एशिया महाद्वीप में आज भी हावी प्रभावी हैं प्राचीन भारत की मान्यताएं

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डॉ. एन.एस.शर्मा

इ तिहास के पन्ने साक्षी हैं कि विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का लोप हो जाने के बावजूद अपने अंतर्निहित शाश्वत तत्वों के कारण भारतीय संस्कृति आज भी अक्षुण्ण है। भारतीयों के पर्वत और आकाश की ऊंचाइयों को नापकर और समुद्र की गइराईयों को पार करके दक्षिण मध्य एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया के अनेक देशों में अपने लोग बसाए। पौराणिक काल में चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, कनिष्क और हर्षवर्धन आदि ने बौद्ध धर्म की शिक्षा दीक्षा के लिए अनेक दूतों को विदेशों में भेजा था। अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा ने भी कई देशों के साथ अपने संबंध स्थापित किए।

व्यापार एवम् धर्म आदि के प्रयोजनार्थ पर्याप्त संख्या में भारतीय विदेशों में आते जाते रहे हैं। इसी प्रकार अनेक देशों के दरबारी लेखकों, सरदारों एवम् इतिहासकारों, जैसे चंद्रगुप्त के समय सेल्यूकस (सेनापति), साईलेक्स मेगस्थनीज, हेरोडोटस, टैसियस् डीमेकस, डायनीमिस, प्लूटार्क ऐरियन, स्टावों, टालैगी आदि सभी यूनानी लेखक, तारानाथ (तिब्बत से)े फाह्यान (चंद्रगुप्त विक्रयमादित्य के समय) हयून सांग (हर्ष के समाय) अल्बेरुनी, सुलेमान आलासूदी उत्वी, निजामी, मिन हाजुद्दीन और इब्नबतूता आदि ने भारत की वैभवता का खुलकर वर्णन किया है। टॉमसरो, हॉकिन्स, एडवर्ड, टैरी और टालैसी के लेखन कार्यों को अपने-अपने देशों में ले गए।
हमारी संस्कृति और साहित्य का सर्वाधिक व्यवस्थित रूप सर्वप्रथम वैदिक युग से प्राप्त होता है। रामायण और महाभारत के अतिरिक्त पंचतंत्र की कथाओं, बुद्ध की जातक कथाओं, शुक सप्तशति, विद्यापति के साहित्य एवम् हितोपदेश आदि का भी विदेशों में विशिष्ट स्थान है। विदेशों में प्राप्त हुए सिक्के, अभिलेख, मठ, विहार, स्तूप, मंदिरों के खंडहर और मूर्तियां इन तथ्यों के सूचक हैं कि प्राचीन कालीन भारतीय धर्म प्राचरक और व्यापारी अपने साथ अपना साहित्य और हुनर अपने साथ विदेशों में ले गए। जैनियों के भगवती सूत्र और आकाश सूत्र आदि के अतिरिक्त वे अपने साथ हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथ, परंपरागत कथा साहित्य, रामायण, महाभारत, आर्यों के वेद, बौद्धों के त्रिपिटक, जातक, जैनियों के अंग, मुस्लिमों की कुरान और ईसाईयों की बाईबल एवम् टेस्टामेंट के अतिरिक्त मुद्राराक्षस, पृथ्वीराज रासो, राज तरंगिणी, आल्हा खंड, शकुंतला, मेघदूत, गीत गोविंद, अर्थशास्त्र अमर कोष तथा अष्टाध्यायी आदि ग्रंथ भी ले गए थे। चीन और तुर्कीस्तान में संस्कृत और प्राकृत भाषाओं की कई रचनाएं प्राप्त हुई हैं। कंबोडिया के ओंकारवाट में अपने समय का भव्यतम विष्णु मंदिर, जावा में बाराबुदूर का मंदिर, बोर्नियों में विष्णु की स्वर्ण मूर्ति और मलया में शिव पार्वती एवम् गणेश की मूर्तियां भी पाई गई हैं। इनके अतिरिक्त उन पर उत्कीर्ण ज्ञानप्रद श्लोकों की भाषा पालि है। इसी प्रकार उक्त उल्लिखित दक्षिण पूर्वी एशियाई और दक्षिण-मध्य एशियाई तथा अनेक यूरोपीय देशों में भी हमारे शब्द नगीने और मणि की भांति आज भी जगमग हैं।
भारत के शास्त्रों का प्रभाव विदेशी चिंतकों एवम् साहित्य मनीषियों पर पड़ा है। इस संदर्भ में माइस्टर इकार्ट का रहस्यानुभूतिवाद तथा शंकाराचार्य के अद्वैत वेदांत का प्रभाव समानांतर धाराओं में बहता नजर आता है। आत्मा तथा शरीर से संबंधित प्लेटो की विचारधारा भी भारतीय रंग लिए हुए है। नव्य प्लेटोवाद के अनेक विचारों पर बौद्ध दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। प्राचीन भारत ने जिन प्रदेशों में अपने साहित्य और संस्कृति का प्रचार किया उनमें से कुछ प्रमुख स्थान निम्नानुसार हैं-
बाली द्वीप
यह भारत से कोई तीन हजार मील दूर सुमात्रा से भी पूर्व की ओर बसा हुआ है। आज भी यह द्वीप हिंदू धर्मावलंबियों के लिए प्रसिद्ध है। राजनैतिक दृष्टि से वहां पर जावा का अधिपत्य रहा है, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से वह भारत से जुड़ा हुआ है। हमें उन हिंदू राजाओं और रानियों के नामों का पता चलता है, जिन्होंने दसवीं शताब्दी में बाली में शासन किया था। इनमें सर्वप्रथम थे उग्रसेन (ई. 915-953), तत्पश्चात् तवनेंद्र वर्मा (ई. 955) चंद्रमय सिंह वर्मा (ई. 962) जनसाधु वर्मा (ई. 975) तथा रानी श्री विजया महादेवी (ई. 983) हैं। बाली निवासी शैव हैं किंतु वे पंच देवताओं की भी पूजा करते हैं। वहां पंडित तथा पुरोहित संस्कृत भाषा के श्लोकों तथा वेद मंत्रों का ही उच्चारण करते हैं। रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ वहां लगभग सभी घरों में बड़े ही आदरपूर्वक सहेज कर रखे हुए हैं। वे आश्रम का अनुसरण करके मृत्योपरांत दाह संस्कार करते हैं तथा भारत की तरह ही उनका श्राद्ध भी करते हैं। ज्योतिष शास्त्र विषयक शब्द भी संस्कृत शब्दावलियों से हैं।
जावा
भारत के प्राचीनतम संपर्कों में से जावा भी भारतीय साहित्य की पताका फहरा रहा है। यहां के लेखों से पता चलता है कि भारतीय ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां आ बसे थे। चीनी यात्री फाहयान पांचवीं शताब्दी में वहां गये तो उन्होंने भारतीय साहित्य और धर्म को वहां काफी प्रचलित पाया था। शिव, विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं की वहां पूजा होती थी। वहां शैलेंद्र वंश और संजय वंश बहुत शक्तिशाली वंश थे। बाराबुदुर का स्तूप आज भी विश्व का आश्चर्य कहा जाता है। शैलेन्द्र शासक जो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे उन्होंने मंदिर के स्थान पर स्तूप ही बनवाये थे। पंचतंत्र, रामायण और महाभारत आदि अनेक भारतीय ग्रंथों का जावा भाषा में अनुवाद कार्य सहज ही देखा जा सकता है। जावा की भूमि में महायान के विकृत रूप तंत्रयान ने ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में एग्लंगा तथा जनमय के शासनकाल में अपनी जड़े फैलायीं। तेरहवीं शताब्दी में राजा कृतनागर ने तंत्रवाद का सर्वाधिक उपयोग किया। कृतनागर को नरसिंह मूर्ति तथा शिवबुद्ध और एग्लंगा को बेलाहन के विष्णु रूप में माना जाता है। वहां बौद्ध धर्म की नींव कश्मीर के राजा गुण्वर्मा ने वहां के तत्कालीन राजा और रानी को दीक्षा देकर रखी थी।
सुमात्रा
सुमात्रा जिसे प्राचीन काल में सुवर्ण द्वीप कहते थे, ईसा की तीसरी शताब्दी में भारतवासियों ने ही बसाया था। तीसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक श्री विजय वंश का राज्य सुमात्रा में शक्तिशाली रहा। इस राज्य में बौद्ध धर्म प्रचलित था और हत्सिंह के अनुसार अधिकांश वहां बौद्ध भिक्षु ही थे। आठवीं शताब्दी में राजेंद्र चोल ने इस राज्य पर आक्रमण करके शैलेंद्र राज्य की समाप्ति कर दी थी। शैलेंद्र राज्यवासी बौद्ध धर्म मानने वाले लोग थे और उन्होंने इस धर्म को फैलाने के लिए अनेक स्तूप और मठ भी बनवाए थे। यहां की राजधानी श्री विजय को आज प्लेमबंग कहते हैं। उसकी तुलना नालंदा और विक्रमशिला से की जाती है। सुमात्रा के बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति की कीर्ति बहुत दूर तक फैली हुई थी। यहां का तत्कालीन साहित्य पाली भाषा तथा खरोष्टि लिपि में हैं।
बोर्नियो
यह द्वीप मुख्यत: घात नामक आदिवासियों का निवास था। वहां से प्राप्त शिलालेख भारतीय प्रभाव की गवाही देते हैं। वहां की प्राचीन गुफाएं भारतीय संस्कृति की ओर संकेत करती हैं क्योंकि इन गुफाओं में प्राप्त हुई मूर्तियां बुद्ध, गणेश, अगस्त्य, नंदीश्वर, महाकाल तथा ब्रह्मा आदि की हैं। यह पूर्वी द्वीप समूह में सबसे बड़ा द्वीप है। ईसा की पहली शताब्दी में यहां भारतीयों ने भारतीय साहित्य को फैलाया और अनेक मंदिरों की स्थापना की थी। भारत के नये व पुराने लेखकों और कवियों के लेखन कार्य को वहां अनूदित रूप में बेहद चाव से पढ़ा जाता है। भारतीय धार्मिक ग्रंथों को बड़ी ही श्रद्धापूर्वक वे छाती से लगाये हुए हैं।
कंबोडिया
ईसा की पहली शताब्दी में हिंदुओं ने इसे बसाया था। इस साम्राज्य ने चीन, स्याम और आस-पास के टापुओं को विजयी किया। आठवीं और नौवीं शताब्दी में यह साम्राज्य उन्नति के शिखर पर था। इसकी राजधानी अंगकोर थी, जिसकी जनसंख्या बहुत अधिक थी। जयवर्मन द्वितीय, यशोवर्मन और सूर्यवर्मन इत्यादि इस साम्राज्य के शाक्तिशाली शासक हुए जो साहित्य और कला प्रेमी भी थे। वे सभी शासक हिंदू धर्म को मानते थे। डा. मजूमदार के अनुसार अंगकोर विश्व का एक आश्चर्य है। यहां के प्राचीन मंदिरों में संस्कृत और पालि में लिखी गई अनेक धार्मिक पुस्तकें आज भी सहेज कर रखी हुई हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने पुरखों से विरासत के तौर पर प्राप्त हुई यह साहित्यिक धरोहर आज भी वहां के मंदिरों में देखी जा सकती है।
स्याम
ईसा की तीसरी शताब्दी में स्याम थाईलैंड में भारतीय उपनिवेश की स्थापना हुई। ग्यारहवीं शताब्दी तक यहां हिंदुओं का राज्य रहा। इंद्रादित्य यहां पर एक सुप्रसिद्ध शासक था। बाद में थाई जाति ने इस पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया और तत्पश्चात यहां बौद्ध धर्म का खूब प्रचार हुआ। भारत के साथ राजनैतिक और सांस्कृतिक संबंधों के कारण ही आज स्याम की भाषा में भारतीय भाषा और साहित्य का प्रभाव विद्यमान है। आज भी यहां हीनयान बौद्ध मतावलंबी अधिक संख्या में पाए जाते हैं। खरोष्टी और ब्राह्मी लिपि के साथ ही प्राकृत भाषा का प्रचलन जोरों पर था। सरकारी पदों के लिए भी अनेक भारतीय शब्द मिले हैं। अनेक स्टेशनों और सड़कों के नाम भी भारतीय हैं। होली, दिवाली और ईद आदि भारतीय पर्व भी धूमधामपूर्वक मनाये जाते हैं। वहां के रेडियो और टेलीविजन भारतीय कार्यक्रम भी प्रसारित करते हैं।
चंपा
ईसा की दूसरी शताब्दी में हिंदुओं ने चंपा में अपना उपनिवेश बनाया। चंपा की बस्ती कंबोडिया के उत्तर में स्थित थी और इसकी राजधानी अमरावती थी। दूसरी शताब्दी से पंद्रहवीं शताब्दी तक यहां कई हिंदू वंशों ने राज्य किया। यहां के अधिकांश लोग हिंदू धर्म को मानते हुए शिव की पूजा करते हैं। यहां के वीर शासकों ने कंबोडिया के आक्रमणों को सफलतापूर्वक रोका। पंद्रहवीं शताब्दी में मंगोल आक्रमणकारियों ने इस पर अधिकार कर लिया। इस राज्य में अनेक विशाल नगर बसे हुए थे और सारा राज्य हिंदू मंदिरों से सजा हुआ था। पहले-पहले शिक्षा प्राय: घरों में या गुरुकुलों में ही दी जाती थी। धीरे-धीरे साहित्यिक क्षेत्रों में भी निरंतर वृद्धि होती चली गई और प्राकृत भाषा शैलियों में पर्याप्त लेखन कार्य हुआ।
जापान
जापान में बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के प्रभाव का प्रतीक है। यह धर्म छठी शताब्दी में जापान पहुंचा। इससे पूर्व यहां के लोग शितों धर्म को मानते थे। नवीं सदी में बौद्ध धर्म तथा शितों धर्म के बहुत से देवताओं का समन्वय हो गया। छठी शताब्दी में चीन में जिस ध्यानवाद की नींव डाली थी उसका जापान में प्रचार क्योआन एईसाई ने किया जो कि बौद्ध मत के जन्मदाता हैं। वहां पर आज भी स्कूल ऑफ फारेन लैंग्वेजिज में भारतीय साहित्य पढ़ाया जाता है। टोक्यो, ओसाका और क्योत्रा जैसे विश्वविद्यालयों में हिंदी व संस्कृत वैकल्पिक विषयों के रूप में पढ़ाये जाते हैं। वहां के रेडियो और टेलीविजन पर संस्कृत और हिंदी लेखकों का साहित्य प्रसारित होता है और विभिन्न क्षेत्रों की नई पुरानी हस्तियों की जानकारी दी जाती है। यहां के भारत वासियों का नवजात शिशु जब एक माह का होता है तो उसका नामकरण संस्कार करके उसके मुंडन पर पड़ौसी तथा संबंधी उसकी दीर्घायु के लिये मंगल गीत गाते हैं। किशोर होने पर भले ही बौद्ध मत के अनुकूल साधु बनने की उसकी आकांक्षा न हो तो भी उसे कम से कम एक सप्ताह किसी बौद्धमठ के उपदेशों का पालन करते हुए व्रती बनकर बौद्ध भिक्षु का जीवन व्यतीत करना पड़ता है।
भारत के यज्ञोपवीत की तरह यहां भी इसका वैसा ही महत्व है। लड़कियों का जब कर्णवेध किया जाता है तो उस समय पहली बार उन्हें सोने की बालियां पहनाई जाती हैं। प्रणय सूत्र में बंधने से पूर्व उनकी जन्म कुण्डलियों की जांच होती हैं। पान के बिना यहां कोई भी उत्सव संपन्न नहीं होता। ज्योतिष शास्त्र शब्द भी संस्कृत या पाली शब्दावलियों के हैं। ताम्रपत्रों या मिट्टी के अस्थिपत्रों पर भी संस्कृत या प्राकृत शब्दों की भरमार है।
श्री लंका
भारत और श्रीलंका के संबंध बहुत प्राचीनकाल से अर्थात महाकाव्य युग से हैं जबकि राम ने लंका के राजा रावण को परास्त करके वहां भारतीय संस्कृति का संदेश पहुंचाया। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में काठियावाड़ के नरेश विजय ने वहां भारतीय उपनिवेश की स्थापना की थी। उसके बाद अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रयोजनार्थ अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को वहां भेजा था। सभी धर्म प्रचारकों ने वहां भारतीय विचारधारा साहित्य और संस्कृति का खूब प्रचार किया। लंका ने दीपवम्स और महावम्स नामक दो प्रसिद्ध ग्रंथ बौद्ध साहित्य को दिये। इस प्रकार भारत और लंका के सांस्कृतिक संबंधों के कारण भाषा साहित्य पर वहां गहरा प्रभाव पड़ा। बौद्ध के प्रचार संबंधी अशोक के शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि का तथा भाषा पाली का प्रयोग मिलता है।
अफगानिस्तान
अफगानिस्तान के उत्तर में बेग्राम और बाभियान में अनेक बौद्ध विहार, स्तूत तथा बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं। यहां की और भारतीय कलाओं में काफी समानता है। यहां अनेक गुफाएं भी मिली हैं जिनमें बुद्ध भिक्षु रहते थे। मौर्य काल में तो अफगानिस्तान मौर्य साम्राज्य का ही भाग था। यहां बौद्ध धर्म का प्रचार और हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतियां प्राप्त हुई हैं जिन पर पाली भाषा और खरोष्टी लिपि उत्कीर्ण है। भारतीयों ने आशगर, खोतान और तुरफान आदि स्थानों पर अपनी बस्तियां बसा रखी थी। फाह्यान और ह्वेनसांग के कथनानुसार जब उन्होंने मध्य एशिया की यात्रा की तो उस समय सारे प्रदेश में बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार था। खोतान और कूची पाली व प्राकृत भाषाओं के बहुत बड़े केंद्र थे। मध्य एशिया के लोगों के नाम भीम, आनन्द सेन और बुद्ध घोष आदि भारतीय नाम होते थे। शासक महाराज व देवपुत्र आदि राजाओं की उपाधियां ग्रहण करते थे। रामायण, वेद मंत्र, श्रीमद्भागवत और सत्यनारायण कथाएं वहां बराबर गुंजायमान थीं।
चीन
चीन और भारत के सांस्कृतिक संबंध बहुत प्राचीन हैं। इन्हीं के कारण भारतीय संस्कृति भी चीन में पहुंची और इसने वहां के लोगों को अपने रंग में रंग लिया। चीन के सम्राट मिंग टी ने 62 ई. में बौद्ध धर्म को ग्रहण किया। उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म रत्न कुमार जीव और कश्यप मतंग नामक दो बौद्ध भिक्षुओं को चीन में बुलाया। ये बौद्ध भिक्षु अनेक ग्रंथ चीन में ले गये। उसने बौद्ध धर्म के अनेक ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद कर चीन में भारतीय साहित्य और संस्कृति का खूब प्रचार किया। समय-समय पर चीनी यात्री फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग आदि बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने और बौद्ध धर्म संबंधी ग्रंथों को इक_ा करने भारत आए। चीन के भी अनेक छात्र यहां के तक्षशिला नालंदा विक्रम स्यालकोट और बल्लभी आदि अनेक शिक्षा केंद्रों में अध्ययनरत थे। चीन और भारत के बीच में कई संपर्क मार्ग हैं। मध्य एशिया का मार्ग, तिब्बत का मार्ग तथा समुद्री मार्ग। इन मार्गों के द्वारा भारतीय साहित्य चीन में पहुंचा था।
चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाले काश्यप, मातंग वाले संस्कृत ग्रंथों के चीन अनुवादों में से अब केवल कुछ ही उपलब्ध हैं। 381 ई. में संघ भूती तथा 384 ई. में गौतम संघदेव नामक कश्मीरी आचार्य चीन में पहुंचे। बाद में गणवर्मा भी समुद्र के मार्ग से चीन गए। तीनों ने दक्षिणी चीन की राजधानी नानकिंग के चेतवन विहार में रहकर अनेक बौद्ध ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया। काश्मीर से ही नहीं, मध्य प्रदेश से भी महायान संप्रदाय के विद्वान क्षेमचंद और उज्जयिनी से विद्वान परमार्थ भी चीन गये।
गांधार देश से बुद्ध भद्र विमोक्ष और जिन्नगुप्त भी बौद्ध धर्म प्रचारक थे। बुद्ध भद्र के प्रचार काल में चीन में प्रसिद्ध विद्वान हुई युआन ने दक्षिणी चीन में एक नये विहार की स्थापना की थी जिसमें प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवादों को सुरक्षित रखने के लिए अनुवाद पीठ की व्यवस्था की गई थी। 627 ई. में आचार्य प्रभाकर, 693 ई. में बोधिरुचि तथा 716 ई. में शुभ कर्णसिंह चीन की भूमि में बौद्ध धर्म को और अधिक पल्लवित करने चीन पहुंचे थे। 1982 ई. में धर्मादेव की अध्यक्षता में एक मंडली ने वहां 201 ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया।
थित्सिंह के अनुसार तीसरी सदी के मध्य में 30 चीनी भिक्षु भारत आए थे और उनके आदर सत्कार के लिये तत्कालीन मगध सम्राट श्री गुप्त ने संघाराम का निर्माण कराया था। 399 ई. में ताओन्गन और फाह्यान ने भारत के वैशाली, पाटलिपुत्र, राजगृह, वाराणसी, बोध गया, तक्षशिला, मथुरा और कपिलवस्तु आदि स्थानों के दर्शन किए। यहां उन्होंने संस्कृत का अध्ययन करके बहुत से ग्रंथों का चीनी भाषा में स्वयं अनुवाद किया। 404 ई. में भी चेन्मोंगे नामक एक भिक्षु के नेतृत्व में 14 चीनी भिक्षुओं की एक मंडली ने भारत के लिए प्रस्थान किया। चेन्मोंग ने कपिलवस्तु तथा पाटलीपुत्र की यात्रा करने के बाद चीन लौटने पर 439 ई. में अपनी यात्रा का वर्णन लिखा। 618 ई. में चीन में तांग वंश का शासन आरंभ हुआ। बौद्ध में रुचि होने के कारण इस वंश के सम्राटों ने भारत में अनेक मिशन भेजे। तांग वंश के यहां आए यात्रियों ह्वेनसांग का नाम और काम बहुत पसंद है। आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक चीनी यात्रा भारत में निरंतर आते रहे। हुआई-वेन अंतिम चीनी यात्री था जो बौद्ध धर्म के अध्ययन हेतु भारत आया।
भारतीय संगीत की छाप भी चीन के संगीत पर दृष्टिगत होती है। 560-578 तक संजीव नाम संगीताचार्य ने जिस संगीत का चीन में प्रचार किया, वह सात सुरों से निर्मित भारतीय संगीत था। ज्योतिष के क्षेत्र में पंचांग तैयार कराने के ध्येय से भारत नवग्रह नामक ग्रंथ का अनुवाद वहां आज भी उपलब्ध है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र संबंधी ग्रंथ रावणकुमार चरित का चीनी अनुवाद अभी तक भारत की चिकित्सा पद्धति के चीन पर प्रभाव के रुप में प्राप्त है। कुल मिलाकर प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति का सुदूर एशियाई देशों के साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, कल तथा चिकित्साशास्त्र पर प्रभाव रहा है।
इस प्रकार उक्त सभी देशों में भारतीय साहित्य और सभ्यता का गहरा संस्कार समाया हुआ है। भारत से हजारों कोस दूर रहते हुए भी उन्होंने इस संस्कृति और साहित्य को इतनी सुदृढ़ता से छाती से सटा रखा है कि विरोधाभास विचारों की कैसी भी प्रचंड आंधी उन्हें नहीं हिला पाई है। इन देशों के कण-कण पर हमारे साहित्य की अमिट छाप आज भी बराबर अंकित है।

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