकी जनसंख्या के बराबर आ सकें। पर जाति के आधार पर आरक्षण का निर्णय कभी भी सभी के गले नहीं उतरा, अनेक विसंगतियां एवं विषमताओं के कारण वह विवादास्पद एवं विरोधाभासी ही बना रहा है। आरक्षण जाति-आधारित न होकर अर्थ-अभाव- पिछड़ा आधारित होना चाहिए। अब तक सरकारी नौकरियों में बड़े-बड़े धन सम्पन्न परिवारों के बच्चे जाति के बल पर अवसर पाते रहे हैं, न केवल नौकरियों में बल्कि पदोन्नति में भी उनके लिये आरक्षण की व्यवस्था है। जबकि अनेक गरीब लेकिन प्रतिभा सम्पन्न उच्च जाति के बच्चे इन अवसरों से वंचित होते रहे हैं। इस बड़ी विसंगति पर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान जाना जरूरी है।
जातिवाद सैंकड़ों वर्षों से है, पर इसे संवैधानिक अधिकार रूप देना उचित नहीं माना गया है। हालांकि राजनैतिक दल अपने ”वोट स्वार्थ“ के कारण इसे नकारते नहीं, पर स्वीकार भी नहीं कर पा रहे हैं। और कुछ नारे, जो अर्थ नहीं रखते सभी पार्टियां लगाती रही हैं। इसका विरोध नेताओं ने नहीं, जनता ने किया है। यह नेतृत्व की नींद और जनता का जागरण अब किसी नयी सुबह का सबब बनेगा, ऐसी शुभ की आहट सुनाई देनी लगी है।
यह कहा जा रहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान विधान में नहीं है। पर संविधान का जो प्रावधान राष्ट्रीय जीवन में विष घोल दे, जातिवाद के वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर दे, वह सर्व हितकारी कैसे हो सकता है। पं. नेहरू व बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी सीमित वर्षों के लिए आरक्षण की वकालत की थी तथा इसे राष्ट्रीय जीवन का स्थायी पहलू न बनने का कहा था। डॉ. लोहिया का नाम लेने वाले शायद यह नहीं जानते कि उन्होंने भी कहा था कि अगर देश को ठाकुर, बनिया, ब्राह्मण, शेख, सैयद में बांटा गया तो सब चौपट हो जाएगा।
आरक्षण को लेकर अनेक ज्वलंत सवाल राष्ट्रीय चर्चाओं में लगातार बने रहे हैं, विश्वास है कि अब सर्वोच्च न्यायालय जब सुनवाई शुरू करेगा, तब इन अनेक जटिल सवालों के जवाब मिलते जाएंगे। संविधान की रोशनी में आरक्षण पर तथ्य आधारित तार्किक बहस जरूरी है, ताकि वंचित वर्गों को यथोचित लाभ मिले। सबसे अच्छा तरीका तो यही है कि आबादी के अनुपात में ही वंचितों को अवसर दिए जाएं। यह भी देखना है कि आज के समय में वंचित कौन है? वंचितों को अवसर देने की कोशिश में किसी के साथ अन्याय न होने लगे। अब प्रतिभा एवं श्रेष्ठता का हक भी किसी आरक्षण के नाम पर दबे नहीं, चूंकि 50 प्रतिशत की मंजूर आरक्षण सीमा को 28 साल बीच चुके हैं, तो नई रोशनी में पुनर्विचार हर लिहाज से सही और जरूरी है। पुनर्विचार के जो नतीजे आएंगे, उससे देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बुनियाद तय होगी। लोग यही चाहते हैं कि फैसला ऐसा आए, जो समाज को बांटे नहीं, मजबूत करे।
जाति विशेष में पिछड़ा और शेष वर्ग में पिछड़ा भिन्न कैसे हो सकता है। गरीब की बस एक ही जाति होती है ”गरीब”। हम जात-पात का विरोध करते रहे हैं, जातिवाद समाप्त करने का नारा भी देते रहे हैं और आरक्षण भी देते रहे हैं-यह विरोधाभास नये भारत के निर्माण की बड़ी बाधा है। सही विकल्प वह होता है, जो बिना वर्ग संघर्ष को उकसाये, बिना असंतोष पैदा किए, सहयोग की भावना पैदा करता है। मनुष्य जन्म से नहीं कर्म एवं प्रतिभा से छोटा-बड़ा होता है।