#डॉ_विवेक_आर्य
एक मित्र ने पूछा कि ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है तो वह अपनी शक्ति से प्रकृति को क्यों नहीं बना सकता? ईश्वर को सृष्टि की रचना के लिए प्रकृति की क्या आवश्यकता है?
इस विचार का पोषण मूल रूप से सेमेटिक मत जैसे इस्लाम और ईसाइयत करते है। उनकी मान्यता है कि पूर्व में कुछ भी नहीं था और केवल ईश्वर था। ईश्वर ने कहा की सृष्टि हो जा और सृष्टि बन गई गई। यहाँ पर ईश्वर ने उनके अनुसार अभाव से भाव की उत्पत्ति की है।
ईश्वर निश्चित रूप से सृष्टि का रचयिता है। पर वह स्वयं जगत के रूप में परिणत नहीं होता। ईश्वर चेतन सत्ता है। जगत जड़ पदार्थ है। चेतन का परिणाम जड़ और जड़ का परिणाम चेतन होना संभव नहीं है। कारण यह है कि यदि चेतन जड़ बन सकता है तो जड़ को भी चेतन बनने से कौन रोक सकता है। इसलिए चेतन से जड़ और जड़ से चेतन दोनों का बनना संभव नहीं हैं। इसलिए सत्य यह है कि चेतन सदा चेतन है और जड़ सदा जड़ है। इससे यही सिद्ध होता है कि जड़ जगत जिस मूल तत्व का परिणाम है। वह जड़ होना चाहिये। उसी का नाम प्रकृति है।
ईश्वर के यहाँ पर सर्वशक्तिमान होने का अर्थ है कि प्रकृति से जगत की रचना करने में ईश्वर को किसी अन्य कर्ता के सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती। वह इस कार्य को करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। ईश्वर इसका निमित्त, प्रेरयिता , नियन्ता और अधिष्ठाता है। जो लोग यह पूछते है कि ईश्वर, आत्मा और प्रकृति का मूल क्या है। तो उसका उत्तर दर्शन मूल का मूल नहीं होता। इस प्रकार से देते है। अर्थात तीन सत्ता अनादि है। ईश्वर, प्रकृति और आत्मा। तीनों भिन्न है। तीनों का न कोई आदि है और ना ही अंत है।
मूले मूलाभावादमूलं मूलं !!!- (सांख्य दर्शन -1.67)