पंजाब चुनाव में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की कॉन्ग्रेस को मिले जनादेश के अर्थ
-राकेश सैन
सामान्य बुद्धि से पंजाब के स्थानीय निकाय चुनाव परिणामों के पीछे किसान आंदोलन गिनाया जा सकता है परंतु यह पूर्णरुपेण सच्चाई नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पराजित दलों में भाजपा के साथ-साथ अकाली दल बादल और आम आदमी पार्टी भी शामिल हैं।
देश के सीमांत राज्य पंजाब में संपन्न हुए स्थानीय निकाय चुनाव परिणामों का विश्लेषण इन शब्दों में किया जा सकता है कि विकल्पहीन विपक्ष वाले इस राज्य में जनता ने मुख्यमंत्री ‘कैप्टन अमरिंदर सिंह की कांग्रेस’ को जनादेश दिया। ‘कैप्टन कांग्रेस’ इसलिये क्योंकि पांच नदियों की इस धरती के संदर्भ में देश की सबसे पुरानी पार्टी में सोनिया-राहुल का केंद्रीय नेतृत्व हाथ की छठी अंगुली के समान है जिसका अस्तित्व तो है परंतु भूमिका नहीं। कांग्रेस ने 2017 का विधानसभा चुनाव भी ‘चाहुंदा है पंजाब कैप्टन दी सरकार’ के नारे तले लड़ा और आशातीत सफलता प्राप्त की। कैप्टन के ही नाम से कांग्रेस ने 2017 के बाद लोकसभा से लेकर पंचायत तक पांच चुनाव जीते हैं। वर्तमान में 14 फरवरी को हुए मतदान में नगर परिषदों के 2165 वार्डों में कांग्रेस ने 1214, शिअद ने 261, निर्दलीयों ने 333, भाजपा ने 29 और आम आदमी पार्टी ने 48 वार्डों में जीत दर्ज करवाई है। इसी तरह 7 नगर निगमों के 350 वार्डों में कांग्रेस ने 270, शिअद ने 33, भाजपा ने 20, निर्दलियों ने 18 और आम आदमी पार्टी ने केवल 9 वार्डों में जीत दर्ज करवाई। इन चुनावों को अगले साल फरवरी-मार्च 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों के सेमिफाइनल के रूप में देखा जा रहा है।
सामान्य बुद्धि से इन चुनाव परिणामों के पीछे किसान आंदोलन गिनाया जा सकता है परंतु यह पूर्णरुपेण सच्चाई नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पराजित दलों में भाजपा के साथ-साथ अकाली दल बादल और आम आदमी पार्टी भी शामिल हैं जो एक दूसरे से आगे बढ़ कर किसान आंदोलन का समर्थन करती रही हैं। दूसरा वर्तमान निकाय चुनाव शहरी क्षेत्रों में लड़े गए जहां किसान आंदोलन का प्रभाव नगण्य, बल्कि प्रभावित लोग अधिक निवास करते हैं। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि शहरों में रहने वाले किसान परिवारों ने खुल कर कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया हो सकता है।
इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किसान आंदोलन के नाम पर खालिस्तानी आतंकवाद के उभार ने शहरी मतदाताओं को कांग्रेस के पक्ष में लामबंद किया हो। आतंकवाद के मोर्चे पर राष्ट्रीय परिस्थितियों के विपरीत पंजाबियों का अन्य दलों से अधिक कांग्रेस पर अधिक विश्वास रहा है। स्वर्गीय ज्ञानी जैल सिंह हों या स. दरबारा सिंह या फिर स्वर्गीय बेअंत सिंह सभी पूर्व मुख्यमंत्री इस मोर्चे पर चुनाव जीतते रहे हैं। पंजाब में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक मानी जाती हैं और वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी खालिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ मुखर रहे हैं। आतंकवाद के मोर्चे पर राज्य के लोग भाजपा की भूमिका को स्वीकारते तो हैं परंतु पार्टी के सशक्त प्रांतीय नेता के अभाव में कांग्रेस के पक्ष में लामबंद होते रहे हैं। शायद यही कारण रहा है कि किसान आंदोलन को सबसे पहले समर्थन देने के बावजूद लाल किले पर हुई घटना के बाद भी पंजाब के लोगों ने आतंकवाद के मुद्दे पर कांग्रेस के प्रति विश्वास जताया है।
पिछले कई वर्षों से पंजाब में विपक्ष के पास कैप्टन के विकल्प का अभाव खलता आ रहा है। पिछले डेढ़-दो दशकों से राज्य की राजनीति अकाली दल के वयोवृद्ध नेता स. प्रकाश सिंह बादल और कैप्टन के बीच बराबरी का मुकाबला चला आ रहा था परंतु विगत विधानसभा चुनावों में हार और वृद्धावस्था के चलते प्रकाश सिंह बादल राजनीति में निष्क्रिय हो चुके हैं। अकाली दल का नेतृत्व उन्होंने अपने पुत्र स. सुखबीर सिंह बादल को सौंप तो दिया परंतु जिस तरह महाराजा रणजीत सिंह जैसी नेतृत्व योग्यता का उनके पुत्र महाराजा दलीप सिंह में अभाव था ऐसी ही परिस्थितियों का स. सुखबीर सिंह बादल को सामना करना पड़ रहा है। अकाली दल के कई वरिष्ठ नेता प्रकाश सिंह बादल पर पुत्रमोह में दल का बंटाधार करने का आरोप लगा कर दल से किनारा कर चुके हैं। किनारा किए हुए वरिष्ठ अकाली चाहे स्वयं भी अपना राजनीतिक अस्तित्व दर्ज करवाने में असमर्थ हैं परंतु दो राय नहीं कि इससे अकाली दल तो कमजोर हुआ ही है।
अकाली दल से संबंध विच्छेद के बाद भारतीय जनता पार्टी ने काफी लंबे समय के बाद अपने दम पर चुनाव लड़े। इन चुनावों में पार्टी की यह उपलब्धि अवश्य रही है कि इतने छोटे समय में वह 60 प्रतिशत सीटों पर प्रत्याशी उतार पाई परंतु किसान आंदोलन के नाम पर पार्टी के साथ हुई गुंडागर्दी के चलते वह अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाई। किसानों के नाम पर गुंडागर्दी व राज्य की लचर कानून व्यवस्था का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष अश्विनी शर्मा पर कई बार हमले हो गए। भाजपा के प्रत्याशी खुल कर न तो रैलियां कर पाए और न ही निर्भय हो कर प्रचार अभियान चला पाए। कहा तो यहां तक जाता है कि इन परिस्थितियों में कई जगहों पर जीतने की संभावना वाले उम्मीदवार तो आगे ही नहीं आए और पार्टी को मैदान में प्रत्याशी उतारने के लिए खानापूर्ति तक करनी पड़ी। राज्य में भाजपा की रैलियों पर हमले, तंबुओं-कुर्सियों की तोड़फोड़, नेताओं की गाड़ियों पर पथराव, भाजपा कार्यालयों पर हमले, सोशल मीडिया पर भाजपाईयों से गाली गलौज, इन सब पर पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता आदि बातों ने मिला कर राज्य में भय का वातावरण तैयार कर दिया। ऐसे में भाजपा का चुनाव लड़ना ही अपने आप में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जा सकता है। चाहे भाजपा ने इसके खिलाफ आवाज भी उठाई और राज्यपाल वी.पी. सिंह बदनौर को ज्ञापन भी सौंपा परंतु इसका कोई परिणाम नहीं निकला। ऊपर से किसी बड़े केंद्रीय नेता ने भी प्रांत में भाजपाईयों के पक्ष में आवाज नहीं उठाई जिससे पार्टी का काडर निर्भय हो कर चुनाव नहीं लड़ पाया। चाहे पंजाब भाजपा में प्रदेश प्रधान अश्विनी शर्मा, पूर्व अध्यक्ष अविनाश राय खन्ना, केंद्रीय राज्य मंत्री सोमप्रकाश सहित अनेक वरिष्ठ नेता हैं परंतु अकाली दल के साथ कई दशकों से चले आ रहे गठजोड़ के कारण भाजपा नेताओं को अपना राजनीतिक कद इतना बढ़ाने का अवसर नहीं मिला कि वह कैप्टन का विकल्प बन पाएं। राज्य में किसी समय आम आदमी पार्टी का हुआ आकस्मिक उभार भी अब वैसा नहीं रहा है जिससे आज कैप्टन के सामने विपक्ष विकल्पहीन नजर आ रहा है।
पंजाब में कांग्रेस के लगभग 80 विधायक, लोकसभा-राज्यसभा के दस सांसद और सरकार हितैषी नौकरशाही का लाभ भी सत्ताधारी दल को मिला। यही कारण रहे कि राज्य में विकास के अभाव, सरकार में हजारों कमियों के बावजूद कांग्रेस ने निकाय चुनावों में एकतरफा जीत दर्ज करवाई है।
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