गतांक से आगे…
हम इसके पूर्व बदला आए हैं कि, आस्ट्रेलिया से लंका होते हुए विदेशियों का एक दल आकर मद्रासप्रांत में आबाद हो गया था। इस आगत दल का राजा रावण था। वह पंडित बहुत और योधा होते हुए भी दुराचारी था।वह इस देश में राज्यकामना से आया था, पर रामचंद्र के द्वारा युद्ध में मारे जाने के कारण उसकी राज्यश्री उससे और उसके वंशजों से सदा के लिए नष्ट हो गई।
यूsसौ सत्यव्रतो नाम राजर्षिर्द्रविडेशवर।
स वै विवस्वतः पुत्रो मनुरासीदिति श्रुतम्।।
अर्थात् सत्यव्रत नामी द्रविड़ राजा ही वैवस्वत मनु हो गया। इस जाली लेख का यह मतलब है कि, आर्यों की उत्पत्ति द्रविड़ो से ही सिद्ध की जाए।परंतु शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि, ‘उत्तरगिरे: मनोरवसर्पणम्’ अर्थात मनु का प्रादुर्भाव उत्तरगिरी हिमालय पर हुआ।इससे प्रकट है कि उत्तर निवासिय मनु का दक्षिणी द्रविण राजा से कुछ भी सम्वधन नहीं है। और यह जाली कथा केवल आर्य बनाने की अभिलाषा से ही लिखी गई है। इस एक ही कल्पित कथा से सिद्ध हो जाता है कि,उन्होंने आरंभ से ही आर्य बनने की चेष्टा की है।इसके अतिरिक्त रावण ने अपने राक्षसी सिद्धांतों को आर्यो में प्रचलित करके दोनों जातियों को एक करने का भी प्रयत्न किया। उसने वेदों का भाष्य किया और उस भाष्य में वेदों का अभिप्राय बदलकर आसुरी सिद्धांतों का प्रक्षेप किया, किंतु अब वह भाष्य रावण के नाम से नहीं मिलता। रावण रावण के नाम से एक भाष्य का कुछ अंश मिलता है,पर वह उस रावण का भाष्य नहीं है। हां , द्रविडों में एक कृष्णवेद अब तक अवश्य चल रहा है,जिसमें प्राचीन रावण के भाष्य का अंश प्रतीत होता है। यद्यपि उसका भाष्य अब अलग नहीं मिलता,पर उसका हिसामय यज्ञ ,सुरापान, मांसभक्षण, व्यभिचार,आर्यबलि, लिंगपूजन आदि धर्म जो वह मानता था, कृष्णवेद के साहित्य में लिखे हुए मिलते हैं।रावण इन्हीं धर्मों का मारने वाला था। क्योंकि चक्रदत्त नामक वैद्यक के ग्रंथ में रावण संप्रदाय की एक बात रावण के ही नाम से लिखी है।इसमें मांस, मल और देवपूजा वैसी ही है जैसी वाममार्गीयों की होती है।वाममार्ग के ग्रंथों से रावण के पुत्र के नाम से ‘ मेघनाद ‘उडड़ीस आदि अन्य ग्रंथ भी प्रचलित है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि रावण के राक्षसी धर्म से ही वाममार्ग चला है और रावणकृत ग्रंथों में उसी का वर्णन भी होना चाहिए। कृष्णवेद का समस्त तैत्तिरीय साहित्य इसी प्रकार के पतित विचारों से पूर्ण है। इसलिए कृष्णवेद में रावण भाष्य का बहुत बड़ा भाग विद्यमान है,इसमें संदेह नही। यदि कोई इस बात से इंकार करें,तो उसे बताना चाहिए कि रावणदि अनार्यों का साहित्य कहां गया?हम तो कहते हैं कि वह सारा साहित्य इस तेत्तिरीय में ही समा गया।हमारा यह अनुमान बहुत ही स्पष्ट हो जाता है, जब हम उस वेद की उत्पत्ति,उसके अंदर की गड़बड़ और उस पर विद्वानों की सम्मति की ओर दृष्टि डालते हैं। उसकी उत्पत्ति के विषय में महीधर ने अपने यजुर्वेद भाष्य की भूमिका में लिखा है कि, व्यास ने अपने वैशपंयान आदि चार शिष्यों को यजुर्वेद पढ़ाया। उक्त चारों में से वैशंपायन ने अपने शिष्य याज्ञवल्क्य को भी पढ़ाया। एक दिन वैशंपायन किसी कारण से कुद्रबाद होकर याज्ञवल्क्य से बोले कि तू हमारी सिखाई हुई विद्या त्याग दे। इस पर याज्ञवल्क्य ने वेद को उगल दिया।उस उगलन को वैशंपायन के अन्य शिष्यों ने तीतर पक्षी होकर चुन लिया वहीं यह तेत्तिरीय नाम का वेद है।इसके बाद याज्ञवल्क्य ने दु:खित होकर सूर्य के पास से जो दूसरा वेद सीखा, वहीं शुक्ल यजुर्वेद कहलाया। इस प्रकार बे सिर पैर की एक गल्प ( गप) रचकर तेत्तिरीय प्रचारकों ने तेत्तिरीय वेद अर्थात कृष्ण यजुर्वेद का महत्व बनाया। परंतु इसमें कोई महत्व की बात नजर नहीं आती। हम तो इसे बहुत ही नीच बात समझते हैं। वान्त सद्दश इस ज्ञानजूठन की समता ईश्वरीयप्रदत्त अपौरूषेय ज्ञान के साथ कैसे हो सकती है ? इस कल्पना से तो यही सूचित होता है कि,तेत्तिरीय वेद बनावटी है।इसके बनावटी होने में अनेकों हेतु है ,पर हम यहां दो चार ही प्रमाण उपस्थित करते हैं।
प्रस्तुति : देवेंद्रसिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
क्रमश:
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।