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बहुत पुराना है भारत में इस्लामिक आतंकवाद

हिन्दुओं के बारे में अलाउद्दीन को दी गई थी यह सलाह

इलियट एंड डाउसन की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इंडिया से (वेबैक मशीन., Vol. 3, Trubner & Co., London, pages 183-185) हमें पता चलता है कि धार्मिक हिंसा का ये प्रक्ररण न केवल सेना के द्वारा रचा गया, अपितु मुफ्ती, क़ाज़ी और अन्य दरबारियों ने भी धार्मिक आधार पर इसे मान्यता दी। क़ाज़ी मुघीसुद्दीन बयाना ने अल्लाउद्दीन को सलाह दी कि “हिन्दूओं को कुचल कर अपने अधीन रखना धर्मसंगत है, क्योंकि वो पैगंबर(मोहम्मद) के सबसे बडे दुश्मन रहे हैं और पैगंबर के आदेशानुसार हमें उन्हें मारना, लूटना और क़ैद करना चाहिये। या वो इस्लाम को स्वीकार करें या मार दिये जायें, गुलाम बना दिये जाये और उनकी संपत्ति को नष्ट कर दिया जाये।”

पैगंबर का हुक्म है करो काफिर का नाश।
गाजी पद को पाओगे पूरण होगी आश ।।

जब अपनी मजहबी किताब के आधार पर इस्लामिक सुल्तान या शासक वर्ग के लोग इस प्रकार के आदेश हिन्दुओं के विरुद्ध दिया करते थे तो पूरी प्रशासनिक व्यवस्था या शासन तंत्र उनके इस प्रकार के आदेश का कभी विरोध नहीं कर पाता था, क्योंकि उस समय का पूरा तन्त्र ही साम्प्रदायिक आधार पर कार्य करने का अभ्यस्त हो चुका था।
मलिक काफूर खिलजी के शासन काल में एक बहुत ही शक्तिशाली अधिकारी था और वह मूल रूप में हिन्दू था। उसे बलात धर्मांतरित किया गया था । उसी के नेतृत्व में खिलजी की सेना ने दक्षिण भारत में प्रथम अभियान1309 ई0 में और दूसरा 1311 ई0 में सम्पन्न किया। यद्यपि वह हिन्दू के प्रति बहुत अधिक उदार था , इसके उपरान्त भी अपने आका के निर्देशों का पालन करना उसके लिए बहुत आवश्यक था । यही कारण था कि उसने अपनी उदारता को एक ओर रखकर अपने बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के आदेशों का पालन करते हुए अपने इन दोनों सैन्य अभियानों के दौरान दक्षिण भारत में अनेकों हिन्दुओं का वध किया । उनके धर्म स्थलों का विनाश किया।
इतिहासकारों का मानना है कि हैलेबिडु मन्दिर के अलावा कई मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया। वहाँ से लूटा गया खज़ाना इतना अधिक था कि उसको लाने के लिये 1000 ऊंट लगाये गये, इस लूट में प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी था जो कि वहॉं के भद्रकाली मन्दिर की देवी की आँखों में जड़ा था।

अकूत सम्पदा लूटकर वे ले गए अपने देश।
कोहिनूर गया हाथ से कुछ कर न पाया देश।।

साम्प्रदायिकता का ऐसा नंगा नाच किया गया कि देखते ही देखते हजारों हिन्दुओं को अपने प्राण गंवाने पड़ गए। आज के वामपंथी और कांग्रेसी इतिहासकार भारत में साम्प्रदायिकता की खोज करते समय इसे आजादी से पहले के 10 – 20 वर्षों में खोजने का अतार्किक प्रयास करते दिखाई पड़ते हैं। जबकि सच यह है कि जिस दिन इस्लाम का भारत से परिचय हुआ उसी दिन से साम्प्रदायिक दंगों या साम्प्रदायिक आधार पर नरसंहार करने की परम्परा का आरम्भ भारत में हो गया था। इस प्रकार भारत में दंगों का उतना ही पुराना इतिहास है जितना पुराना इस्लाम के आगमन का इतिहास है। इतिहास के किसी भी गंभीर और जिज्ञासु विद्यार्थी को भारत में सांप्रदायिकता की खोज करते समय हमारे इसी तथ्य के आधार पर अपना अनुसन्धान या शोध करना चाहिए।

तुग़लक़ काल में हिन्दुओं पर दमन चक्र

खिलजी वंश के पश्चात स्थापित हुए तुगलक वंश के शासन काल में भी हिन्दुओं के प्रति इस्लामिक साम्प्रदायिकता का दमन चक्र यथावत जारी रहा।
नरसिम्हाचार्य के अनुसार उलूघ खान ने दक्षिण भारत पर हमला करके श्रीरंगपट्टनम में 12000 निहत्थे साधुओं को मार दिया था और मन्दिर को ध्वस्त कर दिया। वैष्ण्व दार्शनिक श्री वेदान्त देशिक ने लाशों के बीच छुप कर अपने-आप, श्री सुदर्शन सूरी कृत ग्रंथ व उनके 2 पुत्रों को बचाया।
वास्तव में साधुओं पर किया गया यह अत्याचार भारतवर्ष के इतिहास की बहुत ही निन्दनीय घटना है। क्योंकि निहत्थे लोगों को मारना भारत में वीरता का नहीं अपितु कायरता का कृत्य माना जाता है। यदि भारत की वीर परम्परा की इस पर परिभाषा के अनुसार इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचारों को देखा जाए तो पता चलता है कि उन्होंने कभी भी वीरता का परिचय नहीं दिया । इसके विपरीत क्रूरता और कायरता का परिचय देते हुए निहत्थे और निरपराध लोगों को मारकर वीरता की छाती चौड़ी की गई । जिसे भारतीय इतिहास परम्परा में नितांत निन्दनीय माना गया है, परन्तु इन लोगों को ऐसा करके गाजी का पद मिलने का लालच उनकी पुस्तक देती है, बस उसी लालच के वशीभूत होकर ऐसे जघन्य अपराध मुस्लिम आक्रमणकारियों या शासकों के द्वारा हिन्दुओं पर किए गए।
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के समय में लिखे गये ‘तारीख-ए-फिरोज़शाही’ में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि उसके शासनकाल में हिन्दुओं को सुनियोजियत ढंग से उत्पीड़ित गया। उस समय शासक वर्ग का यह फैशन सा हो गया था कि जो कोई व्यक्ति सत्ता और पद के मद में चूर होकर हिन्दुओं का जितना अधिक दमन, दलन, शोषण और उत्पीड़न करेगा वह उतना ही अधिक वीर और साहसी माना जाएगा। इसी झूठी वीरता के प्रदर्शन को करते हुए अनेकों मुस्लिम शासक और उनके सेनापति हिन्दुओं का बलात धर्मांतरण करते थे, बलात गुलाम बनाते थे और उनके धर्म स्थलों को भी नष्ट कर अपनी छाती चौड़ी करते थे।

हिन्दू हो चाहे काट दो चाहे लूटो उसका माल।
दीनी खिदमत के लिए झपट पड़ो बन काल।।

फिरोज़ शाह की मृत्यु हुई तो वह भी हिन्दुओं के लिए एक कहर बनकर बरस पड़ी। इस अवसर पर मुस्लिम अधिकारियों की ओर से आदेश दिया गया कि जितने भी हिन्दु गुलाम हैं, उन सबको मारकर उनकी लाशों का ढेर बना दिया जाए और यही हुआ भी। ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य संभवत: यही था कि यदि यह गुलाम बादशाह के साथ ही मार दिए जाएंगे तो जन्नत में बादशाह को ऊंचा स्थान प्राप्त होगा ,क्योंकि वह इनकी रूहों को ले जाकर खुदा को भेंट करेगा।
फिरोजशाह के द्वारा हिन्दू ब्राह्मण भी उत्पीड़ित किए गए थे ।यह वही लोग थे जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था । बस, फिर क्या था इस्लाम की क्रूरता ने उस समय ऐसा दृश्य उपस्थित कर दिया जिसे देख कर कठोर से कठोर हृदयी व्यक्ति भी द्रवित हो उठता। इस घटना का उल्लेख तारीख-ए-फिरोज़ शाही में करते हुए लिखा गया है कि –

”एक फरमान के तहत एक ब्राह्मण को सुलतान के समक्ष पेश किया गया। उसको सच्चे धर्म(इस्लाम) के बारे में बताया गया, लेकिन उसने उसे स्वीकार नहीं किया। उस काफ़िर के हाथ-पैर बांध कर लकडियों के ढेर पर फ़ेंक दिया गया और दोनों और से आग लगा दी गयी। आग पहले उसके पैरों पर पहुँची जिससे वो चीखा। जल्द ही आग उसके चारों ओर फ़ैल गयी।- (तारीख-ए-फिरोज़ शाही)
तुगलकी शासन में हिन्दुओं के प्रति कैसी-कैसी कठोरताओं का प्रावधान किया गया था इस पर यदि विचार किया जाए तो ऐतिहासिक ग्रन्थों (इलियट एण्ड डाउसन वह मुंशीराम मनोहरलाल ) से हमें पता चलता है कि उस समय हिन्दुओं से जबरन जज़िया कर वसूल किया जाता था, काफिर के रूप में ही उन्हें पंजीकृत किया जाता था और उनकी निरन्तर निगरानी की जाती थी ।

उस समय भी था इस्लामिक आतंकवाद

उस समय हिन्दुओं की निगरानी करने का एक कारण यह भी था कि हिन्दू विदेशी मुस्लिम सत्ता को हृदय से कभी स्वीकार नहीं कर रहे थे। इसलिए मुस्लिम अत्याचारों के विरुद्ध वह बार-बार विद्रोही अर्थात अपनी स्वाधीनता के लिए आतुर हो उठते थे।
जो हिन्दू मुर्तिस्थापन या मन्दिर निर्माण करते थे या फिर सार्वजनिक रूप से अपने धर्म का अनुसरण कुण्ड के आसपास करते थे, उनको क़ैद करके महल में मार दिया जाता था। इस प्रकार के विवरणों से स्पष्ट होता है कि उस समय हिन्दुओं को पूर्णतया आतंकित जीवन जीना पड़ रहा था अर्थात इस्लामिक आतंकवाद उस समय भी उनके लिए अत्यधिक कष्टदायक परिस्थितियां निर्मित कर रहा था।

हर ओर दहशत व्याप्त थी प्रेम का नहीं नाम।
था हिन्दू का जीना कठिन, हुआ दुष्ट निजाम।।

इसी प्रकार की घटनाओं के उदाहरणों पर विचार करते हुए फ़िरोज़ शाह तुगलक़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि-
”कुछ हिन्दूओं ने गॉंव कोहाना में एक मूर्तिस्थल स्थापित करके वहॉं मूर्तिपूजा आदि करनी शुरू कर दी। इन लोगों को पकड़ कर मेरे सामने पेश किया गया। मैंने इसे सार्वजनिक तौर पर विकृत प्रथा करार देते हुए उन लोगों को महल के दरवाजे के बाहर मार दिये जाने का निर्देश दिया। इसके अलावा उन सभी गैर-इस्लामिक पुस्तकों, मूर्तियों और पूजासामग्री को जला देने का हुक़्म दिया। बचे हुए लोगों को दण्ड और धमकी के द्वारा काबू कर लिया, ताकि सब को ये पता चल जाये कि, एक मुसलमान राज्य में ऐसी गैर-इस्लामिक प्रथाऍं वर्जित हैं।”
( फिरोज़ शाह तुगलक़, फुतुहात-ए-फिरोज़ शाही)
भारत में मूर्ति पूजा के विरोध में कई महापुरुषों ने समय-समय पर आन्दोलन आरम्भ किए हैं । जिनमें महर्षि दयानन्द का नाम की विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मूर्ति पूजा का विरोध करते हुए भारतवर्ष के किसी भी महापुरुष ने किसी मूर्तिपूजक का विनाश करने का कोई फतवा या आदेश जारी नहीं किया। इसके विपरीत लोगों ने शास्त्रार्थ कर करके मूर्तिपूजक लोगों की भ्रांतियों का समाधान करने का मार्ग अपनाया है। यदि मूर्ति पूजा में कोई दोष था तो इस्लाम के ये आक्रमणकारी या शासक वर्ग के लोग उस पर हिन्दुओं के धर्माचार्यों से शास्त्रार्थ कर सकते थे और समाज सुधारक के रूप में अपने आपको प्रस्तुत कर हिन्दू जनमानस का हृदय जीत सकते थे। उन्होंने ऐसा न करके तलवार से हिन्दुओं का सिर कलम करना की उचित माना। इसका कारण केवल एक ही था कि उनकी पुस्तक उन्हें ऐसा करने की आज्ञा देती थी और जो लोग ऐसा करते हुए स्वर्ग सिधारेंगे उन्हें शहीद का दर्जा देकर जन्नत में भेजने का प्रबन्ध भी उनकी पुस्तक उनके लिए करती है।
इस प्रकार के आश्वासन भी लोगों को उग्रवादी और साम्प्रदायिक बनाते हैं। यदि ऐसी व्यवस्थाओं को इस्लाम के मजहब या मजहबी दर्शन से बाहर कर दिया जाए तो निश्चय ही इस्लाम शान्ति का धर्म बन सकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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