दक्षिण भारत में शक्तिशाली तमिल चोल साम्राज्य का इतिहास 9वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक मिलता है। चोल साम्राज्य के 20 राजाओं ने दक्षिण एशिया के एक बड़े हिस्से पर लगभग 400 साल तक शासन किया।
मेगस्थनीज की इंडिका और अशोक के अभिलेख में भी चोलों का उल्लेख किया गया है कहते हैं कि चोल शासकों ने अपनी विजय यात्रा में आज के केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, बंगाल और दक्षिण एशिया में पूरा हिंद महासागर व श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया में अंडमान-निकोबार, मलेशिया, थाईलैंड एवं इंडोनेशिया तक को विजय किया था।
आइये, चोल सम्राज्य के गौरवशाली इतिहास के कुछ पहलुओं को जानने का प्रयत्न करते हैं–
कांची के पल्लवों के सामंत विजयालय चोल ने सन 850 ईस्वी में तंजौर पर कब्जा कर चोल साम्राज्य की नींव रखी। नौवीं शताब्दी के अंत तक चोलों ने पूरे पल्लव साम्राज्य को हराकर पूरी तरह से तमिल राज्य पर अपना कब्जा कर लिया।
इसी कड़ी में आगे 985 ईस्वी में शक्तिशाली चोल राजा अरुमोलीवर्मन ने अपने आपको राजराजा प्रथम घोषित किया, जो आगे चलकर चोल शक्ति को चरमोत्कर्ष पर ले गया। चोल वंश के पहले प्रतापी राजा राजराजा ने अपने 30 के शासन में चोल साम्राज्य को काफी विस्तृत कर लिया था।
राजाराज ने पांड्या और केरल राज्यों के राजाओं को हराकर अपनी विजय की शुरुआत की उन्होंने पश्चिमी तट, दक्षिणी तट और अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से श्रीलंका के उत्तरी राज्य सिंहल द्वीप पर कब्जा किया शायद इसलिए ही कहा जाता है कि राजराजा के शासन काल में चोल दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य बना। वह पांड्य, केरल व श्रीलंका के राजाओं का मजबूत संघ नष्ट कर अपने अंत समय में मालदीव और मैसूर के कई हिस्सों पर कब्जा करने में सफल रहा।
राजराजा प्रथम ने लौह और रक्त की नीति का पालन करते हुए श्रीलंका के शासक महिंद पंचम को पराजित कर मामुण्डी चोल मण्डलम नामक नए प्रांत को स्थापित किया साथ ही उसकी राजधानी जनजाथमंगलम बनाई।
इसके अलावा 1012 ईस्वी में राजराजा ने कंबोडिया के सबसे बड़े हिंदू मंदिर अंकोरवाट को बनवाने वाले राजा सूर्य वर्मन के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए। राजराजा ने 1010 ईस्वी में थंजावुर में भगवान शिव को समर्पित बृहदेश्वर या राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण कराया।
यह दक्षिण भारतीय शैली में वास्तुकला का उल्लेखनीय नमूना माना जाता है। चोलों के विस्तार की बात आती है, तो राजेंद्र प्रथम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
1012 ईस्वी के आसपास चोल साम्राज्य के उत्तराधिकारी बनने के बाद उन्होंने अपने पिता राजराजा की विस्तारवादी विजय नीतियों को आगे बढ़ाया। पिता से भी आगे बढ़कर राजेंद्र प्रथम ने दक्षिण भारत में अपने वंश की महानता का डंका बजाया। राजेंद्र प्रथम ने चोल साम्राज्य की सीमा का विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, श्रीलंका, मालदीव, मलेशिया, दक्षिणी थाईलैंड और इंडोनेशिया तक कर लिया।
प्राचीन समय में व्यापार मुख्य रूप से समुद्री मार्ग से होता था। मालों से लदे जहाज हिंद महासागर होकर चीन-जापान व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों तक माल ले जाया करते थे। अपने व्यापार को बढ़ाने और समुद्री सुरक्षा के लिए राजेंद्र प्रथम समुद्र जीतने निकल पड़ा। इसने अपने नौसेना बेड़े को मजबूत किया और लड़ाकू जहाजों व छोटे गश्ती जहाजों की टोली बनाकर राज्यों की समुद्री सीमाओं पर तैनात कर दिया। देखते ही देखते समूचे हिंद महासागर और मालदीव, बंगाल की खाड़ी और मलक्का तक पूरे समुद्र को चोल राजाओं ने जीत लिया और उस पर अपना एकछत्र राज कायम किया।
उसने अपने व्यापार को इस रास्ते चीन-जापान और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों तक पहुंचाने के साथ-साथ वहां से गुजरने वाले अन्य जहाजों को भी सुरक्षित किया और उन्हें सुरक्षा प्रदान की हालांकि, दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से चाेलाें के अच्छे संबंध थे, फिर भी वहां के सैनिक हर राेज चोलों की नावों को लूट लेते थे।
इन्हें सबक सिखाने के लिए राजेंद्र प्रथम ने सन् 1025 ईस्वी में गंगा सागर पार कर जावा और सुमात्रा द्वीप पर अधिकार किया। वहीं चोल नौसेना ने इसके बाद मलेशिया पर आक्रमण कर उसके प्रमुख बंदरगाह कंडारम पर अपना कब्जा कर लिया। इन सब के बाद दक्षिण का समुद्री व्यापार मार्ग पूरी तरह से चोलों के कब्जे में था।
उनके बाद उनका बेटा राजाधिराज प्रथम 1044 ईस्वी में गद्दी पर बैठा। उसने सीलोन में शत्रुतापूर्ण ताकतों को उखाड़ फेंका और इस क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया। कोप्पम में चालुक्य राजा सोमेश्वर द्वितीय के साथ लड़ाई में इनकी मौत हो गई।
इस कारण आगे उनके भाई राजेंद्र द्वितीय ने राजगद्दी संभाली. चोल-वंश के कालखंड में चोल-नौसेना को सबसे शक्तिशाली नौ-सेनाओं में से एक माना जाता था कहते हैं कि नौसेना के दम पर ही अपने चोल अपने सम्राज्य का विस्तार कर पाए। सही मायने में उनकी नौसेना ही उनकी असल ताकत थी।
चोल-नेवी की मुहिम, खोज-यात्राओं के कई उदाहरण संगम-साहित्य में आज भी उपलब्ध हैं दरअसल विश्व में ज्यादातर नौ-सेनाओं ने बहुत देर के बाद युद्ध-पोतों पर महिलाओं को जाने के लिए मंजूरी दी थी खास बात तो यह है कि चोल-नौसेना में बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं काम करती थी।
वहां उनकी भूमिका अहम होती थी जरूरत पड़ने पर वह युद्ध में भी शामिल होती। इसके साथ-साथ चोल-शासकों के पास युद्ध पोतों के निर्माण के बारे में एक समृद्ध ज्ञान था, जिसका प्रयोग करते हुए वह दुश्मन को घुटने टेकने पर मजबूर करते रहे। चोल-नौसेना के महत्व को इसी से समझा जा सकता है कि सदियों बाद भी उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है।
यहां तक कि नवंबर 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यक्रम मन की बात की बात में इसका गुणगान किया था। 7 मध्ययुग के कई तमिल कवियों ने भी अपनी कविताओं में चोल राजाओं की विजयों का वर्णन किया है।
चोलों के समय महमूद गजनवी जैसे कई आक्रांताओं ने भारत पर लूट के मकसद से आक्रमण कर दिया था। ऐसे में लुटते उत्तर भारत को देखते हुए राजेंद्र चोल ने सैन्य विस्तार पर ज्यादा बल दिया और अपने सम्राज्य को मजबूत किया हालांकि, उस समय उसके सामने चुनौतियां कम न थीं वहां राज्यों पर कब्जा करने और वर्चस्व की लड़ाई जारी थी, फिर भी उसने अपनी सेना को मजबूत किया और समुद्र से सुरक्षा के लिए एक नौसेनिक बेड़े की स्थापना की।
अपने विशाल समुद्री बेड़े से चोल साम्राज्य ने कई दक्षिण एशियाई शासकों-प्रायद्वीपों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी और उनमें विजयश्री हासिल की। बारहवीं सदी तक चोल साम्राज्य में सबकुछ ठीक-ठाक रहा और वह निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ते रहे, किन्तु आगे वह धीरे-धीरे कमजोर होने लगे। उन्हें चालुक्यों व होयसलों की शत्रुता का सामना करना पड़ा।
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भारत का विलक्षण चोल साम्राज्य –
चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था , चोल शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न प्रकार से की जाती रही है, भारत के इतिहास को यूरोपियन ‘समझ’ के अनुरूप व्याख्या कर बिगाडने में प्रसिद्ध फिरंगियों के कर्नल जेरिनो ने चोल शब्द को संस्कृत “काल” एवं “कोल” से संबद्ध करते हुए इसे दक्षिण भारत के कृष्णवर्ण आर्य समुदाय का सूचक माना है, चोल शब्द को संस्कृत “चोर” तथा तमिल “चोलम्” से भी संबद्ध किया गया है किंतु इनमें से कोई मत ठीक नहीं है, आरंभिक काल से ही चोल शब्द का प्रयोग इसी नाम के राजवंश द्वारा शासित प्रजा और भूभाग के लिए व्यवहृत होता रहा है, संगमयुगीन मणिमेक्लै में चोलों को सूर्यवंशी कहा है, चोलों के अनेक प्रचलित नामों में शेंबियन् भी है, शेंबियन् के आधार पर उन्हें शिबि से उद्भूत सिद्ध करते हैं, 12वीं सदी के अनेक स्थानीय राजवंश अपने को करिकाल से उद्भत कश्यप गोत्रीय बताते हैं।
चोलों के उल्लेख अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। कात्यायन ने चोडों का उल्लेख किया है। अशोक के अभिलेखों में भी इसका उल्लेख उपलब्ध है। किंतु इन्होंने संगमयुग में ही दक्षिण भारतीय इतिहास को संभवत: प्रथम बार प्रभावित किया। संगमकाल के अनेक महत्वपूर्ण चोल सम्राटों में करिकाल अत्यधिक प्रसिद्ध हुए संगमयुग के पश्चात् का चोल इतिहास अज्ञात है। फिर भी चोल-वंश-परंपरा एकदम समाप्त नहीं हुई थी क्योंकि रेनंडु (जिला कुडाया) प्रदेश में चोल पल्लवों, चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों के अधीन शासन करते रहे।
चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्रायद्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था इनके पास उस समय की शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके, चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था, अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया चोल काल दक्षिण भारत का ‘स्वर्ण युग’ था।
छठी शताब्दी के मध्य के बाद दक्षिण भारत में पल्लवों, चालुक्यों तथा पाण्ड्य वंशों का राज्य रहा। पल्लवों की राजधानी कांची, चालुक्यों की बादामी तथा पाण्ड्यों की राजधानी मदुरई थी, जो आधुनिक तंजौर में है और दक्षिण अर्थात केरल में, चेर शासक थे। कर्नाटक क्षेत्र में कदम्ब तथा गंगवंशों का शासन था। इस युग के अधिकतर समय में गंग शासक राष्ट्रकूटों के अधीन थे या उनसे मिलते हुए थे। राष्ट्रकूट इस समय महाराष्ट्र क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभावशाली थे। पल्लव, पाण्ड्य तथा चेर आपस में तथा मिलकर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध संघर्षरत थे। इनमें से कुछ शासकों विशेषकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौसेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए कई राजदूत भी चीन भेजे। पल्लव अधिकतर शैव मत के अनुयायी थे और इन्होंने आधुनिक चेन्नई के निकट महाबलीपुरम में कई मन्दिरों का निर्माण किया।
चोल वंश के राजराज तथा शैलेन्द्र प्रथम ने विभिन्न जगहों पर शिव तथा विष्णु के मन्दिरों का निर्माण कर अपने विजय के प्रमाण दिए। इनमें से सबसे प्रसिद्ध तंजावुर का राजराजेश्वर मन्दिर है जिसका निर्माण कार्य 1010 ई. में पूरा हुआ। चोल शासकों ने इन मन्दिरों की दीवारों पर अपनी विजय के बड़े-बड़े अभिलेख खुदवाए। इन्हीं से हमें चोल शासकों और उनके पूर्वजों के बारे में बहुत कुछ पता लगता है। राजेन्द्र प्रथम का एक प्रमुख अभियान वह था जिसमें वह कलिंग होता हुआ बंगाल पहुँचा जहाँ उसकी सेना ने दो नरेशों को पराजित किया। इस अभियान का नेतृत्व 1022 ई. में एक चोल सेनाध्यक्ष ने किया और उसने वही मार्ग अपनाया जो महान विजेता समुद्रगुप्त ने अपनाया था। इस अभियान की सफलता की प्रशस्ति में राजेन्द्र प्रथम ने ‘गंगई कौंडचोल’ (अर्थात गंगा का चोल विजेता) की पदवी ग्रहण की। उसने कावेरी के तट पर एक नयी राजधानी ‘गंगाईकोंड चोलपुरम्’ (गंगा के चोल विजेता का शहर) का निर्माण किया। राजेन्द्र प्रथम का एक और मुख्य अभियान शैलेन्द्र साम्राज्य के विरुद्ध नौ सैनिक अभियान था। शैलेन्द्र साम्राज्य का आठवीं शताब्दी में उदय हुआ था और मलाया प्रायद्वीप, सुमात्रा, जावा तथा उसके निकट के द्वीपों पर इसका अधिकार था। चीन के साथ सड़क के रास्ते होने वाले व्यापार पर भी इसका नियंत्रण था। शैलेन्द्र वंश के शासक बौद्ध थे, चोलों के साथ इनके बड़े अच्छे सम्बन्ध थे। शैलेन्द्र शासक ने नागपट्टम में एक बौद्ध मठ का निर्माण किया था और उसके अनुरोध पर राजेन्द्र प्रथम ने मठ के खर्च के लिए एक ग्राम का अनुदान दिया था। इन दोनों के बीच सम्बन्ध टूटने का कारण यह था कि चोल शासक भारतीय व्यापार में पड़ने वाली बाधाओं को हटाना चाहते थे। इस अभियान से उन्हें कादरम या केदार तथा मलाया प्राय:द्वीप और सुमात्रा में कई स्थानों पर विजय मिली। कुछ समय तक इस क्षेत्र में चोलों की नौसेना सबसे अधिक शक्तिशाली थी तथा बंगाल की खाड़ी चोलों की झील के समान हो गई थी।
चोल शासकों ने अपने कई दूत चीन भी भेजे। सत्तर व्यापारियों का एक मंडल 1077 ई. में चोल दूतों के रूप में चीन गया और वहाँ उसे 81,800 कांस्य मुद्राओं की माला मिली, अर्थात यह संख्या उतनी ही थी, जितनी उन व्यापारियों की वस्तुएँ थीं, जिसमें कपूर, कढ़ाई किए कपड़े, हाथी दांत, गैंडों के सींग तथा शीशे का सामान था। चोल सम्राटों ने राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी चालुक्यों से बराबर संघर्ष किया। इन्हें उत्तरकालीन चालुक्य कहा जाता है और इनकी राजधानी कल्याणी में थी। चोल और चालुक्यों में वेंगी (रायलसीमा), तुंगभद्र और कर्नाटक के उत्तर-पश्चिम में गंगों के क्षेत्र पर प्रभुत्व के लिए संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में किसी भी पक्ष की निश्चित रूप से विजय नहीं हुई और दोनों पक्ष अन्ततः कमज़ोर पड़ गए। ऐसा लगता है कि इस युग में युद्ध की भयंकरता बढ़ती गई। चोल शासकों ने चालुक्यों के शहरों को, जिनमें कल्याणी शामिल था, तहस-नहस कर डाला और जनता का, जिसमें ब्राह्मण और बच्चे शामिल थे, क़त्लेआम किया। यही नीति उन्होंने पाड्य राजाओं के साथ अपनाई। उन्होंने श्रीलंका की प्राचीन राजधानी अनुराधापुर को भी धराशायी कर दिया और वहाँ के राजा और रानी के साथ बड़ी कठोरता का व्यवहार किया। ये कार्य चोल साम्राज्य के इतिहास पर कलंक हैं। लेकिन इसके बावजूद चोल किसी भी देश पर विजय प्राप्त कर लेते थे, तो उसमें ठोस शासन व्यवस्था क़ायम करते थे। चोल-प्रशासन की एक प्रमुख बात यह थी कि, वे अपने सारे साम्राज्य के ग्रामों में स्वशासन को प्रोत्साहित करते थे।
★★ चोल बारहवीं शताब्दी तक समृद्धशाली बने रहे, लेकिन तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में उनका पतन शुरू हो गया। बारहवीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में उत्तर कालीन चालुक्यों की शक्ति भी क्षीण पड़ गई थी।
“” चोल साम्राज्य की जगह अब दक्षिण में पाण्ड्य तथा होयसल सम्राटों तथा उत्तरकालीन चोल सम्राटों की जगह ‘यादव और काकतीय’ सम्राटों ने ले ली थी, इन राज्यों ने भी कला तथा स्थापत्य को बढ़ावा दिया दुर्भाग्यवश यादवों और काकतीयों ने आपस में संघर्ष कर स्वयं को कमज़ोर बना लिया इन्होंने एक दूसरे के नगरों का विध्वंस किया और यहाँ तक की मन्दिरों को भी नहीं छोड़ा, मंदिर विध्वंस तक किये यादव व काकतीय राज्यों नें।””
अन्ततः चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में दिल्ली के सुल्तानों ने चोल, यादव एवं काकतीयों को जड़ से उखाड़ दिया।
★★ प्रशासन की सुविधा हेतु सम्पूर्ण चोल साम्राज्य 6 प्रान्तों में विभक्त था। प्रान्तों को ‘मण्डलम्’ कहा जाता था। प्रायः राजकुमारों को यहां का प्रशासन देखना पड़ता था। मण्डलम् को कोट्टम (कमिश्नरी) में, कोट्टम को नाडु (ज़िले) में एवं प्रत्येक नाडु को कई कुर्रमों (ग्राम समूह) में विभक्त किया गया था। बड़े-बड़े शहर या गांव एक अलग कुर्रम बन जाते थे और तनियूर या तंकुरम कहलाते थे। मण्डलम् से लेकर ग्राम स्तर तक के प्रशासन हेतु स्थानीय सभाओं का सहयोग लिया जाता था। ‘नाडु’ की स्थानीय सभा को ‘नाटूर’ एवं नगर की सभाओं को क्रमशः श्रेणी और पूग कहा जाता था।
सभा या ग्राम सभा – यह मूलतः अग्रहारों व ब्राह्मणों बस्तियों की संस्था थी। इसके सदस्यों को ‘पेरुमक्कल’ कहा जाता था। ‘वारियम’ (कार्यकारिणी समिति) की सदस्यता हेतु 35 से 70 वर्ष के बीच तक के व्यक्तियों को अवसर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त वह कम से कम डेढ़ एकड़ भूमि का मालिक एवं वैदिक मंत्रों का ज्ञाता हो। इन अर्हताओं को पूरा करके चुने गये 30 सदस्यों में से 12 ज्ञानी व्यक्तियों को वार्षिक समिति ‘सम्वत्सर वारियम्’ के लिए चुना जाता था और शेष बचे 18 सदस्यों में 12 उद्यान समिति के लिए एवं 6 को तड़ाग समिति के लिए चुना जाता था।
सभी की बैठक गांव में मन्दिर के वृक्ष के नीचे एवं तालाब के किनारे होती थी। महासभा को ‘पूरुगर्रि’, इसके सदस्यों को ‘पेरुमक्कल’ एवं समिति के सदस्यों को ‘वारियप्पेरुमक्कल’ कहा जाता था। व्यापारियों की सभा को ‘नगरम्’ कहा जाता था। नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे- मणिग्राम, वलंजीयर आदि। चोल काल के ‘उर’ का रूप लघुगणतंत्र जैसा था। इस समय सार्वजनिक भूमि महासभा के अधिकार क्षेत्र में होती थी। महासभा ग्रामवासियों पर कर लगाने, उसे वसूलने एवं बेगार लेने का भी अधिकार अपने पास रखती थी। सभा या महासभा वर्ष में एक बार केन्द्रीय सरकार को कर देती थी।
चोल साम्राज्य के अंतिम शासक कुलोत्तुंग द्वितीय के उत्तराधिकारी निर्बल थे। वे अपने राज्य को अक्षुण्ण बना रखने में असफल रहे। सुदूर दक्षिण में पाण्ड्य, केरल और सिंहल (श्रीलंका) राज्यों में विद्रोह की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई थी और वे चोलों की अधीनता से मुक्त हो गए। समुद्र पार के जिन द्वीपों व प्रदेशों पर राजेन्द्र प्रथम द्वारा आधिपत्य स्थापित किया गया था, उन्होंने भी अब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। द्वारसमुद्र के होयसाल और इसी प्रकार के अन्य राजवंशों के उत्कर्ष के कारण चोल राज्य अब सर्वथा क्षीण हो गया। चोलों के अनेक सामन्त इस समय निरन्तर विद्रोह के लिए तत्पर रहते थे, और चोल राजवंश के अन्तःपुर व राजदरबार भी षड़यत्रों के अड्डे बने हुए थे। इस स्थिति में चोल राजाओं की स्थिति सर्वथा नगण्य हो गई थी, फिर चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। अंतत: जटावर्मन् सुंदर पांड्य ने उत्तर पर आक्रमण किया और चोलों को पराजित किया। इसके बाद से चोल शासक पांड्यों के अधीन रहे और उनकी यह स्थिति भी 1310 में मलिक काफूर के आक्रमण से समाप्त हो गई।
चोल राजवंश की वंशावली –
विजयालय चोल 848-871
आदित्य प्रथम 871-907
परन्तक चोल प्रथम 907-950
गंधरादित्य 950-957
अरिंजय चोल 956-957
सुन्दर चोल 957-970
उत्तम चोल 970-985
राजाराज चोल प्रथम 985-1014
राजेन्द्र चोल प्रथम 1012-1044
राजाधिराज चोल प्रथम 1018-1054
राजेन्द्र चोल द्वितीय 1051-1063
वीरराजेन्द्र चोल 1063-1070
अधिराजेन्द्र चोल 1067-1070
चालुक्य चोल ” ”
कुलोतुंग चोल प्रथम 1070-1120
कुलोतुंग चोल द्वितीय 1133-1150
राजाराज चोल द्वितीय 1146-1163
राजाधिराज चोल द्वितीय 1163-1178
कुलोतुंग चोल तृतीय 1178-1218
राजाराज चोल तृतीय 1216-1256
राजेन्द्र चोल तृतीय 1246-1279
✍🏻 डॉ सुधीर व्यास
मुख्य संपादक, उगता भारत