शिक्षा में भारतीयता और अर्थव्यवस्था में स्थानीयता को बढ़ावा दे सरकार

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रवि शंकर

पिछले कुछ महीनों में भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था और शिक्षा से संबंधित कुछ प्रमुख नीतियों की घोषणा की। दोनों नीतियां परस्पर पोषक हैं। कोरोनाकाल में हुए लॉकडाउन से कराहते अर्थतंत्र को संभालने के लिए आत्मनिर्भर भारत बनाने की बात कही गई। ग्लोबल यानी वैश्विक की अवधारणा को नकारते हुए लोकल यानी स्थानीयता की बात सरकार ने कही। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पश्चिमी शब्द ग्लोबल का अर्थ भारत का वसुधैव कुटुम्बकम् नहीं है। ग्लोबल शब्द तो आर्थिक परिप्रेक्ष्य में रचा गया एक शब्दजाल मात्र है जो पश्चिम के शोषक अर्थतंत्र द्वारा उछाला गया है। ग्लोबल शब्द में सभी के पालन और संरक्षण का भाव नहीं है। इसलिए इसका विरोध, बल्कि उच्छेद करना एक अति आवश्यक काम था जो कि इस पिछले दिनों मोदी सरकार ने किया है।

अर्थव्यवस्था के भारतीय स्वरूप में स्थानीयता का ही आधार लिया जाता रहा है। भारत का वैश्विक व्यापार भी कभी स्थानीयता का उल्लंघन करके नहीं किया गया। स्थानीयता और वसुधैव कुटुम्बकम् का एक विलक्षण मेल भारत ने इतिहास मे प्रस्तुत किया है और उसे लगभग पाँच हजार वर्ष तक निरंतर जारी रखा। वैश्विक तंत्र में यूरोपीयों के आगमन से पहले तक यही तंत्र चलता रहा था। हम इतिहास उठाकर देख सकते हैं, उस वैश्विक तंत्र में इतनी हिंसा और इतना शोषण नहीं था, जितना कि आज है। इसलिए भारत सरकार का यह कदम स्वागतयोग्य है।

आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा भी काफी उत्साह जगाने वाली है। देश ही नहीं, हरेक गाँव को आत्मनिर्भर होना चाहिए, यही भारतीय मनीषियों की प्राचीन काल से ही संकल्पना रही है। इस दिशा में कैसे पहल की जाए, कौन सी नीतियाँ अपनाई जाएं जो भारत को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाएं, इस पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है। हो सकता है कि इसके लिए पिछले सौ वर्षों से देश में चल रही नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़े, परंतु वह करना ही चाहिए।

आर्थिक तंत्र और शिक्षा दोनों ही परस्पर जुड़े हुए विषय हैं। दुर्भाग्यवश पिछले सौ वर्षों से देश में जो अंग्रेजी शिक्षा चलती रही है, वह पूरी तरह लोगों को नौकर बनाने वाली रही है। यही कारण है कि हरेक पढ़ा लिखा युवा नौकरी की ही तलाश में रहता है और उनके वोट पाने के लालच मे हरेक सरकार ढेर सारे रोजगार उपलब्ध कराने का आश्वासन देती रहती है। सरकार रोजगार दे नहीं पाती है और युवा सरकार बदलते रहते हैं। यह दुष्चक्र चुनाव दर चुनाव चलता रहता है। इसलिए यदि अर्थतंत्र को आत्मनिर्भर बनाना है तो हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे युवा अपना उद्यम खड़ा करने में सक्षम बने, नौकरी मांगने के लिए उसे खड़ा न होना पड़े। पिछली सरकारों ने युवाओं को नौकर यानी संसाधन समझ लिया था और इसलिए शिक्षा मंत्रालय का नाम बदल कर मानव संसाधन विकास मंत्रालय कर दिया गया था। वर्तमान सरकार ने इसका नाम वापस शिक्षा मंत्रालय करके एक बड़ा संकेत दिया है।

नई शिक्षा नीति की भी घोषणा की गई है। उस नीति के प्रावधान युवाओं को नौकरी की प्रत्याशा से मुक्त करते नजर आते हैं। हालाँकि उसमें अभी भी भारतीयता को समावेशित करने की बहुत आवश्यकता है, परंतु अपने वर्तमान स्वरूप में भी वह देश की शिक्षा में व्यापक परिवर्तन लाने वाली है। इस शिक्षा नीति में वोकेशनल यानी स्किलआधारित प्रशिक्षणों को विद्यालयीन शिक्षा में सम्मिलित किया गया है। यह युवाओं को उद्यमी बनाने की दिशा में पहला कदम है। यदि इस नीति का सक्षम और व्यावहारिक पालन किया गया तो देश के युवाओं को रोजगार के चक्कर से निकालने में सफलता तो मिलेगी ही, साथ ही देश को आत्मनिर्भर बनाने में भी सहायता होगी।

शिक्षा और अर्थतंत्र के आपसी संबंध को समझ कर ही नीतियों की रचना करनी होगी। यदि नीति निर्धारण में शिक्षा और अर्थतंत्र से जुड़ी भारतीय परंपराओं को भी स्थान दिया जाए, तो सोने पर सुहागा हो सकता है। भारतीय परंपराएं हमें भावी नीतियां बनाने में प्रेरणा और मार्गदर्शन दोनों का ही काम कर सकती है। इसलिए आवश्यक है कि इन नीतियों के निर्धारण समितियों में भारतीय परंपराओं के विद्वानों को भी सम्मिलित किया जाए। ऐसा करने पर आत्मनिर्भर भारत और शिक्षित भारत दोनों ही सपने साकार होंगे।

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