सुशोभित सक्तावत
सन् सैंतालीस में भारत आज़ाद हुआ. “नेहरू बहादुर” प्रधानमंत्री बने. सत्रह साल उन्होंने एकछत्र राज किया. हिंदुस्तान की तमाम अकादमियों में इन सत्रह सालों में “नेहरू बहादुर” ने चुन-चुनकर ऐसे लोगों को बैठा दिया, जिन्हें भारतीय परंपरा से संबद्ध हर ज्ञान से चिढ़ हो. चाहे वो लोक का ज्ञान हो या शास्त्र का ज्ञान हो।
नेहरू के प्रवर्तन से ही मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतिहास रचना की।उनकी पूरी दृष्टि ही भारत विरोधी है।दामोदर धर्मानंद कोसम्बी ने “श्रीमदभगवद्गीता” को ब्राह्मणवादी और सवर्णवादी ग्रंथ बताया, तो दूसरी तरफ़ रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब ने यह साबित करने में जान लगा दी कि मुग़ल कितने दयालु थे! “इतिहास की पुनर्व्याख्या” का मार्क्सवादी आग्रह सुविदित है।
भारतीय प्राच्यविद्या को अंधविश्वासों से जोड़ दिया गया, जबकि उसमें गणित, व्याकरण, काव्य, चिकित्सा की अद्भुत दृष्टियां हैं। मजाल है आज कोई “जेएनयू” या “डीयू” जैसी हिंदुस्तान की किसी बड़ी अकादमी से पढ़कर निकले और राजशेखर, भरतमुनि, व्यास, पाणिनि, आर्यभट या कुमारिल को उद्धृत करे! इस पूरी ज्ञान-परंपरा को ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहकर निरस्त करने की कोशिशें आज भी की जा रही हैं!
संस्कृत का नाम लो तो पढ़े लिखे बुद्धिजीवी नाक-भौं सिकोड़ते हैं और “अष्टाध्यायी” और “अमरकोश” की बात करो तो सामान्यजन यूं कौतुक से देखते हैं, जैसे किन्हीं विलायती ग्रंथों का नाम ले लिया हो! यह नेहरू का भारत है, जहां अच्छी अंग्रेज़ी लिखना गर्व की बात मानी जाती है और अच्छी हिंदी हमें असहज कर देती है।सुशोभित को तो उसकी क्लिष्ट तत्समनिष्ठ हिंदी के लिए तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों द्वारा ही नियमित टोका जाता है तो किसी और की बात क्या करें! योग तक को “भगवा” माना जाता है!
हमारे बुद्धिजीवी रात-दिन भारतीय परंपरा को कोसते रहते हैं. अवैज्ञानिक कहते हैं. गीता, उपनिषद, योग उपहास्य हैं। ज्योतिष अंधविश्वास है। आयुर्वेद तिथिबाह्य है। फिर व्याकरण और काव्य सिद्धांत की तो बात ही क्यों करें? षट्दर्शन की चर्चा फिर कौन करे? दुनिया के उत्तर आधुनिक चिंतक नागार्जुनाचार्य से फ़िलॉस्फ़ी सीखते हैं और पाणिनी से व्याकरण सीखते हैं पश्चिम के भाषाचिंतक! और हम इनके दाय से भी अनभिज्ञ! कृषि की तकनीकें हमने सोवियत संघ से सीखीं और “कृषिपराशर” और “काश्यपीयकृषिसंहिता” को उलटकर भी नहीं देखा. पाणिनी के पारिभाषिक शब्द जो सर्वज्ञात होने चाहिए थे, आज हमारे लिए कौतुक और आश्चर्य का विषय हैं। और कश्मीर को भी हम आज राजनीतिक और सांप्रदायिक कारणों से ही जानते हैं, आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण और क्षेमेन्द्र के देश के रूप में नहीं. यह हमारी शिक्षा परंपरा पर ही एक टिप्पणी है ना!
अब सांस्कृतिक आत्मगौरव का दूसरा पहलू देखिए!
बीती सदी में इस्लामिक आतंकवाद के उभार के साथ ही एक अकादमिक-सांस्कृतिक परिघटना भी घटी। एक तरफ़ सैम्युअल हटिंग्टन जैसे अमेरिकी चिंतक द्वारा “सभ्यताओं के टकराव” की बातें कही जा रही थीं, अमेरिकी राजनेताओं द्वारा इस्लामिक देशों की एक पश्चिम-प्रणीत छवि को भुनाते हुए “इस्लामोफ़ोबिया” को रचा जा रहा था (जिसने “वॉर ऑन टेरर” के बाद अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के उभार में केंद्रीय भूमिका निभाई है), दूसरी तरफ़ इस्लामिक सभ्यता और संस्कृति के विद्वानों ने इसे अपनी अस्मिता पर गंभीर संकट माना और जमकर इसका प्रतिरोध प्रारंभ कर दिया!
सैम्युअल हटिंग्टन की थ्योरी के जवाब में एडवर्ड सईद ने अनेक निबंध लिखे।”ओरियंटलिज़्म” नामक किताब में तो वे पहले ही कह चुके थे कि इस्लामिक देश केवल “तेल के उत्पादक” और “आतंक के निर्यातक” ही नहीं हैं, जैसा कि पश्चिमी देशों द्वारा उन्हें सुविधाजनक रूप से मान लिया गया है।
एडवर्ड सईद को भले ही अमेरिकी यूनिवर्सिटीज़ में “प्रोफ़ेसर ऑफ़ टेरर” कहकर पुकारा जाता रहा हो, लेकिन इस्लामिक अस्मिता के वे पर्याय बन चुके हैं और नोम चॉम्स्की समेत अनेक मुख्यधारा के अमेरिकी बुद्धिजीवी उनके कट्टर समर्थक हैं।
दूसरी तरफ़ ओरहन पमुक ने “माय नेम इज़ रेड” नामक नॉवल लिखा और उसमें मुस्तैदी से ब्योरेवार दर्ज किया कि पश्चिमी संस्कृति के बरअक़्स इस्लाम की संस्कृति किस तरह से श्रेष्ठ है (ऐसा उन्होंने “वेनेशियन मिनिएचर्स” की तुलना में “ऑटोमन चित्रशैली” की श्रेष्ठता के रूपक को विस्तार से स्थापित करते हुए किया)। इस किताब के कारण ओरहन पमुक ने साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीता!
फ़लस्तीन में महमूद दरवेश ने अरब-अस्मिता और फ़लस्तीन-प्रश्न को अपनी कविताओं में शिद्दत से जगह दी और फ़लस्तीन को ईदन के उद्यान, विस्थापन और पुनरुत्थान के एक सांगरूपक में बदल दिया!
भारत में ही अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों (जैसे सईद नक़वी) के लेख अगर आप पढ़ें तो पाएंगे कि किस तरह वे निरंतर “इस्लामोफ़ोबिया” के बरअक़्स सूफ़ी संस्कृति, गंगा-जमनी धारा और अवध-लखनऊ की तहज़ीब की बारीक़ियों के ब्योरे दर्ज करते रहते हैं।
जब दुनिया इस्लाम पर सवाल खड़े कर रही थी और आतंकवाद को उसकी पहचान से जोड़ रही थी तब इस्लामिक बुद्धिजीवियों ने अपनी जातीय स्मृति के गौरव के साथ इसका डटकर मुक़ाबला किया!
लेकिन औपनिवेशिकता से मुक्ति और कालान्तर में “हिंदू राष्ट्रवाद” के उभार के बाद भारतीय बुद्धिजीवियों ने क्या किया?
औपनिवेशिक हीनता-बोध से उपजे रीढ़हीन आत्म-दैन्य को उन्होंने अपने चिंतन का व्याकरण बना लिया. हर हिंदू प्रतीक घृणित हो गया, चाहे वह कितना ही उदात्त क्यों ना हो।हर हिंदू रूपक लज्जास्पद हो गया, चाहे वह कितना ही निरापद क्यों ना हो। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जातीय अस्मिता से जोड़ा जाने लगा। और इसमें दक्षिणपंथ और वामपंथ की एक भीषण दुरभिसंधि को भी आप लक्ष्य कर सकते हैं. दक्षिणपंथ कहता है : “उग्र राष्ट्रवाद ही हिंदुत्व है.” वामपंथ कहता है : “जी हां, और इसीलिए हिंदू अस्मिता एक त्याज्य मूल्य है.” यह एक श्रेष्ठ और सहिष्णु सांस्कृतिक परंपरा पर दोहरा प्रहार है : भीतर से और बाहर से!
बहुत याद आते हैं आचार्य चतुरसेन, दादा अमृतलाल नागर, पं. गोपीनाथ कविराज, भगवतशरण उपाध्याय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सच्चिदानंद वात्स्यायन, विद्यानिवास मिश्र, श्रीनरेश मेहता और निर्मल वर्मा : इन मनीषियों के होते “हिंदू-भर्त्सना” का ऐसा सामूहिक एकालाप संभव ना होने पाता, जैसा कि आज हो रहा है!
भारत की तमाम महत्वपूर्ण अकादमिक संस्थाओं, मुख्यधारा की अंग्रेज़ी पत्रकारिता और हिंदी साहित्य में वामपंथी स्वर प्रमुखता से काबिज हैं. एकेडमिक्स में इनका यह पूर्ण बहुमत ही अपने आपमें अलोकतांत्रिक है। इनमें से किसी की भी रुचि इसमें नहीं कि “ओरियंटलिज़्म” की तरह सनातन परंपरा का एक अद्यतन पाठ तैयार कर उन सतही तत्वों से उसे मुक्त कराए, जिन्होंने उसे आज अपहृत कर लिया है. इनमें से किसी की यह रुचि नहीं कि ओरहन पमुक जैसा गल्प और मेहमूद दरवेश जैसा काव्य रचें और जातीय अस्मिता की पुनर्स्थापना करें. उल्टे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उभार उनके लिए एक सुविधाजनक स्थिति है, जिससे वे भारतीय परंपरा के अपने मनचाहे पाठ को अनुशंसा दिलवा पाते हैं. उसे घृणित, उपहास्य और हीन सिद्ध कर पाते हैं!
कोई भी जाति आठों पहर आत्मग्लानि में डूबी नहीं रह सकती. गौरव जातीय अस्मिता का ग्रास है. उससे वह पुष्ट होती है। सनातन परंपरा आत्ममंथन में स्वयं सक्षम है और सुधारों के लिए तत्पर भी रही है, फिर भी उसे हमेशा लज्जित करने के प्रयास क्यों किए जाने चाहिए? और क्यों मुख्यधारा के बौद्धिक अनुशासन द्वारा इन प्रयासों को चुनौती नहीं दी जानी चाहिए? और क्यों उग्र हिंदू राष्ट्रवाद को सनातन ज्ञान परंपरा को अपहृत कर लेना चाहिए?
भारत के एडवर्ड सईद, ओरहन पमुक और मेहमूद दरवेश कहां है।