manu mahotsav banner 2
Categories
इतिहास के पन्नों से

इमाम ए हिंद और इकबाल

#डॉविवेकआर्य

राम मंदिर निर्माण निधि के लिए धन संग्रह करते हुए राष्ट्रीय मुस्लिम मंच द्वारा श्री राम जी के लिए ‘इमाम-ए-हिन्द’ का प्रयोग किया गया। हिन्दू समाज इस शब्द से प्राय: परिचित ही नहीं है। इतिहास में यह सम्बोधन अल्लामा इक़बाल द्वारा अपनी इस रचना में श्री राम जी के लिए प्रयोग किया गया था।

लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द। सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द ।।
ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक उसका है असर,रिफ़अत में आस्माँ से भी ऊँचा है बामे-हिन्द ।
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त,मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द ।
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,अहले-नज़र समझते हैं उसको ‘इमामे-हिन्द ‘।
एजाज़ इस चिराग़े-हिदायत का है ,यहीरोशन तिराज़ सहर ज़माने में शामे-हिन्द ।
तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था,पाकीज़गी में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था ।
-अल्लामा इकबाल

[शब्दार्थ :लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द । सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द ।।= हिन्द का प्याला सत्य की मदिरा से छलक रहा है। पूरब के सभी महान चिंतक इहंद के राम हैं; फिक्रे-फ़लक=महान चिंतन; रिफ़अत=ऊँचाई; बामे-हिन्द=हिन्दी का गौरव या ज्ञान; मलक=देवता; सरिश्त=ऊँचे आसन पर; एजाज़=चमत्कार; चिराग़े-हिदायत=ज्ञान का दीपक; सहर=भरपूर रोशनी वाला सवेरा; शुजाअत=वीरता; फ़र्द=एकमात्र, अद्वितीय; पाकीज़गी= पवित्रता]

अल्लामा इकबाल सियालकोट, पंजाब, ब्रिटिश भारत में पैदा हुआ था। एक कश्मीरी शेख परिवार में पाँच भाई बहन की सबसे बड़ी संतान इकबाल के पिता शेख नूर मुहम्मद एक समृद्ध दर्जी थे। उनका परिवार इस्लाम के प्रति कट्टरता के लिए जाना जाता था। इकबाल के दादा सहज राम सप्रू श्रीनगर से थे। दवाब के चलते उन्होंने अपने परिवार के साथ इस्लाम में मर परिवर्तित कर लिया था और अपना शेख मुहम्मद रफीक रख लिया था। वह पंजाब के सियालकोट पश्चिम में अपने परिवार के साथ चले गए। कुछ लोग कहते है कि अपने प्रारंभिक उम्र में इकबाल के विचार सेक्युलर थे। क्योंकि उन्होंने ही सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा गीत लिखा था। पाठक जरा इस तराने को गौर से पढ़े-

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा। हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा
परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया आसमाँ का वह संतरी हमारा, वह पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा।

इस तराने की अंतिम पंक्ति की मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर करना पिछले 1200 वर्षों में हमारे महान पूर्वजों द्वारा दिए गए बलिदान का अपमान नहीं तो क्या है? जिन्होंने अपने धर्म, गौ, वेद,चोटी, जनेऊ मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिए। उनके बलिदानों को इतना सस्ते में कैसे लिया जा सकता है? यह ऐतिहासिक सत्य है कि मज़हब के नाम पर, दीन के नाम पर, गैर मुस्लिम होने के नाम पर हमारे ऊपर अत्याचार हुए। आखिर क्या कारण था कि कोई हिन्दू अगर इस्लाम स्वीकार कर लेता तो उसे ऊँचा ओहदा, जजिया से मुक्ति, निक़ाह करने के लिए औरतें से लेकर पान खाकर थूकने के लिए हीरे जड़ित स्वर्ण पात्र मिलते थे। जो हिन्दू अस्वीकार कर लेता तो उसे वीर शिरोमणि शम्भाजी, गुरु तेग बहादुर, बंदा बैरागी, वीर गोकुला, हकीकत राय के समान वीरगति, जेल, तिरस्कार, गुलामी, बलात्कार, जजिया कर और मैला ढोने जैसे काम करने के लिए विवश किया जाता था।

इसलिए यह तराने हमसे खिलाफत के दौर में हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर गवाए जाते थे। 1918 के बाद हमारे देश के राजनीतिक पटल में गाँधी जी का अकस्मात् आना और एकदम से अर्श छू जाना किसी चमत्कार से कम नहीं था। उस समय गाँधी ने एक ऐतिहासिक गलती की। उन्होंने सोचा की देश की स्वतंत्रता के मुसलमानों का सहयोग आवश्यक है। इसलिए उन्होंने तुर्की के खलीफा को हटाए जाने को लेकर चलाये जा रहे खिलाफत आंदोलन जो विशुद्ध रूप से मुसलमानों का विदेशी जमीन पर चल रहा धार्मिक आंदोलन था। उससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को नत्थी कर दिया। जो सेक्युलर नेता आज कहते है कि धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहिए उन्हें यह स्मरण रहना चाहिए कि यह धर्म को राजनीति से नत्थी करने का काम सर्वप्रथम गाँधी ने ही किया था। देश की स्वतंत्रता का आंदोलन गाँधी के कहने पर अली बंधुओं जैसे मतान्ध नेताओं के हाथों सौंप दिया गया। धनी हिन्दुओं को ख़िलाफ़त के धन देने, जेल जाने और आंदोलन करने को प्रेरित किया गया। आंदोलन तो असफल होना ही था क्योंकि तुर्की की जनता ही उसे नहीं चाहती थी। पर उत्तेजित हुई मोमिनों की भीड़ निहत्थे हिन्दुओं पर टूट पड़ी। 1921 में आज से ठीक 100 वर्ष पहले मोपला के नाम से केरल के मालाबार में दंगे प्रारम्भ हुए जो 1947 के देश विभाजन तक चले। इन दंगों में अंग्रेज मौन रहकर आनंद लेते रहे और हिन्दुओं को दंगाई प्रताड़ित करते रहे।

इमाम इमाम-ए-हिन्द और मज़हब नहीं सिखाता का तराना गाने वाला इक़बाल अब अपने असली रूप में सामने आया। मुसलमानों के लिए अलग सरजमीन की
मांग इक़बाल ने अपने प्यादे जिन्ना जिसका इस्लाम से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था रखवाई थी। अब इक़बाल उसी तर्ज पर मंच से गाता था।

चीन-और अरब हमारा। हिंदुस्तान हमारा। मुस्लिम है हम। वतन है सारा जहाँ हमारा।

1930 में मुस्लिम लीग के मंच से अध्यक्षीय भाषण देते हुए इक़बाल ने ही कहा था कि मैं पंजाब, बलूचिस्तान, सिंध और फ्रंटियर को एक अलग देश के रूप में देखना चाहता हूँ। इक़बाल खुले आम यह घोषणा करता था कि मुसलमानों को जिन्ना के हाथ मजबूत करने चाहिए ताकि वो उन्हें पाकिस्तान बनाकर दे सके। इक़बाल ने हिन्दू मुस्लिम की भिन्न निर्वाचन प्रणाली के लिए मुसलमानों को प्रेरित किया था जिसके चलते पाकिस्तान का निर्माण हुआ।

इक़बाल की कट्टरता के दो उदाहरण हम देना चाहेंगे। शुद्धि एवं हिन्दू संगठन के आंदोलन चलाने वाले स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे अब्दुल रशीद और रंगीला रसूल पुस्तक के प्रकाशक महाशय राजपाल के हत्यारे इलमदीन की इक़बाल ने खुलेआम वकालत की थी। इलमदीन को जब फांसी से न बचा पाए तो उसकी लाश पर इक़बाल ने एक वाक्या बोला था कि ‘ असि वेखदे रह गए, ए तरखना दा मुण्डा बाजी ले गया’ अर्थात हम पढ़े लिखे देखते रह गए। यह बढ़ई का अनपढ़ लड़का बाजी मार गया। इक़बाल के इन दृष्टिकोण से हमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसकी मनोवृति क्या थी। जो आदमी हिन्दुओं के हत्यारों का पक्ष लेने में कभी पीछे नहीं रहता था। इक़बाल का देहांत 1938 में हो गया। वो पाकिस्तान बनते तो नहीं देख पाया। पर वो लाखों निरपराध वृद्धों, बच्चों, स्त्रियों की लाशों, अबलाओं के बलात्कारों, अबोध बालकों को अनाथ, धनिकों को निर्धन बनाने के बाद पाकिस्तान का राष्ट्र पिता बनने पर कैसा महसूस करता होगा। यह पाठक स्वयं सोच सकते है।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version