भारत के शौर्य और संस्कृति के प्रतीक आबू पर्वत पर बनना चाहिए एक विशेष राष्ट्रीय स्मृति संग्रहालय
मेरा राजस्थान के भीनमाल जाने का विशेष प्रयोजन माउंट आबू को देखना था। इस पर्वत से हमारे देश की इतिहास की एक शानदार परंपरा का गहरा जुड़ाव है । क्योंकि इसी पर्वत पर मोहम्मद बिन कासिम के द्वारा भारत पर 712 में किए गए आक्रमण के पश्चात हमारे तत्कालीन समाज सुधारकों और राष्ट्ररक्षकों ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था । जिससे परिहार, प्रतिहार, चालुक्य और चौहान राजवंशों की उत्पत्ति हुई । इन चारों राजवंशों ने भारत माता की रक्षा के लिए संकल्प लिया । शंकराचार्य द्वारा कराए गए इस यज्ञ से हमारे राष्ट्रवाद की उस गहरी भावना का हमें बोध होता है जिसके कारण हम अपनी रक्षा करने में सफल हुए।
यह घटना 722 की है ,जब शंकराचार्य जी (कहीं-कहीं इन्हें देवलाचार्य तो कहीं वशिष्ठ लिखा है ) ने भारत के राजवंशों को बुलाकर यहां पर विशेष और विशाल यज्ञ का आयोजन कराया था । जिसमें उन्होंने भारत के क्षत्रियों को मां भारती की रक्षा के लिए आगे आने की प्रेरणा दी थी। इसके बाद प्रतिहार वंश के गुर्जर शासकों ने सिंध की ओर से आ रहे अरब आक्रमणकारियों का जमकर विरोध किया था और उनका प्रतिशोध करते हुए 300 वर्ष तक भारत माता की रक्षा की थी। इस स्थान से परिहार वंश के शासकों का भी गहरा संबंध रहा है। इसी परिहार वंश में राजा भोज पैदा हुए थे । परिहार वंश के शासकों का भी बहुत गौरवपूर्ण इतिहास है । इसी प्रकार चालुक्य / सोलंकी और चौहान वंश के शासकों ने भी समय-समय पर देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान दिया। इन सबके प्रेरणा का स्त्रोत यह आबू पर्वत है। इसलिए इतिहास का जिज्ञासु छात्र होने के कारण इस स्थान पर जाकर अपने राष्ट्रवादी पूर्वजों के उस चिंतन और महान कार्य को नमन करना मेरा दायित्व था ।
समुद्र तल से 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अर्बुदांचल पर्वत बसा आबू राजस्थान का एकमात्र पहाड़ी नगर है । इस शहर का प्राचीन नाम अर्बुदांचल था । यह अरावली पर्वत का सर्वोच्च शिखर, जैनियों का प्रमुख तीर्थस्थान तथा राज्य का ग्रीष्मकालीन शैलावास है। अरावली श्रेणियों के अत्यंत दक्षिण-पश्चिम छोर पर ग्रेनाइट शिलाओं के एकल पिंड के रूप में स्थित आबू पर्वत पश्चिमी बनास नदी की लगभग 10 किमी संकरी घाटी द्वारा अन्य श्रेणियों से पृथक् हो जाता है। पर्वत के ऊपर तथा पार्श्व में अवस्थित ऐतिहासिक स्मारकों, धार्मिक तीर्थमंदिरों एवं कलाभवनों में शिल्प-चित्र-स्थापत्य कलाओं की स्थायी निधियाँ हैं। यहाँ की गुफा में एक पदचिहृ अंकित है जिसे लोग भृगु का पदचिह् मानते हैं। पर्वत के मध्य में संगमरमर के दो विशाल जैनमंदिर हैं।
राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित अरावली की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसे माउंट आबू की भौगोलिक स्थित और वातावरण राजस्थान के अन्य शहरों से भिन्न व मनोरम है। यह स्थान राज्य के अन्य हिस्सों की तरह गर्म नहीं है। माउंट आबू हिन्दू और जैन धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है। यहां का ऐतिहासिक मंदिर और प्राकृतिक खूबसूरती सैलानियों को अपनी ओर खींचती है। 1190ई के दौरान आबू का शासन राजा जेतसी परमार भील के हाथो में था , बाद में आबू भीम देव द्वितीय के शासन का क्षेत्र बना माउंट आबू चौहान साम्राज्य का हिस्सा बना। बाद में सिरोही के महाराजा ने माउंट आबू को राजपूताना मुख्यालय के लिए अंग्रेजों को पट्टे पर दे दिया। ब्रिटिश शासन के दौरान माउंट आबू मैदानी इलाकों की गर्मियों से बचने के लिए अंग्रेजों का पसंदीदा स्थान था।
हमारा मानना है कि राजस्थान के इस सबसे खूबसूरत क्षेत्र को परिहार, प्रतिहार, चालुक्य और चौहान राजवंशों के द्वारा लिए गए उस राष्ट्रीय संकल्प के प्रति समर्पित करना चाहिए जिन्होंने भारतवर्ष का इस्लामीकरण न होने में अपना अमूल्य सहयोग दिया।
27 फरवरी 2021 की शाम लगभग 3:00 बजे जब मैं इस स्थान पर अपने बेटे अमन और अन्य साथियों के साथ पहुंचा तो मैंने अपने महान पूर्वजों का स्मरण कर विचार करना आरंभ किया कि अपने इतिहास के राष्ट्रीय स्मारकों को हमें पुनर्जीवित करना चाहिए। जहां से समय-समय पर हमें राष्ट्रवाद की प्रेरणा मिली, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि जब देश आजाद हुआ तो देश का पहला शिक्षा मंत्री वह व्यक्ति बना जिसका भारत के राष्ट्रवाद से दूर दूर का भी कोई संबंध नहीं था। उसके पश्चात भी कई ऐसे शिक्षा मंत्री रहे जिन्होंने भारत के राष्ट्रवाद के राष्ट्रीय स्मारकों को मिटाने का ही काम किया। क्या ही अच्छा हो कि मोदी सरकार इस क्षेत्र में उस विशाल यज्ञ की स्मृति में एक विशाल संग्रहालय बनवाए जिसमें विशाल यज्ञ होता हुआ दिखाया जाए और उन राजाओं ,समाज सुधारक ऋषियों -महात्माओं और राष्ट्रवादी लोगों के चित्र एक विशेष और विशाल भवन में स्थापित कराए जाएं. जिससे पर्यटकों को वहां जाने पर यह प्रेरणा मिले कि इस पवित्र भूमि से सारे भारत को वीरता, साहस और शौर्य का एक ऐसा अनूठा संदेश गया था जिसने तत्कालीन भारत को बहुत ही सशक्त और सबल बनाने में अपना अमिट और अविस्मरणीय सहयोग दिया था।
इस स्थान को आजकल वशिष्ठ ऋषि के मंदिर के नाम से जाना जाता है। यहां पर अब ऐसा कोई विशेष और उल्लेखनीय प्रतीक या चिन्ह नहीं है जिससे इतिहास की उस महान घटना का स्मरण हो सके । ऐसी स्थिति में तो यह और भी अधिक आवश्यक हो जाता है कि इस स्थान का उद्धार केंद्र सरकार यथाशीघ्र कराए। हमारी आंखों देखते हमारे इतिहास मर रहा है, जिसे हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री मोदी जी को मौत के मुंह में जाने से बचाने के लिए यथाशीघ्र कोई कदम उठाना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत