प्रस्तुति – अमन आर्य
पाकिस्तान विगत कई दशक से, काश्मीर घाटी में विभिन्न आतंकी संगठनों को पाल-पोसकर भारत को परेशान करनी की कोशिशें कर रहा है। ऐसे में भारत का युद्धधर्म क्या होना चाहिए?
वैसे तो अनेक ग्रंथों में मनुस्मृति, महाभारत, कामन्दकीयनीतिसार, कौटलीय अर्थशास्त्र, याज्ञवल्क्यस्मृति, आदि अनेक ग्रंथों में युद्धधर्म पर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है और धर्मयुद्ध की बात की गई है, किन्तु महर्षि शुक्राचार्य ने शुक्रनीतिसार में यह प्रतिपादित किया है कि केवल धर्मयुद्ध ही नहीं, कभी-कभी कूटयुद्ध भी करना पड़ता है। शुक्राचार्य ने शुक्रनीति में धर्मयुद्ध के आदर्श नियम बताने के पश्चात् कहा है कि ‘ये नियम धर्मयुद्ध के हैं, परन्तु कूटयुद्ध के ये नियम नहीं हैं। बलवान् शत्रु को नष्ट करनेवाले कूटयुद्ध के सामान दूसरा कोई युद्ध नहीं है :
नयुद्धंकूटसदृशंनाशनंबलाद्रिपोपोः 4.80
पहले भी राम, कृष्ण, इन्द्र, आदि देवताओं ने कूटयुद्ध का ही आदर किया है, बाली, कालयवन, नमुचि, ये सब कूटयुद्ध से ही मारे गए हैं :
रामकृष्णेंद्रादिदेवैः कूटमेवादृतंपुरा
कूटेननिहतोवालिर्यवनोनमुचिस्तथा 4.81
और अचानक दूर से ही चोर के सामान चारों तरफ सदैव प्रहार करे, चाँदी, सोना और धन- ये सब जिस योद्धा ने जीते हों, उसके ही होते हैं :
अकस्मान्निपतेदूदूराद्दस्युवत्परितः सदा
रूप्यंहेमचकूप्यंचयोयज्जयतितस्यतत् 4.90
इस प्रकार महर्षि शुक्राचार्य ने मनु की तरह कूटयुद्ध पर धर्म युद्ध की श्रेष्ठता का समर्थन नहीं किया है। शुक्र का स्पष्ट मत है कि धर्म युद्ध या कूटयुद्ध, जिसमें शत्रु का विनाश हो, वही उचित है। वास्तव में शुक्र ने यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए धर्मयुद्ध पर कूटयुद्ध को वरीयता दी है। शुक्र ने युद्ध को पापपूर्ण एवं जघन्य कृत्य नहीं माना, अपितु उल्लेख किया है कि युद्ध में मरने पर क्षत्रिय को उत्तम फल की प्राप्ति होती है। क्षत्रिय के लिए युद्ध को पवित्र कर्तव्य मानने का आग्रह शुक्र की इस अपेक्षा को व्यक्त करता है कि वह अवसर आने पर युद्ध से पलायन न करे :
मुनिभिर्दीर्घतपसाप्राप्ययेत्पदं महत्
युद्धाभिमुखनिहतैःशूरैस्तद्द्रागवाप्यते 4.44-45
एतत्तपश्चपुण्यंचधर्मश्चैवसनातनः
चत्वारआश्रमास्तस्ययोयुद्धेनपलायते 4.45-46
(चिरकाल तक तप करने से मुनि लोग जिस महान पद को प्राप्त करते हैं, वही पद युद्ध में सन्मुख रहते हुए शूरवीर को शीघ्र मिलता है । यही तप, यही पुण्य, यही सनातन-धर्म है और उसी की चार आश्रम हैं जो युद्ध में से नहीं हटता)
अपसर्पतियोद्धाज्जीवितार्थीनराधमः
जीवन्नेवनृपःसोपिभुंक्तेराष्ट्रकृतंत्वघम् 4.52-53
(जो मनुष्य जीने के लिए युद्ध से हटता है, वह नीच है । वह जीवित ही मृत के समान है और सब देश के पाप को भोगता है)
जलान्नतृणसंरोधैःशत्रून्संपीड्ययत्नतः
पुरस्ताद्विषमेदेशपश्चाद्धन्यात्तुवेगवान् 4.86
(शत्रु को जल, अन्न, तृण— इनका (निर्यात) रोककर, उसको दुःखी करके, उसके पीछे से सेना का वेग बढ़ाकर आक्रमण करना चाहिए)
सोशल मीडिया से साभार
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