राहुल जी ! सबूत वही मांगता है जो सबूतों को को छुपाता है

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चीन ने मान लिया है कि गलवन घाटी में भारतीय सैनिकों के हाथों उसके कई सैनिकों को जान से हाथ धोना पड़ा था । चीन की इस स्वीकारोक्ति के पश्चात देश का ‘सबूत गैंग’ अब इस समय शांत है। चीन जिस प्रकार भारत की सेनाओं के पराक्रम और शौर्य के सामने इस समय पीछे हटने के लिए बाध्य हुआ है उसके लिए हमारे वीर सैनिकों की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है, साथ ही भारत के नेतृत्व ने भी जिस प्रकार हमारे जांबाज सैनिकों को प्रत्येक प्रकार की सुविधाएं सही समय पर उपलब्ध कराईं और उन्हें आधुनिकतम हथियारों से लैस कर स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए अधिकार दिए, इसके लिए भारतीय नेतृत्व भी बधाई का पात्र है ।

अब आते हैं देश में सक्रिय ‘सबूत गैंग’ की ओर । सबूत गैंग को इस समय यह समझाना आवश्यक है कि 1962 में जब भारत चीन के हाथों पराजित हुआ था तो वह हमारे सैनिकों के पराक्रम की हार नहीं थी, बल्कि वह उस समय के शिथिल और वस्तुस्थिति से आंखें मूंदे बैठे नेतृत्व की हार थी। यद्यपि उस समय के सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया ने 1959 से हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व को जगाना और झकझोरना आरंभ कर दिया था। उन्होंने देश के प्रधानमंत्री नेहरू को यह भी बताना आरंभ कर दिया था कि चीन कभी भी हमारे लिए खतरनाक हो सकता है, परंतु नेहरू थे कि किसी भी प्रकार की सच्चाई को सुनने को तैयार नहीं थे। नेहरू अपने रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मैनन पर अत्यधिक विश्वास करते थे और जैसा मेनन उन्हें बताते थे वैसा ही वे मानते थे। तब दोनों नेताओं की इस प्रकार की अव्यावहारिक सोच और कार्यशैली को देखकर जनरल थिमैया ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। क्योंकि कृष्ण मेनन हमारे जनरल से न केवल असहमत रहते थे बल्कि उनका अपमान करने तक की सीमा तक भी पहुंच गए थे।
1959 में चीन ने अक्साई चीन को अपने कब्जे में मजबूती से ले लिया था। उसने मैकमोहन रेखा को भी अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने से स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया था। यह दोनों ऐसी चीजें थी जिन पर हमारे नेतृत्व को जाग जाना चाहिए था, परंतु वह जागे नहीं। जनरल थिमैया इन्हीं दोनों बातों के दृष्टिगत नेहरू को जगाने की कोशिश कर रहे थे। भारतीय नेतृत्व की इस गफलत की नींद को देखकर चीन का दुस्साहस बढ़ता जा रहा था और वह दुस्साहस करते हुए तिब्बत में भारतीय सीमा तक सड़कें बनाने तक में सफल हो गया था। चीन की ऐसी गतिविधियां बता रही थीं कि वह भारत को अपना ‘लक्ष्य’ बनाकर आगे बढ़ रहा है।
तब भारत के नेतृत्व को उसकी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए थी और उसकी साम्राज्यवादी सोच के दृष्टिगत समय रहते यह निर्णय लेना चाहिए था कि चीन यदि हमारी सीमाओं की ओर बेरोक टोक बढ़ रहा है तो उसका परिणाम हमारे लिए घातक हो सकता है।
इस सब के उपरांत भी भारतीय नेतृत्व ‘हिंदी चीनी- भाई भाई’ के नारे के खोखले आदर्श को अपनाए रहा और यह मानता रहा कि चीन भारत के साथ कभी भी धोखा नहीं करेगा। नेहरू चीन के नेता चाऊ एन लाई की मीठी मीठी बातों में बहक गए , यद्यपि माओ त्से तुंग ने कभी भी नेहरू से सीधे मुंह बात नहीं की थी।
जनरल केएस थिमैय्या की जीवनी ‘थिमैया : एन अमेजिंग लाइफ’ के अनुसार भारत का राजनीतिक नेतृत्व चाहे उस समय कितना ही ‘हिंदी चीनी भाई भाई’- के नारे में मशगूल था, लेकिन भारतीय सेना अपने कर्तव्य के प्रति पूर्णतया समर्पित थी और वह चीन के प्रति किसी भी प्रकार के भ्रम, भ्रांति या संदेह का शिकार नहीं थी। यद्यपि भारतीय सेना भारतीय नेतृत्व की शिथिलता और गफलत के चलते अपने आपको असहाय और मजबूर अवश्य पा रही थी, उसे भारतीय नेतृत्व से जिस प्रकार के सहयोग और दिशानिर्देशों की आवश्यकता थी वह उसे मिल नहीं रहे थे। सेना के पास मनोबल तो था लेकिन उसके पास संसाधन और अपना कोई ऐसा विशेष बजट नहीं था जिसके आधार पर वह शत्रु का मजबूती के साथ सामना कर सके या अपने आप कोई ऐसा निर्णय ले सके जिससे देश की सीमाओं की रक्षा करने में वह सफल हो सके।
उस समय भारतीय सेना का बजट केवल 305 करोड रुपए का था, स्पष्ट है कि इतना कम बजट नेहरू ने अपनी इस सोच के चलते सेना के लिए आवंटित किया था कि भारत को सेना की कोई आवश्यकता ही नहीं है। वह अपने सारे काम पुलिस से ही करा सकते हैं। नेहरू नहीं चाहते थे कि उनके रहते हुए सेना का वर्चस्व बढ़े, वह अपने आपको देश का सर्वेसर्वा दिखाना चाहते थे, जिसके चलते उनकी दृष्टि में सेना का कोई महत्व नहीं था।
आज के सबूत गैंग में बड़ी सक्रिय भूमिका निभा रहे नेहरु की बेटी के पोते राहुल गांधी को इस सबूत पर भी कुछ बोलना चाहिए कि उनके पिता के नाना नेहरू देश के लिए सेना की कोई आवश्यकता ही नहीं मानते थे, जबकि आज भारत की सेना ही सीमा पर चीन को पीठ दिखाकर भगाने में सफल हुई है। नेहरू के समय में जनरल थिमैया की योजना के अंतर्गत भारतीय सेना ने चीन से जुड़ी सीमा पर दो युद्धाभ्यास किए थे। जिन से यह स्पष्ट हो गया था कि भारतीय सैनिकों की संख्या और सैन्य उपकरण चीन से लड़ने के लिए बहुत कम हैं। तब इन चीजों की पूर्ति के लिए तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मैनन के पास सेना ने अपनी कुछ सिफारिशें भेजी थीं। जिन्हें रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने मानने से इंकार कर दिया था।
इस बात से आहत जनरल थिमैया अपनी पीड़ा को लेकर प्रधानमंत्री नेहरु से मिले थे। नेहरू ने उनकी बातों को सुना तो सही, लेकिन अंत में उनसे यह कह दिया कि आप रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन से मिलें।
जब जनरल थिमैया रक्षा मंत्री से मिले तो रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने इस बात पर घोर आपत्ति और नाराजगी व्यक्त की कि वह इस मामले में उनसे पहले नेहरू से क्यों मिले ? जनरल थिमैया ने रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन के इस प्रकार के व्यवहार से दुखी होकर तब अपने पद से त्यागपत्र देना ही उचित समझा।
बाद की घटनाओं ने स्पष्ट कर दिया कि नेहरू और कृष्ण मैनन दोनों ही गलत थे और जनरल थिमैया अपनी जगह बिल्कुल ठीक थे। उस घटना से हमारे नेतृत्व को यह शिक्षा लेनी चाहिए थी कि सेना और सरकार का देश की सुरक्षा के मामलों में एकमत होकर काम करना बहुत आवश्यक है , लेकिन कांग्रेस ने ऐसी घटनाओं को एक परिवार की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाने वाली कहकर उपेक्षित करने का कार्य किया। आज जब सरकार और सेना दोनों उचित समन्वय बनाकर काम कर रही हैं तो कांग्रेस के नेता राहुल गांधी सरकार और सेना के समन्वय को कोस तो रहे हैं परंतु इसे राष्ट्र के लिए आवश्यक कहना उचित नहीं मान रहे। उन्हें राजनीतिक नेताओं के राजनीतिक निर्णयों की आलोचना करने का संवैधानिक अधिकार है, देश की सबसे पुरानी पार्टी और विपक्ष के नेता होने के नाते भी वह सरकारी नीतियों का विरोध कर सकते हैं, लेकिन जब वह स्वयं या उनका सबूत गैंग देश की सेनाओं के मनोबल पर प्रश्न उठाता है या सेना द्वारा दिखाए गए किसी शौर्य या पराक्रम का कोई सबूत मांगता है तो बड़ा दुख होता है।
वास्तव में देश में सक्रिय सबूत गैंग वह गैंग है जिसने कभी सुभाष चंद्र बोस के पराक्रम पर भी सबूत मांगे थे। सरदार पटेल ने देश का जिस प्रकार एकीकरण किया, उस पर भी यह गैंग आज तक विश्वास नहीं करता और उसके भी सबूत मांगता है। सबूत गैंग सबूत क्यों मांगता है यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि जो सबूत छुपाता है वही सबूत मांगता है। सबूत गैंग ने भारत वर्ष के इतिहास से इस सबूत को छुपाया कि देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू नहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस बने थे ।जिन्होंने 21 अक्टूबर 1943 को इस पद की शपथ ली थी और उनकी सरकार को कई बड़े देशों ने तत्काल मान्यता दे दी थी। इस गैंग ने सरदार पटेल के भी उन सारे महान कार्यों के सबूत छुपाए हैं जिससे वह देश की जनता के हीरो बन सकते थे। अब जो गैंग प्रारंभ से ही सबूत छुपाने का काम करता रहा है और सबूत छुपा कर सबूत मांगने का आदी रहा है, वह आज के उन पराक्रमी और शौर्यपूर्ण सबूतों को भी छुपाने का ही काम करेगा, जिससे देश का नाम रोशन हो रहा है।
अब जबकि चीन ने अपनी स्वीकारोक्ति के पश्चात हमारे देश के सबूत गैंग को इस बात का सबूत दे दिया है कि भारत की सेना के शौर्य और पराक्रम के सामने उसकी सेना पीठ दिखा कर भाग चुकी है तो सबूत गैंग को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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