संदीपसिंह सिसोदिया
तमिलनाडु की राजनीति इस समय एक तरह से ‘अनाथ’ हो गई है। पहले अम्मा (जयललिता) और फिर उडनपिराप्पे (करुणानिधि को लाखों डीएमके कार्यकर्ता उडनपिराप्पे याने बड़ा भाई पुकारते थे) नहीं रहे। दक्षिण भारत के बड़े राज्य की राजनीति में बने शून्य ने कई सवालों को जन्म दिया है। सबसे बड़ी बात है कि इस समय तमिलनाडु में जो नेता हैं उनका राजनैतिक कद करुणानिधि और जयललिता की तुलना में कहीं नहीं टिकता।
इतिहास के पन्ने पलटें तो 1969 में जब डीएमके के संस्थापक सीएन अन्नादुरई का निधन हुआ था तो करुणानिधि के रूप में उनका करिश्माई उत्तराधिकारी मौजूद था। इसी तरह से 1987 में एमजीआर के निधन के बाद जयललिता ने उनकी जगह लेकर न सिर्फ एआईएडीएमके की बागडोर संभाली बल्कि 1991, 2001, 2011 और 2016 विधानसभा चुनावों में पार्टी को जीत भी दिलाई।
व्यक्तिवाद पर आधारित दक्षिण भारतीय राजनीति का एक बड़ा धड़ा (डीएमके) द्रविड़ विचारधारा का समर्थक रहा है। 1950 से 1960 के बीच द्रविड़ आंदोलन से सत्ता में आई डीएमके में करुणानिधि ने भी उसी लाइन पर आगे बढ़ते हुए नास्तिकता का समर्थन किया था। लेकिन दक्षिण भारत के राजनैतिक पंडितों का मानना है कि करुणानिधि की मौत के बाद तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद और हिंदी के विरोध की राजनीति अब हाशिए पर चली जाएगी।
सबसे बड़ा सवाल है कि क्या जैसे जयललिता के जाने के बाद जो एआईएडीएमके में हुआ क्या वही हमें करुणानिधि के कुनबे और पार्टी में भी देखने को मिलेगा? ऐसे में तमिलनाडु की व्यक्तिवाद आधारित राजनीति में अब क्या होगा इस पर सबकी नजर रहेगी साथ ही यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि यह परिस्थितियां आने वाले 2019 लोकसभा चुनाव को कितनी प्रभावित करेंगी और कैसे?
करुणानिधि के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। डीएमके में करुणानिधि का उत्तराधिकारी कौन होगा? स्टालिन या अलागिरी?? स्टालिन और अलागिरी, दोनों ही करुणानिधि और दयालु अम्माल के बेटे हैं। देखा जाए तो स्टालिन को करुणानिधि ने खड़ा किया और पार्टी में उनकी जगह बनाई थी। हालांकि उन्होंने स्टालिन को स्वतंत्र रूप से पार्टी चलाने का अधिकार कभी नहीं दिया।
करुणानिधि ने 2014 में अलागिरी को पार्टी से निकाल दिया गया था। इसके बाद ही स्टालिन को पार्टी में जगह मिली। जनवरी 2017 से कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में डीएमके का कामकाज देखते रहे करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन फिलहाल पार्टी की बागडोर संभाल सकते हैं। करुणानिधि ने स्टालिन को भले ही राजनीतिक वारिस घोषित किया, लेकिन पार्टी में अब भी अलागिरी के समर्थक या उन्हें पसंद करने वाले ज्यादा माने जाते हैं।
वहीं दूसरी ओर जयललिता के जाने के बाद से ही एआईएडीएमके में मची अंदरूनी गुटबाजी और मौजूदा मुख्यमंत्री पलानिसामी, उपमुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम या अलग राह पकड़ने की तैयारी कर रहे टीटीवी दिनाकरण के पास भी जयललिता जैसा करिश्माई व्यक्तित्व नहीं है।
तमिलनाडु की राजनीति के शून्य को भांपकर और सिनेमा से जनता के जुड़ाव को देख दो तमिल सुपरस्टार अपने फैन फॉलोअर्स के सहारे अब द्रविड़ राजनीति का नया अध्याय शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं। जहां कमल हासन अपनी नई राजनीतिक पार्टी ‘मक्कल नीधि मैयम’ के सहारे जनता का भरोसा हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर रजनीकांत अपने प्रंशसकों के आधार पर एक नई राजनीतिक पार्टी को खड़ा करने में लगे हैं।
दूसरी ओर एआईएडीएमके के कार्यकर्ता और नेता, डीएमके की ‘नास्तिकतावाद द्रविड़ राजनीति’ की विचारधारा के उलट मंदिर भी जाते हैं और मूर्ति पूजा भी करते हैं। इसकी वजह से एआईएडीएमके और बीजेपी की विचारधारा मिलती है। यही वजह है कि संघ परिवार रजनीकांत और एआईएडीएमके (37 सांसद) वाले पन्नीरसेल्वम के नेतृत्व वाले धड़े के साथ मिलकर 2019 में गठबंधन के लिए प्रयासरत है।
तमिलनाडु की राजनीति में उपजे इस शून्य का फायदा उठाने के लिए कांग्रेस भी पुरजोर प्रयास करेगी क्योंकि उसकी भी राज्य में उपस्थिति नहीं के बराबर है। कांग्रेस पार्टी को तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके के साथी के तौर पर देखा जाता है। कांग्रेस का न तो वहां इतना जनाधार है कि वो खुद को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने के बारे में सोच सके। इसलिए लोकसभा चुनाव में अब उसका दांव डीएमके पर ही होगा।
गुरु अन्नादुरई की समाधि के पास अब करुणानिधि की भी समाधि बनने वाली है। यहां जयललिता और एमजीआर की समाधियां भी मौजूद है। इन सब सवालों के साथ चेन्नई के मरीना बीच पर लाखों लोगों का हुजूम उमड़ रहा है। यह हुजूम अपने ‘कलाईनार’ को अंतिम विदाई देने आया है… करिश्माई नेताओं के लिए मशहूर तमिलनाडु में लोगों को नए ‘थलाईवर’ के लिए शायद लंबा इंतजार करना होगा।