- लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
भारत के इतिहास में अपने पूर्वजों के महान कार्यों को समझने के लिए विद्वानों ने इसे कई कालखंडों में विभाजित किया है।इन कालखंडों में एक काल हिन्दू काल भी है,जो सिंधु के राजा दाहिर से प्रारंभ होकर पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु तक या इस्लामिक हमलावर मुहम्मद बिन कासिम (सन् 712) से लेकर मोहम्मद गोरी ( सन् 1192) के हमले तक है।इस 480 वर्ष के समयांतराल में राजा दाहिर का संघर्ष,उसके बाद गुर्जर प्रतिहार राजाओं का संघर्ष तथा चौहान राजाओं का संघर्ष अविस्मरणीय है।इस संघर्ष काल को ही मोहम्मद बिन कासिम द्वारा हिन्दूओं से संघर्ष तथा ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी के साथ आये विद्वान अलबरूनी द्वारा लिखित पुस्तक तहकीक-ए-हिन्द के आधार पर हिंदू काल की संज्ञा दी जा सकती है। इस समयांतराल के संघर्षों में एक संघर्ष सम्राट पृथ्वीराज चौहान का भी है।भारत के इतिहास में इस संघर्ष का महत्व इसलिए भी अधिक है कि पृथ्वीराज चौहान के मोहम्मद गोरी से हार जाने के बाद भारत में विदेशी मुस्लिम शासन की स्थापना हो गई थी।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु ( सन् 1192) से लेकर भारत के आजाद (सन् 1947) होने तक का 755 वर्ष का समय हिन्दूओं द्वारा अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किए गए संघर्ष का काल है।
भारत की राजनीति में पटना, कन्नौज और अजमेर के बाद दिल्ली एक राजधानी के रुप में पृथ्वीराज चौहान के मोहम्मद गोरी से हार जाने के बाद ही स्थापित हुई।
भारत के चौहान राजाओं में पांच चौहान सम्राट हुए हैं, सबसे पहले बीसलदेव, दूसरे अमर गंगेय (सन् 1164-1165),तिसरे पृथ्वीराज द्वितीय,चौथे सोमेश्वर चौहान और पांचवें पृथ्वीराज चौहान तृतीय जिनको राय पिथोरा भी कहा गया है।
चौहान राजाओं में तीन पृथ्वीराज चौहान हुए हैं, पृथ्वीराज चौहान प्रथम(सन्1090-1110), पृथ्वीराज चौहान द्वितीय (सन 1165-1169), पृथ्वीराज चौहान तृतीय(सन्1178-1192)।
यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र पृथ्वीराज तृतीय है। जिन्हें इतिहास में अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान उर्फ राय पिथोरा तथा पृथ्वीराज चौहान के दरबारी जयानक के द्वारा लिखित पृथ्वीराज विजय में गुर्जर राज व मरू गुर्जर राज कहा गया है।
पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में चौहानों का राज्य विंध्याचल से हिमालय तक फैला था। दिल्ली, हांसी,थानेश्वर व नगरकोट चौहान राज्य का हिस्सा थे। पृथ्वीराज चौहान के समय दिल्ली अजमेर का एक ठिकाना थी तथा दिल्ली के तोमर और मेवाड़ के गहलोत, चौहान सम्राट पृथ्वीराज के सामंत थे। गुर्जर प्रतिहार राजाओं के सामंत से सम्राट तक की यात्रा चौहान राजाओं ने किस प्रकार तय की,इसके लिए हम पाठकों को उस ओर लिए चलते हैं-
अरब हमलावरों से भारत को बचाने के लिए गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम के नेतृत्व में बप्पा रावल, देवराज भाटी व अजयराज चौहान (प्रथम) ने भारी संघर्ष किया। गुर्जर प्रतिहार
नागभट द्वितीय (सन् 816-833) ने अपने शासन काल में कई महत्वपूर्ण सफलताएं अर्जित की। नागभट द्वितीय ने चित्तौड़ के गहलोत व सौराष्ट्र के बाहकधवल के सहयोग से उणियारा (वर्तमान में टांक राजस्थान में)नामक स्थान पर पाल शासक धर्मपाल को पराजित कर दिया तथा सांभर के चौहान राजा गुवक प्रथम की सहायता से मत्स्य देश (वर्तमान अलवर राजस्थान में) के निकुंभ राजा को भी पराजित कर दिया। नागभट द्वितीय ने प्रसन्न होकर चौहान राजा गुवक प्रथम को “वीर” की उपाधि से विभूषित किया। गुर्जर प्रतिहार अपनी राजधानी कन्नौज मे स्थापित हो गए थे, इसलिए पुरानी राजधानी जालौर के क्षेत्र में चौहान उनके सबसे विश्वसनीय और प्रमुख प्रतिनिधि थे, इसलिए चौहान राजा गुवक प्रथम को दी गई “वीर” उपाधि को सम्पूर्ण क्षेत्र में रहने वाले गुर्जर आज भी धारण किए हुए हैं तथा गुर्जर बाहुल्य गांव में जगह जगह गांव में अंदर जाने के रास्ते पर आज भी “वीर गुर्जर” द्वार लिखा मिल जायेगा। चौहान राजा गुर्जर प्रतिहार राजाओं के लिए कितने महत्वपूर्ण थे,इस बात का पता इस एक रिश्तें से ही चल जाता है कि चौहान गुवक द्वितीय की बहन कलावती गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की रानी थी।
सम्राट मिहिर भोज के पोत्र सम्राट महिपाल (सन् 914-943) के अंतिम दिनों में गुर्जर प्रतिहार राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी थी,इस कारण महोबा के चंदेल,सांभर के चौहान, चित्तौड़ के गुहिल तथा ग्वालियर के कच्छपघट(कछवाहे) एक तरह से स्वतंत्र शासक बन गए थे। सम्राट महिपाल के समय सांभर के चौहान वाक्पतिराज प्रथम (सन् 917-944)शासक थे।इसके बाद सिम्ह राज (सन्944-971),विग्रह राज द्वीतिय (सन् 971-998)शासक बनें।
चौहान राजा दुर्लभ राज द्वीतिय (सन् 998-1012) ने मुस्लिम सेनापति शाहबुद्दीन को परास्त किया और गोविंद राज तृतीय (सन् 1012-1026),वाक्पतिराज द्वितीय (सन् 1026-1040) चौहान शासक रहें।
यह ग्यारहवीं शताब्दी का वह समय था जब बगदाद के खलीफा भारत को दारूल हरब से दारूल इस्लाम बनाने के प्रयास में नाकाम हो चुके थे। अतः भारत को दारूल इस्लाम बनाने के लिए किये जाने वाले संघर्ष की कमान सैनिक कार्यवाही के लिए अफगानिस्तान के तुर्क शासको पर तथा शांति मार्ग से इस्लाम को फैलाने की जिम्मेदारी सूफी सम्प्रदाय पर आ गई थी। ग्यारहवीं शताब्दी में इमाम गज्जाली ने सूफी मत को इस्लाम के एक हिस्से के रूप में मान्यता दे दी थी। ये सूफी अरब व बगदाद के मुस्लिम व्यापारियों के साथ भारत में आ गए तथा भारत के आम जनमानस में घुल-मिल कर रहने लगे थे।
अरबी शासकों ने अपने तुर्क गुलामों को इस्लाम में दिक्षित कर अपने अंगरक्षक बनाने प्रारंभ कर दिए थे।जो तुर्क गुलाम अधिक काबिल होते थे वो सेनानायक भी बनने लगे थे तथा उच्च पदों पर जाने लगे थे।ये गुलाम तुर्क सरदार अपने महलों व अपने अंगरक्षक के रूप में तुर्की गुलाम ही नियुक्त करते थे।
गजनी में एक दुर्ग था जिसका निर्माण कभी भाटी राजाओं ने करवाया था।यह दुर्ग अल्तगीन तुर्क के अधीन था,इस अल्तगीन का वंश ही गजनी वंश कहलाया।अल्तगीन एक तुर्की गुलाम था,अल्तगीन के बाद सुबुक्तगीन शासक बना, सन् 997 में सुबुक्तगीन की मृत्यु के बाद सुबुक्तगीन का छोटा बेटा गजनी का शासक बना, परन्तु सुबुक्तगीन के बड़े बेटे महमूद ने अपने छोटे भाई की हत्या कर के गजनी की सत्ता पर कब्जा कर लिया।यही महमूद, महमूद गजनवी के नाम से जाना गया। महमूद गजनवी ने खलीफा से यह आग्रह किया कि यदि खलिफा उसे सुल्तान घोषित कर दे तो वह जब तक जीवित रहेगा तब तक भारत पर हमला करता रहेगा तथा कुफ्र का सफाया कर देगा,खलीफा को लूट की सम्पत्ति में भी हिस्सा देगा।खलीफा की समझ में महमूद गजनवी की बात आ गई और महमूद गजनवी एक गुलाम से सुल्तान बन गया।खलीफा अलकाहिदे बिल्लाह ने महमूद गजनवी को यामिनीद्दोला अर्थात साम्राज्य का दाहिना हाथ और अमीनउलमिल्लत अर्थात मुसलमानों का संरक्षक नामक उपाधियां प्रदान की।यामिनीद्दोला उपाधि के कारण ही महमूद गजनवी का वंश यामिनी वंश कहलाया।अपनी बात को सत्य सिद्ध करते हुए महमूद गजनवी ने भारत पर सन् 1000 से लेकर सन् 1027 तक लगातार 17 हमले किए।
महमूद गजनवी के द्वारा किए गए इन 17 हमलों में तीन हमले बडे महत्वपूर्ण है।
महमूद गजनवी द्वारा सन 1008 में हिंदू शाही के राजा जयपाल, सन् 1018 में कन्नोज के गुर्जर प्रतिहार राजा राजपाल तथा सन्1025 में सोमनाथ पर प्रमुख रूप से किये गये हमले है। जिनके कारण भारत की राजनीतिक व सामाजिक प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। सन् 1030 में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गई। महमूद गजनवी के उत्तराधिकारियों में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया। अतः उपयुक्त अवसर का लाभ उठाते हुए
वीर्य राम चौहान (सन् 1040) ने गजनी की सेना को परास्त कर दिया। चौहान राजा विग्रह राज तृतीय (सन् 1070-1090) ने दिल्ली के तोमरो के सहयोग से हांसी,थानेश्वर व नगर कोट को गजनवी के उत्तराधिकारियों के शासन से मुक्त करा लिया। विंध्याचल से हिमालय तक विदेशी मुस्लिम शासकों को भगा दिया गया। पृथ्वीराज प्रथम ने गजनी के सेनापति तुगस्दीन को युद्ध में हरा दिया।
चौहान राजा अजयराज द्वीतिय (सन् 1110-1135) ने अजमेर को अपनी राजधानी बनाया।अब चौहान राजधानी सांभर के स्थान पर अजमेर हो गई। अजयराज चौहान के शासनकाल में नागौर पर गजनी के शासकों का कब्जा हो गया था। परन्तु अजयराज चौहान के उत्तराधिकारी अरणोराज(सन् 1135-1150) उर्फ आना जी ने नागौर दुर्ग को पुनः अपने अधिकार में ले लिया तथा गजनी के शासकों को यहां से मार कर भगा दिया।अरणोराज के समय मुस्लिम सेना पुश्कर तक पहुंच गई थी,अरणोराज ने तारागढ़ क़िले से कुछ दूरी पर इस तुर्की सेना को युद्ध में समाप्त कर दिया तथा पुश्कर की पहाड़ियों से निकलने वाली चंद्रा नदी के पानी को लाकर युद्ध स्थल पर एक झील का निर्माण करवाया, जिसे आनासागर झील कहते हैं।अरणोराज ने परमभट्टारक,महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।अरणोराज की उसके बड़े पुत्र जगदेव ने हत्या कर दी तथा अजमेर की गद्दी पर अधिकार कर लिया। परंतु अरणोराज के छोटे भाई विग्रह राज चतुर्थ उर्फ बीसल देव(सन् 1150-1164) ने पिता के हत्यारे जगदेव को गद्दी से हटा दिया।अब बीसलदेव अजमेर के शासक बन गए।बीसलदेव बड़े ही शक्तिशाली चौहान शासक हुए।इन बीसलदेव के समय में गजनी की मुस्लिम सेना वर्तमान राजस्थान में शेखावाटी में स्थित भवेरा गांव तक आ पहुंची थी। लेकिन बीसलदेव ने अपनी सेना तथा सहयोगियों की मदद से इन मुस्लिम सेनाओं को अटक नदी के पार खदेड दिया तथा हिमालय से लेकर विंध्याचल तक का क्षेत्र विदेशी मुस्लिम हमलावरों से खाली करा लिया।बीसलदेव का दिल्ली में एक शिलालेख 9 अप्रैल सन् 1163 का प्राप्त हुआ है,जिसको शिवालिक स्तम्भ लेख भी कहते हैं।इस शिलालेख में बीसलदेव के द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन है।बीसलदेव ने ही दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर को अपने अधीन कर लिया।बीसलदेव साहित्य प्रेमी, साहित्यकारों का आश्रय दाता था,बीसलदेव को कवि बांधव की उपाधि प्राप्त थी,वह हरि वेली नाटक के रचनाकार थे। इस समय चौहान राज्य की सीमा शिवालिक पहाड़ी सहारनपुर उत्तर प्रदेश से लेकर अटक नदी तक थी। बीसलदेव चौहानों के प्रथम सम्राट थे।बीसलदेव ने ही धार की तरह अजमेर में संस्कृत विद्यालय तथा सरस्वती का मंदिर बनवाया, जिसे अब ढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं तथा बीसलसर झील का निर्माण करवाया।बीसलदेव ने गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की तरह परमभट्टारक,महाराजाधिराज, परमेश्वर, श्रीमद् उपाधि धारण की। सन् 1158 के नाहड़ लेख के अनुसार अपने नाम के पीछे देवराज की उपाधि भी बीसलदेव ने प्राप्त की।बीसलदेव पहले चौहान सम्राट थे।बीसलदेव का शिलालेख अजमेर संग्राहलय में रखा है जिसमे चौहानों को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है।
सम्राट बीसलदेव के साहित्य प्रेम व विद्वता तथा विद्वानों का आदर करने के कारण उन्हें कवि बांधव की उपाधि दी गई थी।
ऐसा माना जाता है कि बीसलदेव के समय ही सहारनपुर में शाकुम्भरी माता का मंदिर बना, बीसलदेव चौहान तथा पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल के मध्य (सन् 1150-1192) ही दिल्ली के आसपास दादरी दनकौर के क्षेत्र में 360 गांव भाटी गुर्जर तथा कैराना के आसपास 84 गांव चौहान गुर्जरों को चौहान सम्राट द्वारा जागीर देकर बसाया गया है।
सम्राट बिसलदेव की मृत्यु के बाद उसका अल्पव्यस्क पुत्र अमरगंगेय शासक बना, परन्तु अमरगंगेय को बीसलदेव के भाई के पुत्र पृथ्वीराज चौहान द्वितीय ने हटा दिया और खुद सम्राट बन गया। सन् 1169 में पृथ्वीराज चौहान द्वितीय की मृत्यु हो गई।वह निसंतान था।
सन् 1170 में बिजौलियां शिलालेख में चौहानों को विप्र श्रीवत्स गोतभूते लिखा है,यहा विप्र का अर्थ विद्वान,वत्स का अर्थ पुत्र तथा गोत का अर्थ कुल या वंश है जिसका अर्थ है विद्वान कुल के पुत्र।ऐसा बीसलदेव चौहान के विद्वान होने के कारण लिखा गया है, परन्तु इतिहास कार दशरथ शर्मा ने इसको पढ़कर चौहानों को ब्राह्मण ही लिख दिया।
उस स्थिति में अजमेर के सामंतों ने सोमेश्वर चौहान को सम्राट बनाने के लिए अपना समर्थन दिया। सोमेश्वर चौहान अपने नाना सिद्धराज चालुक्य के पास गुजरात में रह रहे थे। सोमेश्वर चौहान की शादी चेदी देश (वर्तमान में जबलपुर के पास) के कलचूरी राजा की राजकुमारी कर्पूरी देवी के साथ हो गई थी, अपने नाना के यहां ही सोमेश्वर चौहान के दो पुत्र पृथ्वीराज चौहान व हरिराज चौहान तथा एक पुत्री पृथा पैदा हो गई थी। अजमेर में शासन करने के लिए सोमेश्वर चौहान अपने नाना के यहां से नागर वंशी ब्राह्मण स्कंद,बामन तथा सौर नामक योग्य व्यक्तियों को ले आये थे। सन् 1178 में सोमेश्वर चौहान की मृत्यु हो गई थी।18 अगस्त सन् 1178 का आवल्दा नामक स्थान से सोमेश्वर चौहान का एक अंतिम शिलालेख प्राप्त हुआ है तथा 14 मार्च सन् 1179 का बडल्लया नामक स्थान से पृथ्वीराज चौहान तृतीय का प्रथम शिलालेख प्राप्त हुआ है, इसलिए विद्वानों का ऐसा मानना है कि पृथ्वीराज चौहान उर्फ राय पिथोरा का राजतिलक अगस्त 1178 व मार्च 1179 के समयांतराल में कभी हुआ है। सम्राट बनने के समय पृथ्वीराज चौहान की आयु 12-13 वर्ष थी। अल्पव्यस्क होने के कारण पृथ्वीराज चौहान की माता कर्पूरी देवी ने राजकाज को अच्छी तरह से सम्भाल लिया। कर्पूरी देवी ने राजकाज को सम्भालने के लिए कदम्वास दाहिमा नामक एक योग्य व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त किया तथा अपने सहयोग के लिए चेदि देश से अपने चाचा भुवनमल्ल को भी अजमेर बुला लिया।
पृथ्वीराज चौहान व हरिराज चौहान की शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था सरस्वती कंठावरण पाठशाला अजमेर में की गई। पृथ्वीराज विजय के अनुसार पृथ्वीराज चौहान 64 कला व 14 विद्याओं में पारंगत थे। धर्मशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, संगीत कला, इंद्र जाल, कविता, वाणिज्य विनिमय तथा 6भाषाए संस्कृत अपभ्रंश, प्राकृत,पेशाची महाघवी एवं सूरसेनी के साथ अनेक देशी भाषाएं,पक्षी भाषाएं, गणित विद्या के साथ तलवार,भाला, धनुष सहित 36 प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने व धारण करने में दक्ष थे।
पृथ्वीराज चौहान ने दो वर्ष पश्चात ही अपनी माता से शासन की बागडोर अपने हाथ मे ले ली।शासन को अपने अनुरूप चलाने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने अपने मंत्रिमंडल में आमूलचूल परिवर्तन किया। प्रधानमंत्री कदम्वास के स्थान पर पं पद्मनाभ को प्रधानमंत्री नियुक्त किया, सेनापति भुवनमल्ल के स्थान पर गुजरात से आये नागर ब्राह्मण स्कंद को सेनापति बना दिया गया। सेनापति स्कंद के सहयोग के लिए उदयराज,कातिया, गोपाल सिंह चौहान सेना नायक बनाये गये। जयानक, विद्यापति गोंड,वासिश्वर,विश्वरूप,रामभट्ट और प्रताप सिंह को मंत्री बनाया गया। मंत्री जयानक ने ही पृथ्वीराज विजय की रचना की।
पृथ्वीराज चौहान को अपदस्थ करने के लिए सम्राट बिसलदेव के पुत्र तथा पृथ्वीराज चौहान के चाचा अमरगंगेय ने विद्रोह कर गुड़गांव पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज चौहान ने अमरगंगेय को परास्त कर मार डाला। अमरगंगेय के छोटे भाई नागार्जुन ने भी विद्रोह का झंडा खडा कर दिया। पृथ्वीराज चौहान के राज्य के उत्तरी भाग में मथुरा, भरतपुर,अलवर के आसपास भडानक (भडाना जो गुर्जर जाति का एक गोत्र है) बडी संख्या में रहते थे जो एक शक्तिशाली तथा लडाका समुदाय के रूप में प्रसिद्ध थे।ये भडानक भी नागार्जुन के सहयोगी बन गए।इस विद्रोह को दबाने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने बडी तैयारी के साथ योजना बनाई। पृथ्वीराज चौहान अपनी सेना लेकर जब नागार्जुन से युद्ध के लिए आगे बढ़ा तो नागार्जुन युद्ध से पहले ही भाग गया। नागार्जुन के सेनापति ने पृथ्वीराज चौहान का सामना किया परन्तु वह भी परास्त हो गया। नागार्जुन की माता, स्त्री और बच्चे तथा कुछ सैनिकपकड़ लिए गए। पृथ्वीराज विजय के अनुसार अजमेर लाकर सभी विद्रोहियों को मार डाला गया तथा विद्रोहियों के सर अजमेर के प्रमुख स्थानों पर टांग दिए गए, जिससे कोई आगे विद्रोह करने से पहले उसके परिणाम से परिचित रहें।
सन् 1182 में पृथ्वीराज चौहान ने एक बडी सेना लेकर भडानको (भडाना)पर हमला किया ।भड़ानक’ मुख्य रूप से मथुरा, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली क्षेत्र में निवास करते थे और यह क्षेत्र इनके राजनीतिक आधिपत्य के कारण ‘भड़ाना देश’ अथवा ‘भड़ानक देश’ कहलाता था। सम्भवतः भड़ानकों की बस्तियाँ दिल्ली के दक्षिण में फरीदाबाद जिले तक थीं, जहाँ आज भी ये बड़ी संख्या में निवास करते हैं। फरीदाबाद जिले में भड़ानों के बारह गांव आबाद हैं। इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार जब शाकुम्भरी के राजा पृथ्वीराज चौहान ने भड़ाना देश पर आक्रमण किया, उस समय पर इस राज्य की पूर्वी सीमा पर चम्बल नदी एवं कछुवाहों का ग्वालियर राज्य था, पूर्वोत्तर दिशा में इसकी सीमाएँ यमुना नदी एवं गहड़वालों के कन्नौज राज्य तक थी। इसकी अन्य सीमाएँ शाकुम्भरी के चौहान राज्य से मिलती थी। भड़ाना या भड़ानक देश एक पर्याप्त विस्तृत राज्य था। स्कन्द पुराण के विवरण के अनुसार भड़ाना देश में 1,25,000 ग्राम थे। समकालीन चौहान राज्य में भी इतने ग्राम न थे। पृथ्वीराज चौहान ने भडानको की हाथी सेना को परास्त कर उत्तर की ओर धकेल दिया। समकालीन लेखक जिनपथि सूरी ने अपने ग्रंथ में इस हमले का वर्णन किया है।
अपने राज्य विस्तार के लिए पृथ्वीराज चौहान ने अगला हमला मोहबा के चंदेल राजा परमाल देव पर किया। चौहान राज्य की पूर्वी सीमा मोहबा से मिलती थी। मध्य भारत के बुंदेलखंड,जेजाभक्ति तथा मोहबा, कालिंजर का प्रसिद्ध दुर्ग तथा राजा पृथ्वीराज चौहान का ननिहाल चेदि देश,जहा कलचूरी राजवंश का शासन था, चंदेलों और कलचूरी राजवंश के राज्य को मिलाकर जो क्षेत्र बनता था,वो बुंदेलखंड कहलाता था। चंदेल राजा के कन्नौज के राजा जयचंद के साथ मैत्री सम्बन्ध थे। सन् 1182 के मदनपुर शिलालेख के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने जेजाभुक्ति को नष्ट कर दिया तथा चंदेल राज्य पर आक्रमण कर दिया।इस हमले का सामना करने के लिए चंदेल राजा ने अपने प्रसिद्ध योद्धा आल्हा-ऊदल को,जो इस समय कन्नौज में थे को बुलावा भेजा। आल्हा-ऊदल अपनी मात्रभूमि की रक्षा के लिए मोहबा आ गये। मात्रभूमि और राष्ट्र का आशय उस समय,उस स्थान या राज्य से होता था, जिसमें वह निवास करता था, आल्हा-ऊदल चंदेल राजा परमाल के सेनापति जस्सराज के पुत्र थे तथा अहीर जाति की उप-जाति बनाफर में पैदा हुए थे। आल्हा-ऊदल ने मोहबा को बचाने के लिए भयानक युद्ध किया।जब युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना भारी पडने लगी तो ऊदल ने अपनी पगड़ी में शालिग्राम और तुलसी बांधकर अपनी सेना के साथ घोड़ों से नीचे उतर कर घमासान युद्ध किया,इस युद्ध में ऊदल पृथ्वीराज चौहान के योद्धा काका कन्ह चौहान के हाथो वीरगति को प्राप्त हो गया,राजा पृथ्वीराज चौहान भी बुरी तरह घायल होकर जमीन पर गिर गया।ऊदल की मृत्यु होते ही चंदेल राजा ने अपनी हार स्वीकार कर ली, चंदेल राजा के हारने के बाद धासान नदी के पश्चिमी भाग सागर,ललकपुर,ओरछा, झांसी,सिरसवा, गढ़ मोहबा का बहुत सा भू-भाग पृथ्वीराज चौहान के हाथो में आ गया। पृथ्वीराज चौहान ने अपने सामंत पंजावन राय को इस क्षेत्र का प्रांतपति बना दिया।इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान भले ही विजयी हो गये, परंतु आल्हा-ऊदल की वीरता आज तक भी भारतीय जनमानस के मन पर छाई हुई है,वो अमर हो गए।आम जनमानस में इस युद्ध में आल्हा-ऊदल ही विजेता माने जाते हैं।
अब पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाएं कन्नौज राज्य की सीमा से मिल गई थी।
मोहबा पर विजय के पश्चात सम्राट पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाएं उत्तर में जम्मू के राजा, दक्षिण में चालुक्य शासक, उत्तर पूर्व में कन्नौज के गढ़वाल शासक तथा पश्चिम में मुस्लिम शासकों से मिल गयी।इस कारण ये सब पृथ्वीराज चौहान के शत्रु बन गए थे। परन्तु सबसे अधिक खतरा इनमें से चौहान साम्राज्य को होना था,तो वह वह पश्चिम की ओर से था।
पश्चिम में गजनी में इस समय गोर वंश का शासन था, मोहम्मद गोरी भी गजनवी की तरह भारत पर हमला कर,अरब के खलिफाओ से प्रशंसा प्राप्त करना चाहता था। मोहम्मद गोरी महमूद गजनवी के द्वारा बनाए गए अमीरों से राज्य को छीनकर अपने कब्जे में करते हुए आगे बढ़ रहा था। मोहम्मद गोरी ने गजनवी द्वारा स्थापित पंजाब के अमीरों को पराजित पर सन् 1179 में पेशावर, पंजाब के स्यालकोट, सन् 1182 में मोहम्मद गोरी ने सिंध क्षेत्र के देवल को अपने अधिकार में कर लिया। सन् 1185 में लाहौर को भी अपने अधिकार में ले लिया। लाहौर पर अधिकार हो जाने के बाद पंजाब के सरहिंद से मोहम्मद गोरी के राज्य की सीमा लग गई। सरहिंद का दुर्ग पृथ्वीराज चौहान के राज्य में था।
सन् 1189 में मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के अधीन भटिंडा पर हमला कर दिया।इस हमले पर पृथ्वीराज चौहान ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की।
सन् 1191 में मोहम्मद गोरी ने सरहिंद के किले पर हमला कर अपने अधिकार में ले लिया ,अब पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी के विरूद्ध सैनिक अभियान किया। पृथ्वीराज चौहान ने अपने सामंत दिल्ली के राजा गोविन्द राय तोमर/ खांडेराव तोमर को मोहम्मद गोरी पर हमले का आदेश दिया। गोविंद राय तोमर ने थानेश्वर और करनाल के मध्य तराईन के मैदान में गोरी की सेना पर जोरदार हमला किया।इस युद्ध में गोविंद राय तोमर का मोहम्मद गोरी से आमना-सामना हो गया। मोहम्मद गोरी के हमले से गोविन्द राय तोमर के दो दांत टूट गए, परन्तु गोविंद राय तोमर ने मोहम्मद गोरी पर ऐसा जोरदार हमला किया कि वह बुरी तरह घायल हो गया, मोहम्मद गोरी की सेना में भगदड़ मच गई।इस भगदड़ में मोहम्मद गोरी के सेनानायक किसी प्रकार घायल मोहम्मद गोरी को बचा ले गये। पृथ्वीराज चौहान ने आगे बढ़कर सरहिंद के किले पर हमला कर अपने अधिकार में ले लिया तथा मोहम्मद गोरी की ओर से नियुक्त सरहिंद के किलेदार काजी जियाउद्दीन को बंदी बना लिया। पृथ्वीराज चौहान काजी जियाउद्दीन को पकड़ कर अजमेर ले आया।पृथ्वीराज चौहान से काजी जियाउद्दीन ने निवेदन किया कि यदि सम्राट उसके प्राण बख्श दे तथा मुक्त कर दे तो वह सम्राट को विपुल धन देगा। सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने धन लेकर काजी जियाउद्दीन को छोड दिया।काजी जियाउद्दीन गजनी चला गया।हम ऊपर लिख चुके हैं कि सूफी भी मुस्लिम बादशाह के साथ रहते थे,इस दौरान भी मोहम्मद गोरी के साथ मोहिनुद्दीन चिश्ती नाम के एक सूफी साथ थे। सूफी मोइनुद्दीन चिश्ती वापस नही गया।वह फकीरों का भेष बनाकर अजमेर में ही रहने लगा।मिनाज- उल- सिराज, अबुल फजल तथा मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनि ने अपनी पुस्तकों में मोइनुद्दीन चिश्ती के अजमेर आने के विषय में लिखा है।
ऊधर मोहम्मद गोरी ने स्वस्थ होकर नये सिरे से गजनी में सेना एकत्रित करनी प्रारंभ कर दी। पूरे एक वर्ष तक तैयारी करने के बाद मोहम्मद गोरी एक लाख बीस हजार की सेना लेकर पृथ्वीराज चौहान पर हमला करने के लिए गजनी से चल दिया। सन् 1192 के युद्ध से पहले पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी की सेना के बीच अनेक छोटी बडी झड़पें हुईं।इन झड़पों के बारे में पृथ्वीराज रासो में 21 बार,हम्मीर काव्य में 7 बार, पृथ्वीराज प्रबंध में 8 बार,सुरजन चरित्र में 21 बार, प्रबंध चिंतामणि में 23 बार पृथ्वीराज चौहान की मोहम्मद गोरी पर विजय बताई गई है। प्रबंध कोष में 20 बार पृथ्वीराज चौहान के द्वारा मोहम्मद गोरी को परास्त कर पकड़ कर छोड़ना लिखा है।इन ग्रंथों के प्रचार के कारण पृथ्वीराज चौहान की छवि एक बिल्कुल अनुभव हीन राजनितिक राजा की बन गई है। पृथ्वीराज चौहान एक सम्राट था,वह अपने दुश्मनों से निपटना जानता था, कौन सा दुश्मन उसके लिए कितना हानिकारक है वह भली-भांति समझता था। पृथ्वीराज चौहान ने अपने चाचा अमरगंगेय व नागार्जुन के परिवार को भी गिरफ्तार कर जिंदा नही छोडा था तो मोहम्मद गोरी को कैसे छोड देता। वास्तविकता यही है कि छोटी बडी कुछ झड़पों में पृथ्वीराज चौहान का पलडा भारी रहा। मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के पास अपना दूत अजमेर भेजा और कहा कि या तो पृथ्वीराज चौहान इस्लाम स्वीकार कर ले,या गम्भीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाये। पृथ्वीराज चौहान ने जबाव दिया कि या तो गजनी वापस लौट जाओ, वर्ना भेट युद्ध के मैदान में होगी।
गोरी ने पृथ्वीराज चौहान का उत्तर सुनकर छल करने का निर्णय लिया। गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को लिख भेजा कि वह अपने बड़े भाई जो कि सुल्तान है, से पूछ कर निर्णय लेगा। गोरी ने कहा वह भी युद्ध नही चाहता। यदि मेरे बडे भाई जो कि गजनी का सुल्तान है, की सहमति मिलने पर वापस चला जायेगा। परन्तु पृथ्वीराज चौहान पंजाब, मुल्तान व सरहिंद पर गजनी का अधिकार मान ले।
पृथ्वीराज चौहान तुरन्त अजमेर से एक सेना लेकर तराईन की ओर चल दिया। पृथ्वीराज चौहान की सेना का मुख्य भाग, सेनापति स्कंद के साथ था,वह साथ नही चल सका तथा पिछे रह गया।दूसरा सेनापति उदयराज भी समय से अजमेर से रवाना ना हो सका। पृथ्वीराज चौहान का मंत्री सोमेश्वर जो पृथ्वीराज चौहान के द्वारा पहले दंडित किया जा चुका था, चुपके से अजमेर से निकल कर मोहम्मद गोरी से जा मिला। जम्मू का हिंदू राजा भी अपनी सेना लेकर गोरी से जा मिला।
तराईन के द्वीतिय युद्ध के समय पृथ्वीराज चौहान की आयु कुल 26 वर्ष थी। पृथ्वीराज चौहान का प्रमुख सेनापति स्कंद, मंत्री प्रताप सिंह एवं सोमेश्वर तीनों ही पृथ्वीराज चौहान के वफादार नहीं थे। सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती भी पल-पल की सूचना मोहम्मद गोरी को दे रहा था। पृथ्वीराज चौहान की अन्य सेनाएं पृथ्वीराज चौहान से कितनी दूर थी इसकी सम्पूर्ण जानकारी मोहम्मद गोरी को थी। पृथ्वीराज चौहान के साथ दिल्ली का राजा गोविन्द राय तोमर अपनी सेना के साथ था। पृथ्वीराज चौहान ने अपनी सेना का खेमा सरस्वती नदी के एक किनारे पर लगा दिया, मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को धोखा देने के लिए अपनी सेना की छोटी सी टुकडी का एक खेमा सरस्वती नदी के दूसरे किनारे पर लगा दिया तथा सेना के मुख्य भाग को पीछे छिपाकर रखा। पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को सूचना भेजी कि या तो वह युद्ध करें वर्ना भाग जाये। मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज से निवेदन किया कि उसने अपना दूत अपने बड़े भाई के पास भेजा है,वह तो सिर्फ सेनापति है सुल्तान तो उसका बडा भाई ही है, इसलिए कुछ समय दें। पृथ्वीराज चौहान गोरी के द्वारा प्रयोग किए गए झांसे में आ गया । मोहम्मद गोरी ने अपनी सेना के पांच भाग किये। पांच जगह दस-दस हजार घुड़सवार रखें।चार टुकड़ियों को पृथ्वीराज चौहान की निंद्रा में पडी सेना पर चारों ओर से हमला करने के लिए एक मार्च सन् 1192 की प्रातः काल में भेज दिया। दुष्ट मोहम्मद गोरी ने अचानक हमला कर पृथ्वीराज चौहान की सेना का कत्लेआम शुरू कर दिया। हजारों सैनिक मार डालें गये।यह युद्ध नही था एक भयंकर दुर्घटना थी।इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना के ना तो रण गजो पर होदे चढ़े ,ना घोड़ों पर जीन कसी,ना सैनिक कवच धारण कर घोड़ों पर सवार हो सकें।ना कुमकुम का तिलक लगा सकें,ना अपने चारणो और भाटो द्वारा अपने पूर्वजों की बहादुरी का बखान सुन कर शत्रु से दो-दो हाथ कर सके।अचानक हुए इस हमले से पृथ्वीराज चौहान की सेना में भगदड़ मच गई। तराईन के प्रथम युद्ध के विजेता गोविंद राय तोमर ने साहस दिखाते हुए अपनी गज सेना को तैयार कर मोहम्मद गोरी की सेना का सामना किया। गोविंद राय तोमर ने अपनी सेना के दाहिने ओर की कमान पदमशाह रावल को तथा बायी ओर की कमान भोला उर्फ भुवनेक मल्ल के नेतृत्व में लेकर युद्ध प्रारम्भ कर दिया।इस संकट की घड़ी में गोविंद राय तोमर ने अदम्य साहस का प्रदर्शन किया, उसने अपने सम्राट पृथ्वीराज चौहान को एक हाथी पर बैठाकर भयंकर युद्ध किया। युद्ध का परिणाम अपने विरूद्ध जाता देख एक दिशा में आक्रमण कर सम्राट को युद्ध के मैदान से निकालने का रास्ता बना दिया। अब पृथ्वीराज चौहान हाथी से नीचे उतर कर घोड़े पर सवार हो गया। पृथ्वीराज चौहान की सेना को एक ओर से निकलते देख गोरी ने अपने पांचवें दस्ते को उस पर हमले का आदेश दिया।दूसरी ओर इस घमासान युद्ध में गोविंद राय तोमर वीर गति को प्राप्त हो गया। गोरी के सैनिकों ने पृथ्वीराज चौहान को चारों ओर से घेर लिया।इस पर पृथ्वीराज चौहान अपने को घिरा देख शत्रु पर प्राणघातक आक्रमण करने के लिए सैनिकों सहित घोड़े से नीचे उतर कर युद्ध करने लगा। परन्तु तुर्की सैनिक अधिक होने के कारण निकलने का रास्ता ना मिल सका।एक तुर्की सैनिक ने युद्ध कर रहे पृथ्वीराज चौहान के गले में लोहे की सिंहनी डाल दी और पृथ्वीराज चौहान को गिरफ़्तार कर लिया।इस प्रकार तराईन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की पराजय हो गई।17 मार्च सन् 1192 को दिल्ली पर मोहम्मद गोरी का अधिकार हो गया।
मोहम्मद गोरी के अजमेर पर अधिकार हो जाने के बाद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के अल्पव्यस्क पुत्र को अजमेर का शासक नियुक्त कर दिया। मोहम्मद गोरी ने कई प्रकार के सिक्के चलवाये, जिनमें एक ओर पृथ्वीराज चौहान तथा दूसरी ओर मोहम्मद गोरी का नाम अंकित था।
अजमेर में ही गोरी ने अपने विरूद्ध षड्यंत्र रचने का आरोप लगा कर पृथ्वीराज चौहान की हत्या कर दी।
इस प्रकार भारत के एक युग का दुखद अंत हो गया।
मोइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में अपना एक खानगाह (मठ) बनाया। मोहम्मद गोरी ने मोइनुद्दीन चिश्ती को सुल्तान-ए-हिंद की उपाधि प्रदान की।
समाप्त
नोट- पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज चौहान की माता का दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर की पुत्री कमला देवी बताया गया है जो गलत है, पृथ्वीराज चौहान और जयचंद को मौसेरे भाई तथा दुश्मनी का कारण दिल्ली के राज का पृथ्वीराज चौहान को मिलना बताया गया है, जबकि दिल्ली के तोमर तो पहले से ही अजमेर के चौहान राजाओं के सामंत थे। फिर जयचंद को दिल्ली कैसे मिल सकती थी। मोहम्मद गोरी को धीर सिंह पुंडीर द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाना लिखा है जो सत्य नही है। तराईन के दूसरे युद्ध की तिथि संवत 1158 अर्थात सन् 1101 लिखी है,वह भी गलत है,इस प्रकार पृथ्वीराज रासो ग्रंथ एतिहासिकता से दूर हो गया है। क्योंकि पृथ्वीराज विजय का लेखक जयानक तराईन के युद्ध में अपने स्वामी की हार होते ही अजमेर को छोड़कर कश्मीर चला गया था।इस कारण पृथ्वीराज चौहान पर कोई लिखित ग्रंथ नही था। परन्तु सन् 1876 में जयानक द्वारा लिखित पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ मिल गया।
संस्कृत भाषा में विरचित जीवनीपरक ऐतिहासिक महाकाव्यों की श्रृंखला में काश्मीर निवासी महाकवि श्री जयानक द्वारा प्रणीत पृथ्वीराजविजय महाकाव्यम् शीर्षक ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भूर्जपत्र पर लिखित इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि की पहली खोज डॉ. जी. बूह्लर द्वारा सन् 1876 में की गई थी, जब वे संस्कृत की प्राचीन पाण्डुलिपियों का पता लगाने के लिए काश्मीर गये थे। उन्होंने तत्सम्बद्ध सम्पूर्ण सामग्री ‘डेक्कन कॉलेज, पुना’ को सुपुर्द कर दी, जिनका विवरण उस कॉलेज की सन् 1875-76 की 150वीं संख्या पर उल्लिखित है। डॉ. बूह्लर ने अपनी शोधयात्रा का विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत करते समय इस बात पर हार्दिक दुःख प्रकट किया है कि संस्कृत के अमर ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों की वर्तमान दुर्दशा निस्संदेह हमारे लिए दुर्भाग्य की सूचक है।
डॉ. बूह्लर की समग्र रिपोर्ट का गम्भीर अध्ययन करने के पश्चात् स्वर्गीय पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने और पूर्वतः म.म.पं. गौरीशंकर ओझा ने तदनंतर ‘पृथ्वीराजविजय महाकाव्य’ का सुसम्पादित संस्करण वि. संवत् 1995 अर्थात सन् 1938 में वैदिक यंत्रालय, अजमेर से प्रकाशित कराया।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।