भारत के महान हिंदू सम्राटों के विजय अभियान 4,5,6
रामायण और महाभारत तथा पुराणों से यह स्पष्ट है कि यवन भी भारतीय क्षत्रिय ही हैं ।सम्राट अशोक का शासन यवन प्रांत तक था और यवनराज तुषार अशोक का एक सामंत था।
पुष्यमित्र के पुत्र वसुमित्र ने सिंधु तीर पर यवनों को परास्त किया ,,इसका उल्लेख भी पुराणों में और महान वैयाकरण पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है।
आंध्र एक पुराने क्षत्रिय वंशहैं।उनका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ में भी है। ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी से ईसा के बाद पांचवीं शताब्दी तक उन्होंने शासन किया। श्रीलंका तक वे शासक रहे।इन्हें ही सातकर्णि सम्राट की उपाधि भी दी गयी।पुराणों में आंध्रों के30 राजाओं का वर्णन है।पुलोमावि द्बितीय इनके अंतिम सम्राट हुए।
शूद्रक विक्रमादित्य वस्तुतः विक्रमादित्यनरेशों में सर्वप्रथम हैं जिनके नाम से शुद्रक संवत भी चला था। बाणभट्ट ने स्वयं इनका उल्लेख कादंबरी में किया है।उनके सुशासन की बडी महिमा थी।
कथासरित्सागर मे भी शूद्रक का वर्णन है।
सम्राट हर्ष के साम्राज्य का वर्णन तो व्हेन सांग अलबरूनी सहित अनेक विदेशियों ने भी किया है। उनके नाम से हर्ष संवत चला।
पुराणों में 8 यवन राजाओं के उल्लेख हैं और उनमें से एक भी विदेशी नहीं है ।सभी को भारतीय क्षत्रिय ही कहा गया है ।
इसके बाद तुषार क्षत्रियों का भी पुराणों में वर्णन है जिनमें से कनिष्क वासुदेव आदि प्रसिद्धहैं।
हूण भी भारतीय क्षत्रिय ही हैं और हूण कुमारी आवल देवी का विवाह कलचुरी नरेश यश: करण देव के पिता से हुआ था ।
मौखरियों ने हूणों को हराया था इसका भी एक शिलालेख में उल्लेख है।
परंतु अभी हमारे आज के विषय से इसका संबंध यह है कि हमारे भारतवर्ष के इन्हीं वीर क्षत्रिय हूणों ने संपूर्ण यूरोप औरअरब तथा उत्तरी अफ्रीका के भी एक अंश को अपने अधीन बनाया था।। इसमें हूणों का विजय अभियान वस्तुतः भारतीय क्षत्रियों का ही विजय अभियान है। भारती सम्राटों का ही यह विजय अभियान है। क्योंकि हूण सनातन धर्म के ही निष्ठावान अनुयाई रहे हैं।
(….क्रमशः5)
महान भारतीयों के विजय अभियान:5
ईसवी सन से पूर्व की शताब्दियों में ही सातवाहन नरेशों ने यवनों, शकों और पहलवों को जीता था इसीलिए उन्हें ‘सातवाहन कुल यश: प्रतिष्ठापना कर “–यह पदवी दी गई थी ।
साथ ही दक्षिणा पथ स्वामी भी कहा गया था। विंध्य के दक्षिण से समुद्र तक समस्त विस्तार दक्षिणा पथ ही कहा जाता रहा है ।
पहली शताब्दी के लिखे यवन ग्रंथ” पेरिप्लस ‘में “सूर्पा रक” को अपरांत देश की राजधानी कहा गया है और बताया है कि यहां से व्यापारियों के जहाज सैनिकों के द्वारा सुरक्षित दूर-दूर तक जाते हैं और वे यवन देश में भी यहां का सामान ले जाते हैं।
तालिमी ने भी उल्लेख किया है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि एक प्रतापी सम्राट थे।
उधर कलिंग में सम्राट खारवेल हुए ।हाथी गुंफा प्रशस्ति से पता चलता है कि उन्हें “कलिंगाधि पति “और” कलिंग चक्रवर्तिन “कहा जाता था और उनकी महा विजय की प्रशस्ति गाई गई है तथा उसे दिग्विजय कहा गया है। कलिंग से कृष्णा नदी तक सम्राट खारवेल का साम्राज्य था जो ऊपर असम और म्यांमार तक फैला हुआ था
इसके बाद वाकाटक ब्राह्मणों ने क्षेत्र में राज्य किया।
अशोक के समय ही दक्षिण भारत में चोलों, चेरों और पांड्यों के राज्य थे ।अनेक चोल सम्राट विश्व विख्यात हुए हैं और उन्होंने द्वीपान्तर तक भारत का राज्य फैलाया।
ईसा पूर्व 244 में लिखे बौद्ध ग्रंथ” महा वंश” में भी चोल और पाण्ड्य नरेश ओं की प्रशस्ति गाई गई है ।महावंश से ही पता चलता है कि वस्तुतः बंग नरेश सिंहल के पुत्र विजय ने जाकर श्रीलंका में धर्म का प्रसार किया था।
विजय ने अपने पिता सिंहल के नाम से उस समस्त क्षेत्र का नाम सिंहल द्वीप रखा और सिंहल द्वीप को बोलने में असमर्थ पुर्तगालियों ने सेइला कहकर बोलना शुरू किया जिसे अंग्रेजों ने सीलोन कहा।
विजय अशोक मौर्य के पूर्ववर्ती बंग नरेश थे।उनके पुत्र वासुदेव के राज्याभिषेक में अशोक ने गंगाजल और अभिषेक सामग्री मैत्री के कारण भेजी थी।इनका ही नाम देवनामप्रियतिस्स हुआ।जिसे अज्ञानी अंग्रेजों आदि और उनके भारतीय चेलों ने अशोक की उपाधि समझ लिया। सिंघल द्वीप में अनेक प्रसिद्ध महारानी भी हुईं जिनमें अनुला और शिवाली के नाम महत्वपूर्ण हैं।इनका उल्लेख दीप वंश और महा वंश में हुआ है।
चोलो, पांड्यों और चेरों और बाद में कदंब वंश का दक्षिण भारत में शताब्दियों तक राज्य रहा। इनमें से अनेक ने समुद्र में स्थित द्वीपों और द्वीपान्तर तक तथा और आगे विजय अभियान किया और अपनी सत्ता स्थापित की।(…..क्रमशः6).
महान ब्राह्मण नरेशों और विद्वानों के विजय अभियान:6
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महान ब्राम्हण राजाओं और विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की विश्वव्यापी विजय को संभव बनाया ।इस तथ्य को भूलने का अर्थ है अपने इतिहास को ही भूल जाना।
राष्ट्र के भीतर भी और भारत की ज्ञात सीमाओं से बाहर भी राजनीतिक प्रभुत्व और सांस्कृतिक प्रकाश को फैलाने का काम ब्राह्मण नरेशों ने तथा विद्वानों ने किया है। महान ब्राह्मण आचार्य चाणक्य द्वारा संस्थापित मौर्यवंश का शासन भारत वर्ष में लगभग 200 वर्ष रहा ।
बृहद रथ मौर्य के द्वारा राजधर्म की उपेक्षा के कारण पुष्यमित्र शुंगने उसे हटाकर शुंग साम्राज्य की स्थापना की और संपूर्ण भारतवर्ष में सनातन धर्म को सनातन प्रकाशसे प्रकाशित किया।112 वर्ष शुंगों ने भारत का शासन किया और चीन तक अपना साम्राज्य फैलाया।शुंग कश्यप गोत्र के या भारद्वाज ब्राह्मण थे। पुष्यमित्र ने अश्वमेध और राजसूय दोनों ही महान यज्ञ संपादित कर विश्व में विजय पताका फहराई।2अश्वमेध यज्ञ और1 राजसूय उन्होंने किया।
तदुपरांत कण्व ब्राह्मणों के वंश ने शासन किया।
दक्षिण भारत में ऋषि अगस्त्य ने शासन की स्थापना की।
भारत की वर्तमान में ज्ञात सीमाओं के बाहर भी ब्राम्हण नरेश होने विशाल अभियान की और बाद में वैदिक और सनातन धर्म की संस्कृति को ब्राह्मणों ने ही शब्द के प्रतिष्ठित दिन और विस्तार की इतना ही नहीं प्रारंभ में जिसे बौद्ध धर्म अब कहा जाता है उसे पहले धर्म ही कहा जाता था और भगवान बुद्ध के वचन भी श्रद्धालु ही कहे जाते थे और भगवान बुद्ध को हिंदुओं का ही एक महान पंत प्रवर्तक या अवतार भी कहा जाता रहा है संपूर्ण मध्य एशिया में और तिब्बत तथा चीन में ब्राह्मणों ने ही इस धर्म का विस्तार की यह इतिहास का सत्य है।
कश्मीर के उत्तर में एक कुची राज्य था जिसके राजगुरु श्री कुमार यान एक महान ब्राह्मण थे। उनके पुत्र महान ब्राह्मण विद्वान कुमार जीव ने ही चीन में धर्म का प्रसार किया है यह सर्वविदित है और महा वंश में भी इसका उल्लेख है जोकि एक बौद्ध ग्रंथ है।
कुमार जिओ संस्कृत और चीनी भाषा के विद्वान थे और वस्तुतः चीनी भाषा को समृद्ध करने में मुख्य भूमिका ब्राह्मण कुमार जी उठी ही है।
उनके साथ संघ भूति गौतम पुण्य त्राता विमला धर्म मित्र धर्म व्यास और बुध व्यास जैसे महान ब्राह्मण गए और उन्होंने ही चीन में धर्म का प्रसार किया बाद में महान विद्वान बुध व्यास के साथ 3000 ब्राह्मणों ने संपूर्ण मद्धेशिया में धर्म का प्रसार किया और सनातन धर्म का शासन की स्थापित की।
उज्जैन के महा पंडित श्री परमार्थ तथा काशी के भी अनेक पंडितों का चीन में धर्म के प्रसार में योगदान है। स्वयं फाहियान ने लिखा है कि अग्नि, कूची काशगर,खोतान आदि में ब्राह्मणों ने ही धर्म का प्रसार किया है औऱ वहाँ यज्ञ होते हैं।
व्हेन त्सांग ने लिखा है कि गजनी से काशगर तक ब्राह्मणों ने धर्म का प्रसार किया।
चीनी यात्रियों ने बताया है कि तुषार सम्राट जिन्हें बाद में तुर्क कहा गया ,वह सनातन धर्म के निष्ठावान अनुयाई थे और वहां ब्राह्मणों का सर्वाधिक सम्मान था ।
इन तुषार सम्राटों की उपाधि खान थी। ब्राह्मणों के प्रभाव के कारण ही तुषार या तुर्क के सबसे बड़े सम्राट ने गांधार में और कश्मीर में 2 – 2 भव्य मंदिरों का निर्माण कराया।
बाह्लीक देश में एक भव्य मंदिर था जहां सदा हरी पताका मंदिर के ऊपर फहराती थी और जिस में संपूर्ण मध्य एशिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया के व्यापारी तथा धनी लोग और राजा लोग भी आकर सदा प्रणाम करते थे और वहां यज्ञ में भाग भी लेते थे।
पारसीकों ने उसे नौबहार मंदिर कहा है ।
इस नौबहार मंदिर के मुख्य पुजारी का पुत्र खलीफा के अनुरोध से बगदाद यानी भगदत्त नगर गया और वहां उसने ज्योतिष आयुर्वेद और संस्कृत साहित्य का विशाल मात्रा में अनुवाद किया ।
अरबों को गणित ज्योतिष विज्ञान और आयुर्वेद का सारा ही ज्ञान इसी संस्कृत के अरबी में किए गए अनुवाद से प्राप्त हुआ है ।यह सर्वविदित है।।
इस तरह मूल अरब संस्कृति के प्रसार में मुख्य योगदान भारत के ब्राह्मणों का ही है। बाद में यहूदियों और ईसाइयों से प्रभावित मुहम्मद साहब ने इस्लाम मज़हब उभारा।
भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण बोधिसेन ने जापान में धर्म का प्रसार किया।
ब्राम्हण नरेश कौण्डिन्य ने कम्पूचिया में सनातन धर्म का प्रसार किया ।
इसी प्रकार चंपा लाओस सुमित्रा और जावा में भी ब्राह्मण नरेशों में ही धर्म का प्रसार किया।
✍🏻कुसुमलता केडिया
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